कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के सामने आग का दरिया और उन्हें डूब के जाना है
नई दिल्ली : राहुल गांधी आज से औपचारिक रूप से कांग्रेस अध्यक्ष बन चुके हैं। राहुल और उनकी मां सोनिया में एक समानता है। दोनों ही तब अध्यक्ष बने जब पार्टी अस्तित्व के संकट से जूझ रही होती है। राहुल के सामने पीएम नरेंद्र मोदी 2019 के लोकसभा चुनाव में सबसे बड़ी चुनौती साबित होने वाले हैं। कार्यकर्ताओं का मनोबल टूट चुका है। जिसे राहुल को पुनः जोड़ना होगा। कांग्रेस के 132 साल के इतिहास में ये सबसे बुरा समय है, जब कोई पार्टी अध्यक्ष बन रहा है और उसके सामने पार्टी शून्य में खड़ी है।
गुजरात में सोमवार को वोटिंग होने वाली है। इस चुनाव में राहुल काफी मुखर तौर पर प्रचार में उतरे। उन्हें जनसमर्थन भी मिला। लेकिन उनकी मेहनत कितनी सफल हुई ये तो चुनाव परिणाम ही तय करेंगे। यदि गुजरात में कांग्रेस को मनमाफिक परिणाम मिलते हैं, तो वो अगले वर्ष में होने वाले 4 राज्यों के विधानसभा चुनावों में और अधिक उत्साह से उतरेगी।
2018 में कर्नाटक, मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में विधानसभा चुनाव होने हैं। जो राहुल के लिए काफी महत्वपूर्ण रहने वाले हैं। क्योंकि ये चुनाव तय करेंगे कि लोकसभा चुनाव में कांग्रेस राहुल के नेतृत्व में क्या करने वाली है।
राहुल के सामने कांग्रेस का कमजोर संगठन मुहं बाए खड़ा है। पार्टी के कार्यकर्ता या तो दूसरे दलों में स्थान बना चुके हैं या फिर वो सुप्तावस्था में चले गए हैं। जबकि बीजेपी के पास कार्यकर्ताओं की फ़ौज है। जो कहीं भी चुनाव पलटने का माद्दा रखती है। राहुल को यदि मोदी और शाह से टक्कर लेनी है तो उन्हें पार्टी संगठन को नए सिरे से खड़ा करना होगा। क्योंकि आज पार्टी में कार्यकर्ताओं से ज्यादा नेता हैं, जो सिर्फ दिवास्वप्न देखते हैं।
2019 लोकसभा चुनाव के पहले राहुल को विपक्ष को एकजुट करना ही होगा। इसके साथ ही उन्हें जनता के सामने कांग्रेस को एक विकल्प के तौर पर रखना आवश्यक है। क्योंकि आज जनता ये मान चुकी है की कांग्रेस अस्तांचल की ओर अग्रसर है। यदि राहुल अगले वर्ष होने वाले विधानसभा चुनावों में पार्टी को अधिकाधिक सीटें जिता पाने में सफल होते हैं तो जनता के बीच विश्वास बढेगा।
राहुल की छवि गुजरात चुनावों से पहले एक अनइक्षुक राजनेता के तौर पर स्थापित थी। लेकिन जिस तरह उन्होंने इस चुनाव में अपनी छवि को बदला है वो काबिलेगौर है। अब राहुल को अपनी इसी छवि के साथ जीना होगा। तभी कांग्रेस का कुछ भला होगा। वर्ना कांग्रेस को कोई रसातल में जाने से रोक नहीं सकता।
गुजरात में राहुल ने जिस तरह सोशल इंजीनियरिंग का सफल प्रयोग किया उससे साबित भी होता है कि वो संगठन को अच्छे से चला सकते हैं। लेकिन इसके लिए उन्होंने सबसे पहले अपने मठाधीश नेताओं पर लगाम कसनी होगी।
कांग्रेस चुनावी रूप से अपने सबसे बुरे दौर से गुजर रही है। एक के बाद के राज्य उसके हाथ से फिसल रहे हैं। यूपी में अमेठी और रायबरेली जो गांधी परिवार का गढ़ माने जाते थे। निकाय चुनाव में ये गढ़ दरक चुके हैं। सूबे में तो पहले से ही पार्टी का जनाधार निम्नतम स्तर पर था। ऐसे में ये हाल राहुल के सामने बड़ी चुनौती बन उभरा है।
यूपी बिहार में जहां पहले कांग्रेस पहले नंबर की पार्टी थी। वहां अब उसे बैसाखी के सहारे की जरुरत आन पड़ी है। यही हाल पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र और तमिलनाडु और दिल्ली का भी है जहां कांग्रेस छोटे दलों से भी पीछे खड़ी है।
कभी ब्राहमण, बनिए, ठाकुर, दलित और मुस्लिम पार्टी के मजबूत वोट बैंक होते थे। आज वो उससे कोसों दूर हैं। इस का नतीजा ये हुआ की 2014 के लोकसभा और उसके बाद हुए विधानसभा चुनावों में पार्टी तीसरे या चौथे नंबर पर चली गई।
संजय गांधी के समय में देश का युवा सिर्फ उनके साथ था। राहुल गांधी ने उन्हें कॉपी करने की कोशिश की लेकिन बात नहीं बनी। जबकि मोदी ने युवाओं को बीजेपी के पक्ष में ला खड़ा किया है। ये बात गुजरात चुनावो के परिणाम के बाद एक बार फिर साबित हो जाने वाली है। राहुल को पार्टी से युवाओं को जोड़ने के लिए ठोस रणनीति का निर्माण करना होगा। वंशवाद और हिंदुत्व पर पार्टी का विजन साफ़ करना होगा।
विपक्ष के सभी बड़े नेता सोनिया के साथ काफी सहज रहे हैं। लेकिन राहुल के साथ उनकी कैसी निभती है ये भी बड़ा विषय होगा। यूपी में अखिलेश के साथ उनका गठबंधन सिर्फ विधानसभा चुनाव तक ही चल सका, जबकि उसे लोकसभा चुनावों तक तो चलना ही चाहिए था। राहुल को इस बारे में भी चिंतन करना होगा कि आखिर क्यों छोटे दल उनके साथ जुड़ें और लंबे समय तक जुड़े रहें।
कांग्रेस के पास इस समय पांच राज्यों और एक केंद्र शासित प्रदेश में सत्ता है। राहुल को इसे न सिर्फ बचा कर रखना है बल्कि उन्हें आगे भी बढ़ना है। वर्ना 2019 में वापसी करना उनके लिए मुश्किल साबित हो सकता है।
सांसद के तौर पर राहुल का यह तीसरा कार्यकाल है। इस तरह उन्हें सक्रीय राजनीति में आए 15 साल हो चुके हैं। तो पार्टी को और उनके समर्थकों को उनसे बड़ी उम्मीदें हैं। देखना होगा कि राहुल इनपर कितना खरे उतरते हैं।