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यूपी में चुनावी बिसात पर हर दल की साख

लोकसभा चुनाव का तापमान धीरे धीरे बढ़ रहा है। दोनो पक्षों की सेनाएं सज रही हैं। सत्ता पक्ष पर विपक्ष की पैनी निगाह है और सत्ता पक्ष विपक्ष को निरंतन खड़ा होने का मौका नहीं देना चाहता है। मुद्दा विहीन होते चुनाव में चुनावी मुद्दों की दोनो पक्षों को ही तलाश है। रुठों को मनाने में सभी लगे हैं।

Dharmendra kumar
Published on: 13 March 2019 2:42 PM GMT
यूपी में चुनावी बिसात पर हर दल की साख
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रामकृष्ण वाजपेयी

लखनऊ: लोकसभा चुनाव का तापमान धीरे धीरे बढ़ रहा है। दोनो पक्षों की सेनाएं सज रही हैं। सत्ता पक्ष पर विपक्ष की पैनी निगाह है और सत्ता पक्ष विपक्ष को निरंतन खड़ा होने का मौका नहीं देना चाहता है। मुद्दा विहीन होते चुनाव में चुनावी मुद्दों की दोनो पक्षों को ही तलाश है। रुठों को मनाने में सभी लगे हैं। कहीं कोई कोर कसर नहीं छोड़ना चाह रहा। लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं कि भारतीय जनता पार्टी मजबूती से खड़ी है। ये बड़े आश्चर्य की बात है कि अब तक जितने भी सर्वे हुए हैं उनमें भारतीय जनता पार्टी को लोगों ने भ्रष्टाचार की कतार में सबसे ऊपर रखा लेकिन बात जब नरेंद्र मोदी की आयी तो कमेंट यही आया कि मोदी बेदाग है। कमियों के बावजूद मोदी को एक मौका और मिलना चाहिए। पता नहीं क्यों ऐसा लग रहा है कि जैसे जनता ने पिछले चुनाव में भाजपा नेताओं द्वारा किये गए वायदों को शुरू में झूठा मानते हुए भाजपा को जिताया था। और पांच साल के शासन में उन वायदों को कुछ अंश भी जनता की उम्मीद से बहुत ज्यादा था। इसीलिए जब भी चार लोग मिल कर बात करते हैं कि मोदी कैसे हैं तो तीन लोग कहते हैं ठीक हैं। एक सवाल भी आता है कि मोदी जैसा कौन है।

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राहुल गांधी की बात करें तो कांग्रेस के अध्यक्ष बनने, राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की सरकारें बनाने के बाद भी राहुल गांधी के लोकप्रियता के ग्राफ में कोई बड़ा सुधार नहीं हुआ। वह युवा तुर्क भी नहीं बन पाए। वस्तुतः देखा जाए तो मोदी को लोकप्रिय बनाने में उनके पीछे खड़े अमित शाह जैसे कद्दावर शख्स का बहुत बड़ा हाथ है। जबकि राहुल के मामले में ऐसा कुछ नहीं हुआ। राहुल कुछ कदम चलने के बाद स्लिप होने की अपनी आदत नहीं सुधार पाए। और हर स्लिप पर तीन कदम और नीचे गिरते चले गए। हालात इस कदर बिगड़े कि कांग्रेस के आलाकमान जो उनकी माताजी ही हैं को लगने लगा कि अगर कुछ नहीं किया तो राहुल कांग्रेस को नहीं संभाल पाएंगे। इसीलिए प्रियंका गांधी को राजनीति से दूर थीं उऩ्हें लोकसभा चुनाव 2019 से ठीक पहले कांग्रेस में लाकर बैलेंस करने की कोशिश की। लेकिन क्या प्रियंका करिश्म कर पाएंगी। कांग्रेस वर्किंग कमेटी में पहली बार भाषण देने वाली प्रियंका राजनीति के ककहरे से सिर्फ अमेठी रायबरेली में ही परिचित हैं। उनकी सारी व्यूह रचना केवल दो सीटों तक केंद्रित रही है। ऐसे में वह उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल या देशव्यापी स्तर चुनाव में कितनी सहभागिता कर पाएंगी। दूसरी एक बात और है कि लोकसभा चुनाव से ठीक पहले प्रियंका गांधी वाडरा की राजनीति में कहीं न कहीं राहुल गांधी की नेतृत्व क्षमता पर भी सवालिया निशान लगे हैं।

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कांग्रेस की चुनौती जहां दो सीटों के दायरे से आगे बढ़ने की है वहीं सपा बसपा गठबंधन की समस्या अपना वजूद बचाने की है। कांग्रेस के पास तो देश में कुछ राज्यों में भागीदारी है भी सपा बसपा का वजूद तो यूपी में ही है। ऐसे में यूपी में पिछले चुनाव में जीरो पर पहुंच चुकी बसपा इस बार अपना खाता खोलने की पुरजोर कोशिश करेगी। हालांकि पार्टी के पास कोई भी बड़ा नाम नहीं है। बसपा की स्टार प्रचारक सिर्फ मायावती हैं। और वही एक मात्र नेता हैं। बंटवारे में मिली सीटों के बाद क्या वह छोड़ी गई सीटों पर अपने समर्थकों को सपा का समर्थन करने के लिए राजी कर पाएंगी। क्या उनका वोट बैंक यादवों के साथ जाएगा। क्योंकि ग्रामीण स्तर पर दोनो के बीच गहरी खाई रही है। इसी तरह चुनौती अखिलेश के लिए भी है कि क्या समझौते की सीटें लेने के बाद वह चुनाव लड़ने की तैयारी कर चुके अपने समर्थकों का वोट मायावती को दिला पाएंगे जबकि विकल्प के रूप में चाचा शिवपाल की पार्टी यादवों के सामने है।

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सपा बसपा कांग्रेस तीनों की उम्मीद की किरण मुस्लिम वोट बैंक है। अब मुसलमानों को यह तय करना है कि उन्हें किसके साथ जाना है। मुसलमान यह समझ चुका है कि समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी की राष्ट्रीय स्तर पर कोई हैसियत नहीं है। यह क्षेत्रीय दल मौका पड़ने पर भाजपा के साथ भी खड़े हो सकते हैं। ऐसे में विकल्प के तौर पर कांग्रेस की तरफ देखने पर यदि उनके मन में विश्वास जम गया कांग्रेस के साथ जाने में उनका भला है तो पूरा मुस्लिम वोट बैंक कांग्रेस के साथ चला जाएगा। जिसमें सपा बसपा का चारों खाने चित्त हो जाना तय है। अलबत्ता कांग्रेस सीटें निकाल पाएगी या नहीं यह तो नहीं कहा जा सकता लेकिन फाइट में आ सकती है। शिवपाल सिंह यादव की प्रगतिशील समाजवादी पार्टी तो सब के वोट काटेगी। यह भी तय है। मुलायम सिंह यादव का एक बयान अखिलेश ने बसपा से गठबंधन कर गलती की। सपा को आधी सीटों पर पहले ही हरवा दिया कह कर जो संदेश दिया है उसका असर भी वोटिंग पर पड़ना तय है।

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उत्तर प्रदेश में ये सारे समीकरण इन दलों या बिखरे विपक्ष का भला करें या न करें लेकिन एक बात तो तय है कि इसका फायदा भाजपा के पक्ष में ही जाना है। आतंकवाद बनाम राष्ट्रवाद का मुद्दा भी चुनाव में रहेगा कोई जिक्र करे या न करे। भ्रष्टाचार का मुद्दा भी रहेगा ही। इन सबका फायदा भाजपा को मिलना है। सवाल पिछले चुनाव के परफार्मेंस का जहां तक है तो भाजपा के चाणक्य कहे जाने वाले अमित शाह की जो रणनीति है और जिस तरह से वह उसे अमली जामा पहनाने में जुटे हैं कोई आश्चर्य नहीं कि भाजपा का प्रदर्शन पिछले प्रदर्शन जैसा नहीं तो बहुत बुरा भी न रहे।

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