‘वे भारत की मुख्यधारा की पत्रकारिता में 50 वर्ष गुजार चुके हैं। छह प्रमुख अखबारों के सम्पादक और छह आध्यात्मिक चैनलों के संचालक रह चुके हैं। शोभित विश्वविद्यालय में अध्यात्म शोध अध्ययन संस्थान के अध्यक्ष हैं। रूद्रकृपा फॉउंडेशन नयी दिल्ली के अध्यक्ष हैं। प्रख्यात आध्यात्मिक व्याख्याकार हैं। प्रखर वक्ता और स्थापित लेखक हैं। वर्ष 2013 से पूर्व तक उन्हें समाज माधवकांत मिश्र की संज्ञा से जान रहा था। अब वह रुद्रसंचार पीठाधीश्वर महामंडलेश्वर स्वामी मार्तण्डपुरी की संज्ञा से जाने जा रहे हैं। मुख्यधारा की मीडिया से संन्यास की सरिता में लाने वाले श्री पंचायती अखाड़ा महानिर्वाणी के आचार्य महामंडलेश्वर परमहंस परिव्राजकाचार्य स्वामी विश्वदेवानंद जी से उन्होंने दीक्षा ग्रहण की है। स्वामी मार्तण्डपुरी जी एक कार्यक्रम में भाग लेने के लिए लखनऊ में थे। इसी क्रम में संजय तिवारी ने उनसे विविध विषयों पर लम्बी बातचीत की। प्रस्तुत हैं बातचीत के प्रमुख अंश-
- पत्रकारिता जैसी विधा में इतना लंबा सफर तय करने के बाद अचानक संन्यास और अध्यात्म में प्रवेश कैसे संभव हो सका?
देखिए, यह अचानक तो नहीं था। मैं जिस परिवार से आता हूं उसके संस्कारों में अध्यात्म बहुत गहरे तक रहा है। पिता जी स्वयं साधु थे। हमारा परिवार शाक्त सनातन परंपरा का साधक रहा है। महामना मदन मोहन मालवीय और आचार्य करपात्री जी जैसे आचार्यों का सानिध्य मिलता रहा। परिवार में माहौल ही आध्यात्मिक रहा।
- एक पत्रकार के रूप में आपको स्वयं के मूल्यांकन का अवसर मिले तो इसे किस रूप में देखेंगे?
यह सच है कि मैं कभी भी पत्रकार नहीं बनना चाहता था। मेरी मूल प्रवृत्ति अध्यात्म की रही है, लेकिन जीवन में प्रवृत्ति के साथ ही जीवनयापन के साधन के रूप में वृत्ति भी जरूरी होती है। आध्यात्मिकता मेरी प्रवृत्ति है और पत्रकारिता वृत्ति।
- एक पत्रकार के रूप में आप खुद को कितना सफल मानते हैं?
बहुत। मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि एक पत्रकार के रूप में ईश्वर ने मुझसे बहुत कराया। इतना अधिक किया कि भारतीय पत्रकारिता के इतिहास में हर बड़े बदलाव में सहभागी रहा हूं। राष्टï्रीय सहारा के सम्पादकीय प्रमुख के रूप में मैंने चार बड़े प्रयोग किये जिसे आज सभी बड़े अखबार लागू कर चुके हैं। चार पृष्ठों का रंगीन परिशिष्ट, खुला पन्ना, हस्तक्षेप जैसे प्रयोग। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में अध्यात्म को लेकर मैं ही आया। आस्था, दिशा, साधना, कात्यायनी, प्रज्ञा, सनातन जैसे आध्यात्मिक चैनल आज कितनी सफलता से चल रहे हैं इसे आप स्वयं देख सकते हैं। मैं बहुत गर्व से इस बात को कह सकता हूं कि भारतीय पत्रकारिता को जो 50 वर्ष मैंने दिए हैं वे बहुत ही सार्थक और संतोषजनक हैं।
- आपको कब पता चला कि आप का मूल वास्तव में अध्यात्म है?
मेरे मूल में प्रयाग और गंगा हमेशा से रहे हैं। एक घटना बताता हूं- मैं एक बार बहुत बीमार हो गया। परेशान होकर गंगा में स्नान करने गया। उस दिन गले तक पानी में जाकर मैं मां गंगा से बोला कि मुझे 60 वर्ष जीवन और दे दीजिये। स्नान करने के बाद मैं घर आया तो बिल्कुल ठीक हो चुका था। उस दिन से आज तक मैं कभी बीमार नहीं पड़ा। मैं जान चुका था कि मेरा जीवन अध्यात्म के लिए ही है। मुझे हर पल आभास है कि यह कृपा से प्राप्त जीवन है। यही कारण है कि किसी वाह्यï वातावरण का असर मेरी अंतश्चेतना पर नहीं पड़ा। शरीर पत्रकार बनकर कार्य करता रहा, मन अपनी दुनिया में रमा रहा।
- सुना है आप संन्यास को नए संदर्भो में परिभाषित कर रहे है?
बिल्कुल सही बात है। यह बात तो मैंने संन्यास ग्रहण करते समय ही अपने गुरुजी से कह दी थी। संन्यासी होकर यदि कोई किसी जंगल या पहाड़ में जा रहा है, आश्रम बना रहा है तो वह भी तो आखिर है संसार का ही हिस्सा। ऐसे में यदि स्वयं के घर में रहकर संन्यासी भाव मे जीवन जी लिया तो क्या दिक्कत है। मैंने कोई आश्रम नहीं बनाया। यह जरूर है कि पहले जो हम अपने घर को अपना मान लेते थे अब उसे एक सराय के रूप में देखते हैं। पहले केवल अपने बीवी बच्चों के लिए जीते थे अब समस्त संसार अपना है। हमारे भारतीय समाज में पहले प्रत्येक परिवार में साधु लोग हुआ करते थे। वे रहते तो घर मे थे, लेकिन बिल्कुल संन्यासी भाव में। इसीलिए हमारी सनातन परम्पराएं बहुत मजबूत रहती थीं। परिवार में संस्कार ही प्रमुख होता था। आज परिवारों में संस्कारों का संकट इसलिए है क्योंकि अब परिवार संन्यासी विहीन हो चुके हैं।
- आखिर संन्यास का अर्थ क्या है?
जब व्यक्ति गृहस्थ रहकर समाज के प्रति न्यास्थ हो जाता है तो वह समस्त समाज के प्रति न्यासी भाव में होता है। कोई अपना नहीं,कोई पराया नहीं। एक बात और कहना चाहूंगा कि हमारी सनातन परंपरा भोग पर रोक नहीं लगाती। हमारी परंपरा त्येन त्यक्तेन भुजीथा की पोशाक है। साधन का खूब उपयोग कीजिये पर सीमा में। साधन पर सभी का हक है। अपने हिस्से का आप उपयोग कीजिए।
- आपने कई बार शंकराचार्य परंपरा को अप्रासंगिक होने की बात कही है। ऐसा क्यों?
धर्म का उद्देश्य सभी के लिए है। मनुष्य यदि धर्माधारित आचरण करता है तो वह देवता हो सकता है। भगवान शंकराचार्य ने जिस उद्देश्य से पीठों और अखाड़ों की स्थापना की थी आज वे अखाड़े और पीठें उस उद्देश्य के साथ काम नहीं कर रहे। आज अधिकांश धर्मगुरुओं ने धर्म को व्यवसाय बना दिया है। इसीलिए मैं कहता हूं कि शंकराचार्य परंपरा को नए सिरे से स्थापित किया जाना चाहिए। आप खुद देखो कि इन्होंने हमारे सनातन को कहां लाकर खड़ा कर दिया है। एक उदाहरण श्रीमद्भागवत कथा का दे रहा हूं। हमारे शुकदेव जी इतने विरक्त थे की पूरा जीवन एक लंगोटी में बीता। जिस वृक्ष के नीचे एक बार कुछ क्षण के लिए रुके तो दुबारा वह इसलिए नहीं गए जिससे उस स्थान से उन्हें आसक्ति न हो जाय। उन्होंने परीक्षित को कथा सुनाई जिससे जगत को कल्याण के पथ पर अग्रसर कर सके। आज कथावाचकों को देखिये। लाखों-करोड़ों का पंडाल लगाकर लाखों की वसूली कर शुकदेव जी को सामने रख कर कथाए कह रहे हैं। इन कथाओ में भगवान श्रीकृष्ण और श्री राधाजी को इन सबने लैला-मजनू बनाकर छोड़ दिया है। यह विदित है कि भगवान श्रीकृष्ण की जो भी भेंट है वह केवल बाल्यावस्था की है। 13 वर्ष की आयु में ही श्रीकृष्ण ऋषि आश्रम चले गए। फिर वह कभी भी गोकुल नहीं आए। ऐसे में ये कथावाचक युवा राधा जी और श्रीकृष्ण के प्रेम आख्यानों को जिस तरह से प्रस्तुत कर रहे हैं कितना कष्टप्रद है। पूरी भागवत को इन सबने नाच गाने की कथा बनाकर रख दी है। ताजुब होता है कि इन्हे कोई रोकने-टोकने वाला नहीं है। यही हाल मठों,मंदिरो और अखाड़ों का भी हो गया है। धर्म धंधा बन गया है और कोई कुछ कर नहीं पा रहा।
- अध्यात्म के वर्तमान स्वरूप को आप किस तरह से देखते हैं?
जिस तरह के आक्रमण से सनातन अध्यात्म भगवान शंकराचार्य के समय में जूझ रहा था, आज की हालत भी लगभग वैसी ही है। सनातन पर नित नए आक्रमण किए जा रहे हैं। शंकराचार्य ने इसी आक्रमण को रोकने के लिए नगा सेना का गठन किया था। सनातन की रक्षा के लिए उन्होंने शास्त्र के साथ ही शस्त्र को भी जरूरी माना था। हर तरह के आक्रमण को रोकने की क्षमता तो रखनी ही पड़ेगी। विश्व में सभी प्रकार की कुरीतियों के निशाने पर हमारा सनातन ही है। ऐसे में भविष्य को लेकर बहुत चिंता होती है।