सहारनपुर/लखनऊ : एक बार फिर से उपचुनावों ने भाजपा को धोखा दे दिया है। कर्नाटक में चुनावों तक अच्छा प्रदर्शन कर सरकार बनाने के खेल में मात खाई भाजपा को 2019 से पहले 10 विधानसभा व चार लोकसभा सीटों के चुनावों ने एक पुनरावलोकन का संदेश तो दिया ही है।
वहीं विपक्ष को भी बताया है कि यदि उन्हें अपनी साख व धाक बनाकर रखनी है। तो आपसी सिर फुटोवल का तमाशा बंद करना पड़ेगा। निजी महत्वकांक्षाओं को एक तरफ रखना होगा। अगर उपचुनावों की तरह वे ऐसा कर पाए तो 2019 में एक खुला मैदान होगा। जिस में न तो विपक्ष के एंटी इनकंबेंसी का घाटा होगा और न ही मैदान ए जंग में यूपीए-2 से नाक में दम करने वाली सरकार से किसी भी तरह से पिंड छुटाने वाली भावनाएं होंगीं।
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भाजपा भी इससे सबक ले कि अब उसके पास मोंदी लहर की प्रचंड आंधी संभवतः नहीं होगी। इस बार मोदी सरकार के कामकाज के पांच सालों की समीक्षा वह आम आदमी करेगा जिसे चुनाव के बाद सत्ता प्रतिष्ठान बुद्धु व बुड़बक मान बैठता है।
वैसे इन चुनावों को 2019 का रिर्हसल मान केवल भनुमति के कुनबे की तरह महज एक जगह जुटने मात्र से भी विपक्ष का काम नहीं चलने वाला है। दरअसल उपचुनाव व पूर्ण चुनावों की प्रकृति में एक बड़ा अंतर होता है, इस बार तो यदि कैराना मात्र का उदाहरण लें, तो विपक्ष रालोद की उम्मीदवार तबस्सुम चौधरी के पीछे खड़ा हुआ, जो कि खुद में एक मजबूत उम्मीदवार थी। इससे पूर्व भी भाजपा की मृगांका सिंह को परास्त कर चुकी थीं। वह एक ऐसे राजनैतिक परिवार से हैं जिसमें चार पीढ़ियों से राजनीति है। उनके श्वसुर अहमद, पति मुनव्वर वें स्वयं तथा उनके बेटे नादिर अलग समय व सीटों से लोकसभा व विधानसभा में जा चुके हैं।
इससे पूर्व भी उनके व हुकुम सिंह के परिवार में पुश्तैनी राजनैतिक जंग रही है। जिसमें पलड़ा इधर-उधर होता रहा है। ज्यादा स्पष्ट शब्दों मे कहें तो इस मुसलमान बाहुल्य वाली सीट पर तबस्सुम का परिवार ही ज्यादा हावी रहा है। वहीं उनके मुकाबले मृगांका को ‘बाबूजी’ कहे जाने वाले हुकुम सिंह की बेटी होने के नाते उस लिए टिकट मिला ताकि उन्हें सहानुभूति व हिंदू वोट का लाभ मिल सके। बहुत कुछ वोट उन्हे मिले भी पर जाट राजनीति के इस बैल्ट के अकेले धुरंधर अजीत सिंह के चलते भाजपा का जाट वोट इस बार तबस्सुम के पास चला गया। दूसरे भाजपा से त्रस्त मुसलमान एक जगह लामबंद हो गए और मायावती के इशारे से दलित कुनबा भी इस बार भाजपा के खेमे में नहीं गया।
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वहीं सपा का भी काफी आधार उस बैल्ट में होने से सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव का कार्ड काफी काम आया। आप का बहुत ज्यादा आधार कैराना में नहीं था पर जो वोट थे भी वें भाजपा के साथ नहीं गए। हर तरह की लामबंदी व किसी भी तरह से भाजपा को हराने के जुनून के चलते 73 मतदान केंद्रों पर पुनर्मतदान का आदेश हुआ और मतगणना के समय भी इस बार विपक्ष की मुस्तैदी जुनूनी थी। कुल मिलाकर एक भाजपा के खिलाफ अनेक विपक्षी दल मिल कर खड़े हुए तो भाजपाई उम्मीदवार हार गई।
एक बात और क्या जब 85 सीटों की बात होगी तो यूपी में ऐसा समझौता इतनी आसानी से हो पाएगा? यदि समझौता नहीं हुआ और सिरफुटौवल के बाद हो भी गया तो कितने सूरमा खेत रहेंगे यह भी समझने वाली बात है। यदि समझौता नहीं हो पाया तो यें सारे वोट जो एक जगह पड़े हैं। बिला शक बिखर जाने वाले हैं, और फिर से भाजपा मजबूत होगी।
याद रहे, बिना साझा नीतियों व साझा कार्यक्रम के लोकसभा चुनावों में जाना विपक्ष के लिए मुश्किल भरा कदम होगा। विपक्ष के पास जो सबसे बड़ी कमी है वो ये कि पीएम नरेंद्र मोदी जैसे अद्भुत वक्ता उनके पास नहीं हैं। अमित शाह जैसा रणनीतिकार नहीं है। संघ जैसी समर्पित टीम नहीं है। बीजेपी के पास फिलहाल बेदाग़ केंद्र सरकार है। भारत की बढ़ती ताकत की छवि है। विकास के आंकड़ें हैं जो फिलहाल विपक्ष के पास नहीं हैं। उपचुनाव में मोदी सामने नहीं आए लेकिन लोकसभा चुनाव में वो सामने होंगे। जब मोदी सामने होंगे तो कैसे विपक्ष उनका मुकाबला करेगा। क्योंकि ये वही मोदी हैं जिन्होंने गुजरात में हारी बाजी बीजेपी के खाते में जीत के साथ डाल दी थी। इसमें जो समझने वाली बात है वो ये कि विपक्ष को अभी से इन फैक्टर से निपटने की तैयारी करनी होगी।
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खैर अभी 2019 की रणभेरी बजने में करीब-करीब एक साल है। इस बीच भी बहुत सारे राजनैतिक उपक्रम होने बाकी हैं। बदलाव होंगे। गठबंधन होंगे, तोड़ने जोड़ने का काम होगा। लेकिन.. लेकिन ये सब कयास हैं। असली तस्वीर मई 2019 में सामने आने वाली है।