शरीर और संसार के साथ ही कर्ता का विस्मरण ही तो है ध्यान

ध्यान कोई विलक्षण क्रिया नहीं है। संसार का प्रत्येक व्यक्ति प्रतिदिन केवल ध्यान ही करता है। यदि किसी से यह पूछा जाये कि आप इस समय कितनी प्रकार की आवाजें सुन रहे हैं तो निश्चित रूप से उसका उत्तर होगा "पता नहीं"।

Update:2017-11-22 13:45 IST

रवीना जैन

मुंबई: ध्यान कोई विलक्षण क्रिया नहीं है। संसार का प्रत्येक व्यक्ति प्रतिदिन केवल ध्यान ही करता है। यदि किसी से यह पूछा जाये कि आप इस समय कितनी प्रकार की आवाजें सुन रहे हैं तो निश्चित रूप से उसका उत्तर होगा "पता नहीं"।

क्यों? क्योंकि, उस व्यक्ति का ध्यान अपने कार्य में होता है और वह उसमे इतना तल्लीन होता है कि उसे यह पता ही नहीं होता कि कितने प्रकार की ध्वनियाँ उसके कानों से टकरा रही हैं। इसी को ध्यान कहते हैं। ध्यान का अर्थ है ध्येय, विषय में मन का एकतार चलना। योग के सन्दर्भ में ध्येय विषय ईश्वर है, अतः ईश्वर के बारे में बार-बार सोचने पर मन का ईश्वर में ही एकतार चलना, अन्य कोई भी विचार मन में उत्पन्न नहीं होना ही ध्यान है।

योग पद्धति के तीसरे क्रम मनन का अभ्यास करने पर जब मन के समस्त द्वंद्व शांत हो जाते हैं ।विषय भोगों में आसक्ति, कामना और ममता (यह मेरा है, यह तेरा है) का अभाव हो जाने पर मन एकाग्र हो जाता है। सत्शास्त्रों के विवेक-वैराग्यपूर्वक अभ्यास करने से साधक की बुद्धि तीक्ष्ण हो जाती है और उसे सूक्ष्मातिसूक्ष्म परमात्मतत्त्व को ग्रहण करने की (अनुभव करने की) योग्यता अनायास ही प्राप्त हो जाती है। उसके मन के सरे अवगुण नष्ट हो जाते हैं और सारे सद्गुण उत्पन्न हो जाते हैं। उसके मन में यह दृढ निश्चय हो जाता है कि संसार के सारे पदार्थ माया का कार्य होने से अनित्य हैं अर्थात वे हैं ही नहीं और एकमात्र परमात्मा ही सर्वत्र समभाव से परिपूर्ण है।

सब कार्य करते हुए भी उसे यह अनुभव होता रहता है कि "यह काम मैं नहीं कर रहा हूँ। मैं शरीर से अलग कोई और हूँ।" इस प्रकार उसके मन में कर्तापन का अभाव हो जाता है। परमात्मा के स्वरुप में ही इस प्रकार जब स्थिति बनी रहती है, जिसके कारण कभी-कभी तो शरीर और संसार का विस्मरण हो जाता है और एक अपूर्व आनंद का सा अनुभव होता है तो इसे ही ध्यान कहते हैं।

योग के सन्दर्भ में वह कार्य, वह लक्ष्य ईश्वर है जिसका ध्यान करने से सारे संसार का विस्मरण हो जाता है। मन को ईश्वर में लगाने पर एवं ईश्वर के सगुन या निर्गुण स्वरुप का ध्यान करने पर, जब संसार का विस्मरण हो जाए, अपने शरीर का अनुभव भी होना बंद हो जाये, और एक दिव्य तेज या ईश्वर का धुंधला सा गुण रूप या शून्यता का अनुभव होने लगे तो इसे ध्यान द्वारा प्राप्त आत्मबोध या ईश्वर साक्षात्कार की प्रथम अवस्था समझना चाहिए।

साधक चाहे किसी भी मार्ग (हठ योग, ज्ञान योग, भक्ति योग, कर्म योग, राज योग) से चले उसे ध्यान करना ही पड़ता है। क्योंकि सभी मार्गों का सार ईश्वर का सदा स्मरण करते रहना है और यह नियम है कि जिस चीज का बार र स्मरण किया जाता है उसमें मन एकतार चलता ही है और उसी का अनुभव होता है। लम्बे समय तक ध्यान करने से उस ईश्वर का अनुभव समाधि के द्वारा अवश्य ही होता है।

गुरु के सान्निध्य में जब शिष्य ध्यान करता है तो ध्यान के दौरान होने वाले अनुभवों के विषय में गुरु से विचार विमर्श कर अपनी साधना को आगे बढाता है और सफलतापूर्वक समाधि तक पहुँच जाता है।

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