×

बूढ़ी पटरियों को रौंदते पहिये, फिर भी अधिकारियों का रहता गैरज़िम्मेदाराना रवैया

By
Published on: 25 Nov 2016 9:17 AM GMT
बूढ़ी पटरियों को रौंदते पहिये, फिर भी अधिकारियों का रहता गैरज़िम्मेदाराना रवैया
X

‘खतरनाक डिब्बों को खींचती हुई भारतीय रेल टूटी पटरियों पर दौड़ रही है। रेल यात्रियों को बेसिक सुरक्षा और संरक्षा की दरकार है जिसे पूरा करने में फिलहाल अभी तक तो रेलवे असफल ही रही है। तमाम कमेटियां बनीं लेकिन उनकी सिफारिशों को ध्यान देने योग्य नहीं समझा गया। हादसे होते हैं, लेकिन जांच भी ज्यादातर वही लोग करते हैं जो स्वयं हादसों के लिए कहीं न कहीं जिम्मेदार हैं।’

योगेश मिश्र योगेश मिश्र

लखनऊ। लोगों की आंखों में बुलेट ट्रेन का सपना बुनने वाली भारतीय रेल देशी मानकों पर ही खरी नहीं उतर पा रही है। कानपुर के पुखरायां में पटना-इंदौर एक्सप्रेस की दुर्घटना की जांच रिपोर्ट इस बात को तफ्सील से पुष्ट करती है। जांच में जुटे अधिकारियों के हाथ यह तथ्य लगा है कि रेल की पटरी डेढ़ फुट टूटी थी। हैरतअंगेज यह है कि देश में रोजाना 40 स्थानों पर दर्जनों ट्रेनें टूटी पटरियों पर दौड़ रही हैं। सिर्फ पिछले महीने ही देश भर में रेल फ्रैक्चर (पटरियों के टूटने) और वेल्डिंग फ्रैक्चर (वेल्डिंग खुल जाने) के 1312 मामले मामले सामने आए हैं। रेल लाइन टूटने के बाद पूरी ट्रेन लाइन के किनारे पड़ी मिट्टी में धंस गयी थी। इमरजेंसी ब्रेक लगने के बाद ट्रेन को पांच सौ से 750 मीटर की दूरी पर रुकना चाहिए पर यह ट्रेन 250 मीटर से कम दूरी पर ही रुक गयी। यहीं नहीं, बीते तीन साल में हुई छह रेल दुर्घटनाएं यह साबित करती हैं कि संरक्षा के मामले में निर्धारित मापदंड पर हमारी रेल खरी नहीं उतरी है।

एक्सीडेंट वाले पहियों का दोबारा इस्तेमाल:

आमतौर पर जो डिब्बे पटरी से उतर जाते हैं उनके पहियों को दोबारा पटरी पर नहीं चढ़ाया जाना चाहिए। यदि ऐसा किया जाना है तो पहियों को दोबारा बनाया जाना चाहिए। पर रेल महकमा इस नियम पर बहुत कम ही अमल करता है। रेल सुरक्षा व आधुनिकीकरण पर काकोदकर कमेटी के सुझाव को ठंडे बस्ते में डालना भी यह बताता है कि संरक्षा के मामले में अनदेखी सरकारों की नीति और नीयत का हिस्सा हो गयी है। काकोदकर समिति ने सुझाव दिया था कि आईसीएफ कोच का निर्माण बंद कर एलएचबी कोच का ही निर्माण किया जाना चाहिए। यह कोच अच्छे होते हैं और ट्रेन के पटरी से उतरने पर जान माल का कम नुकसान होता है। पर असलियत में ऐसा नहीं हो पा रहा है।

काकोदकर कमेटी के अगर सभी सुझावों पर अमल किया जाए तो भी पांच साल में एक लाख करोड़ रुपए से ज्यादा खर्च नहीं होने हैं। पिछला रेल बजट पेश करते हुए रेलमंत्री ने 2015-2019 तक की पंचवर्षीय योजना में एक निवेशक प्रस्ताव पेश किया था। इसके तहत ‘नेटवर्क डीकंजेशन’ यानी पटरी को खाली रखने में उठाए गए कदम, विद्युतीकरण, दोहरीकरण के साथ विद्युतीकरण और ट्रैफिक सुविधाओं पर 1 लाख 99 हजार करोड़ रुपए, नेटवर्क क्षमता बढ़ाने पर 1 लाख 93 हजार करोड़ रुपए, पूर्वोत्तर राज्यों और कश्मीर में कनेक्टिवटी के लिए नेशनल प्रोजेक्ट के तहत 39000 हजार करोड़ रुपए, ट्रैक आधुनिकीकरण, पुलों की मरम्मत, ओवरब्रिज, अंडरपास, सिग्नलिंग और टेलीकॉम के लिए 1 लाख 27 हजार करोड़ रुपए, आईटी और शोध पर 5 हजार करोड़ रुपए, कोच निर्माण, लोकोमोटिव और वैगन बनाने के लिए एक लाख 2 हजार करोड़ रुपए, यात्री सुविधाओं पर 12500 करोड़ रुपए, हाईस्पीड रेल और एलीवेटेड कॉरिडोर पर 65 हजार करोड़ रुपए, स्टेशन पुनॢनर्माण और आधारभूत संरचनाओं पर एक लाख करोड़ रुपए खर्च कर कुल आठ लाख 56 हजार करोड़ रुपए का प्लान दिया पर काकोदकर समिति की सिफारिश लागू करने के लिए जरूरी धनराशि का कोई जिक्र नहीं किया। आगे की स्लाइड में ख़बर जारी...

धूल खा रही हैं हाईपावर कमेटी की सिफारिशें:

रेलवे बोर्ड के सेक्रेटरी रहे धनंजय त्रिपाठी की अगुवाई में वर्ष 2013 में एक हाईपावर्ड कमेटी बनी थी। उसने जो सिफारिशें कीं उस पर भी अमल नहीं किया गया। धनंजय त्रिपाठी के मुताबिक उनकी समिति ने सिफारिश की थी कि एयरलाइंस के पायलट की तरह रेलवे के ड्राइवरों को दो रात से ज्यादा लगातार काम नहीं कराया जाए लेकिन इस पर पूरी तरह अमल नहीं हो पाया।

लंबे समय से एंटी कोलाइजन सिस्टम लागू करने की बात तो हो रही है पर इसे लागू करने की दिशा में ठोस ढंग से कदम नहीं बढ़ाया गया। भारत में आज भी लांग वेल्ड रेल पद्धति (एलडब्ल्यूआर) से पटरियां बिछाई जा रही हैं। इसमें 13 मीटर लंबी तीन पटरियों को आपस में जोड़ा जाता है। यह तकनीक भी पुरानी पड़ चुकी है। कई देशो में 65 मीटर लंबी-लंबी पटरियां बिछाई जाती हैं ताकि उनको जोडऩे के लिए कम से कम फिश प्लेट का इस्तेमाल करना पड़े।

11,250 पुलों को मरम्मत की दरकार:

सन 2001 में रेलवे की सुरक्षा के दृष्टिकोण से स्पेशल रेलवे सेफ्टी फंड प्रभाव में लाया गया। इसके तहत 148 पुलों की मरम्मत की जानी थी। यह आज तक नहीं हो पाया। अफसरों का तर्क है कि इन पुलों की मरम्मत के लिए ट्रेनों की आवाजाही को रोकना होगा। 11250 पुलों की मजबूती और मरम्मत के लिए ‘एक्सपर्ट ग्रुप फॉर मॉर्डनाइजेशन आफ इंडियन रेलवे’ ने सिफारिश की थी। इस ग्रुप की रिपोर्ट के अनुसार देश में 1 लाख 31 हजार पुल हैं। जिसमें 25 फीसदी पुलों की आयु 100 साल से ज्यादा की हो गयी है। मध्यप्रदेश में भुसावल से खंडवा के बीच ताप्ती ब्रिज मरम्मत के काबिल है लेकिन अधिकारी इस लाइन पर ट्रेन ट्रैफिक रोक पाने में असमर्थता जता रहे हैं। बंगाल में हुगली नदी पर बना जुबली ब्रिज भी मरम्मत का मोहताज है। हालांकि रेलवे अब तक इस पर 106 करोड़ खर्च कर चुकी है। इलाहाबाद में यमुना और गंगा नदी पर बना पुल, दिल्ली में यमुना नदी पर बना पुल भी इस श्रेणी में आता है। सूत्रों के मुताबिक ब्रिटिश काल के तमाम पुलों के असुरक्षित होने के बाबत चेतावनी ब्रिटेन से भारत सरकार को समय-समय पर आती रहती है।

इंदौर एक्सप्रेस का टूट गया था ब्रेक:

कानपुर रेल हादसे की जांच कर रही पी.के. आचार्या कमेटी के हाथ यह तथ्य लगा है कि अगर डिब्बे एक साथ न धंसते तो हादसा इतना बड़ा नहीं होता। किसी वजह से इंजन से काम करने वाला ट्रेन ब्रेङ्क्षकग सिस्टम टूट गया। डिब्बे खुद से टकराकर रुके और बड़ा हादसा हो गया।

पटरियों की निगरानी करने वाले कर रहे साहबों की चाकरी:

रेल लाइनों के रखरखाव और जांच के लिए रेलवे का बड़ा अमला काम करता है। चतुर्थ श्रेणी में गैंगमैन की नियुक्ति लाइनों की जांच परख के लिए होती है। लेकिन इस व्यवस्था में रेलवे अधिकारियों की आराम तल्बी ने सेंध लगा रखी है। तमाम कर्मचारियों को अफसरों ने अपनी सेवा टहल में लगा रखा है। कागजों पर इनकी ड्यूटी रेललाइन पर होती है पर हकीकत में यह लोग साहब की चाकरी कर रहे होते हैं। यही वजह है कि पटरियों के चटखने की जानकारी समय से नहीं मिल पाती और हादसे होते रहते हैं।

जांच करने वाले ही जिम्मेदार:

हादसों से रेल मंत्रालय इसलिए भी सबक नहीं सीख रहा है क्योंकि रेलवे के संरक्षा बोर्ड में ज्यादातर लोग रेलवे के पूर्व इंजीनियर ही हैं। कहा जाता है कि रेलवे का संरक्षा आयुक्त निष्पक्ष होता है, वह रेलकर्मी नहीं होता। लेकिन यह पूरा सच नहीं है। रेल हादसों की जांच करने वाले ज्यादातर संरक्षा अधिकारी और संरक्षा आयुक्त वही हैं जो रेलवे में पहले चीफ इंजीनियर रह चुके हैं। जिन्होंने अपनी रेलवे की नौकरी के दौरान पटरियां बिछवाई हैं, वह ही दस बीस साल में इन पटरियों की खराबी को कैसे उजागर कर सकते हैं। यही वजह है कि रेल लाइनों की कमी या खराबी हमेशा छिपी रह जाती है।

भारत में बुलेट ट्रेन:

  • बुलेट ट्रेन के लिए खास तरह की पटरियां बनाने में प्रति किलोमीटर 196 करोड़ रुपये का खर्च आएगा।
  • मुंबई से अहमदाबाद के बीच 500 किमी ट्रैक बनाने में 98 हजार करोड़ खर्च का अनुमान
  • हाई स्पीड ट्रेनों के लिए नए ट्रैक का प्रति किमी खर्च 140 करोड़ होगा
  • अगर देश के मौजूदा लगभग 63974 किमी के समूचे ट्रैक को बदलना हो तो 9 लाख करोड़ रुपए चाहिए

कमाई का सिर्फ 8 फीसदी खर्च यात्रियों पर:

संरक्षा को लेकर सरकारी नजरिए का पता इससे भी चलता है कि १०० रुपए कमाई वाले रेलवे के महकमे का 33 रुपया कर्मचारियों के वेतन पर खर्च होता है। 21 रुपये ईंधन में खर्च हो जाता है। 18 रुपए पेंशन में जाते हैं। 20 रुपये रेलवे फंड, स्टोर और लीज चार्ज के मद में चला जाता है। सिर्फ 8 रुपए बचते हैं जिसमें सरकार जो भी सपने यात्री के आंखो में दिखाना चाहे दिखा सकती है।

Next Story