गत नौ तारीख को ‘बिठूर गंगा महोत्सव’ में भाग लेने के लिए सिने जगत की एक अभिनेत्री लखनऊ आयीं थीं। उन्हें हवाई अड्डे पर प्रशंसकों का अभाव खटका। वी.आई.पी. लाउन्ज में घंटों एकदम अके ली बैठी रहने के बाद भी उन्हें प्रशंसकों के नाम पर लगभग दो दर्जन बच्चों की उपस्थिति से सन्तोष करना पड़ा। ये बच्चे भी उद्देश्यपूर्ण ढंग से उनसे मिलने नहीं गये थे। यह बात सिने तारिका को बेहद अखरी। अखरना भी चाहिए क्योंकि एक जमाने में ड्रीम गर्ल’ रहीं अभिनेत्री को प्रशंसकों का ऐसा अभाव? फिर 10 तारीख को बिठूर ‘गंगा महोत्सव’ से वापस लौटते समय उन्होंने अपनी खोयी लोकप्रियता अर्जित करने के लिए हजरतगंज की एक दुकान में चिकन के कपड़़े खरीदने का बहाना अपनाया, फिर क्या था, वहां तो प्रशंसकों की भी ने उन्हें धर दबोचा और उनकी दबी हुई मंशा पूरी हो गयी। अखबारों ने उछाला। आटोग्राफ के लिए ना-नुकुर करने का उनका मायावी स्वांग पूरा हो गया। स्थिति यहां तक हुई कि प्रशंसकों के बीच से उन्हें पुलिस ने निकाला। वैसे यही रिवाज है किसी की लोकप्रियता आंकने का। मेरी दृष्टि में देश की तबाही में ‘नेता अभिनेता’ की स्थिति सर्वथा आवश्यक होती है। इनके बिना कोई भी देश पतित व अनैतिक पथ पर नहीं चल सकता है।
वैसे नेताओं और अभिनेताओं की आपसी पटरी भी खूब बैठती है क्योंकि नकारवादी प्रवृत्तियों को प्रसारित करने वाला ये जीवाणु यदि एक साथ नही रहेंगे तो अस्तित्व संकट में पड़ जाएगा। यही कारण है कि ये दोनों समान गुणधर्मी स्वीकारे जाते हंै। दोनों में भौतिकता व नैतिकता का संगम होता है।
लोकप्रियता के लिए कुछ भी करने की अभिलाषा होती है। स्टार का फिल्मों से जो रिश्ता है वही नेता का कुर्सी से है। ये ही इन दोनों के लक्ष्य हैं। स्टार की लोकप्रियता प्रति फिल्म, प्रति दर से निर्भर करती है। जबकि नेता के प्रति कुर्सी, प्रति कार्यकाल से। इसी समानता के नाते अभिनेता, राजनीति के लिए और नेता फिल्मों के लिए ‘इण्टरटिसिप्लिनरी’ हो उठे हैं। परिणाम यह हुआ कि अभिनेताओं का पलायन सांसद की ओर हुआ। बुढ़ापे में निर्देशक बनकर किसी फाइनेन्सर को तलाशने से अच है किसी राजनीतिक पार्टी के लिए ‘मदारी’ का काम भी जुटाने के लिए किया जाये क्योंकि लगातार पर्दे पर छाये रहने के बाद किसी को पर्दे पर स्थापित करना इनको वैसे भी नहीं भाता है। वैसे यह बात नेताओं पर भी लागू होती है। यही कारण है कि नेता और अभिनेता अपने पुत्रों के अलावा किसी की भी स्थापना के लिए कोई अभिलाषा नहीं रखते हैं, और न ही प्रयास करते हंै।
भारत वैसे तो इकलौता देश है जहां हमें हमारे नेता और अभिनेता का चरित्र देखने का अधिकार नहीं रह जाता है। हमें यही सिखाया जाता है कि धनुर्धारी अर्जुन जैसे उनकी उपलब्धियों को मछली की आंख की तरह देखो। पाश्चात्य देशों में जहां हमें भारतीयता न होती नजर आ रही है, वहां पर नेता का नैतिक चरित्र बहुत आवश्यक होता है। हम लोग संक्रमण की स्थिति से गुजर रहे हैं जिसमें हमें आदर्श, त्याग, बलिदान आदि चाहिए पर हममें नहीं, दूसरों में। जैसे देश की रक्षा में मरने वाला शहीद पूजनीय तो है परन्तु वह हमारा पति, पुत्र व पिता नही होना चाहिए। यह ‘हिप्पोक्रेसी’ हमारी चरित्रगत विशेषता है तभी तो हम मायावी स्थितियों में जीते हैं चाहते हैं ‘शार्टकट एचीवमेण्ट्स’।
जिस तरह देश का अभिनेता अपनी स्थापना और सुर्खियों में बने रहने के लिए तलाक, पागलपन, यायावरी और ऊटपटांग बयानबाजी तक कर बैठता है उसी तरह हमारा नेता अपनी कुर्सी बनाये रखने के लिए या सत्ता में जाने, पहुंचने के लिए कुछ भी कर सकता है। इनमें बड़ी अनिश्चितता होती है। देश की राजनीति में मण्डलवाद के नाम पर अगड़ों-पिछड़ों में बंटवारा व वैमनस्य की खाई उत्पन्न करने वाले कथित जननायक वी.पी. सिंह इस कला के पुरोधा हैं जो सत्ता और सुर्खियों के लिए हमेशा कुछ न कुछ करते रहते हैं। मन्दिर के नाम पर जब हिन्दू मतों का जखीरा भाजपा इकट्ठा कर रही थी तो इन्होंने अगड़ों-पिछड़ों का परम्परागत ढंांचा ही तो दिया और वोट की राजनीति मेें दूसरे नम्बर पर आ गये। इतना ही नहीं कांग्रेस छोड़ते समय इन्होंने अपना त्याग-पत्र राजीव गांधी को सौंपते हुए लिखा था - ‘राजीव जी। यदि पार्टी हित में हो, तो मेरा त्याग-पत्र स्वीकार कर लें।’ फिर वही राजीव गांधी बोफोर्स जैसे घोटाले के जनक हो गये। नैतिकता तो यह थी कि बोफोर्स को होने नहीं दिया जाता। उसे रोका जाता। मण्डल आयोग की सिफारिशों को जब ठण्डे बस्ते में डाला जा रहा था तब उसका विरोध किया जाना चाहिए था यानि स्पष्ट है कि वी.पी. सिंह अवसर की ताक में थे उन्हें गलती में सुधार की नहीं वरन गलती से अवसर की आवश्यकता थी। खैर अवसर उन्हें मिला भी और प्रधानमंत्री तक पहुंच गये। आज फिर वो उन्हीं स्थितियों को दोहराना चाहते हैं क्योंकि 6 दिसम्बर को जहां विहिप कारसेवा का उद्घोष कर चुकी है वहीं मण्डल आयोग को लागू करवाने के लिए 6 दिसम्बर को ही चक्का जाम का आयोजन, मायने क्या है?
इतना ही नहीं (आज) राजशाही परिवार के सदस्य वी.पी. सिंह वोट क्लब पर एक टैक्टर-टाली में तिरपाल पर रात गुजारेंगे तथा 15 नवम्बर को पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, उत्तर प्रदेश के किसानों के साथ वोट क्लब पर गेहूं बेचकर सरकार की गेहूं आयात नीति का विरोध करेंगे। वैसे इसके पीछे वीपी सिंह के तर्क बेहद पैने और सुदृढ़ हैं, क्योंकि हमारे किसानों का गेहूं सरकार 280 रुपये प्रति कुंटल पर खरीदती है जबकि वह 526 रुपये प्रति कुंटल की दर से गेंहूं आयात करेगी, जिस पर 1500 करोड़ रुपये खर्च होंगे। इस लागत से 3 लाख ट्यूबवेल लगाकर प्रति वर्ष 5 करोड़ टन गेहूं अधिक उगाया जा सकता है, परन्तु यहां की मंशा पर सवालिया निशान हैं? क्योंकि मंशा आयात नीति के विरोध की नहीं तिरपाल पर सोकर ख्याति प्राप्त करने की है क्योंकि समाचार जगत का यह मानना होता है कि एक कुत्ता आदमी को काटता है तो कोई समाचार नहीं बनता। समाचार तब बनता है जब आदमी कुत्ते को काट ले। यानि रोज इस देश में कई परिवार और लाखों गरीबी के कारण तिरपाल पर आकाश तले सोकर जिन्दगी यंू ही तमाम करते हैं वह समाचार नहीं है। वीपी सिंह ऐसा करें तो समाचार है क्योंकि वो ऐसा नहीं करते। इस घटना से इनका चेहरा स्पष्ट हो जाना चाहिए। देश में इनकी सरकार थी उस समय किसानों के गन्ने का पैसा बाकी था और अभी तक है परन्तु रामकोला में गन्ना किसानों के भुगतान की सहानुभूति उठाये बिना कैसे रह जाते।
इतना ही नहीं सरकार के अन्दर और सरकार के बाहर इनके चरित्र में काफी अन्तर होता है। जो कल्याण सिंह सरकार सुख के पहले ‘मन्दिर वहीं बनाएंगे’ जैसी स्वीकृति करते थे वही आजकल सरकार बचाने के लिए विहिप से और समय दिलवाने में कांग्रेसी मदद करते देखे जा सकते हैं। इतना ही नहीं एकता यात्रा के जननायक, महानायक भाजपा अध्यक्ष मुरली मनोहर जोशी ने कन्याकुमारी से कश्मीर तक की यात्रा से। यात्रा के मंसूबे भले ही फलाये हों परन्तु अपने शहर इलाहाबाद में ही वो भाजपा में एकता स्थापित नहीं करवा सकें। इतना ही नहीं के सरीनाथ त्रिपाठी से उनके राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने के बाद तक लाग-ठाट लगी हुई है। उसे नहीं सुला पाये। इंकाई भी गलती करते हैं। एकता यात्रा के समय उन्हंे जोशी जी और के शरी जी के घर के बीच एक लघु एकता यात्रा निकलनी चाहिए थी लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि इंका इससे परे है। इंका के पुरोधा राजनीतिज्ञ वर्तमान राष्ट्रपति जो भारतीय संस्कारों के पर्याय दिखते हैं वो भी शपथ ग्रहण और बाद में कार्यक्रमों में ‘अंग्रेजी दा’ दिखने में गर्व महसूस करते पाये जाते हैं। यह दुर्भाग्यपूर्ण एवं उपरोक्त मंशा का ही द्योतक है कि देश के प्रथम नागरिक को देश में खासकर अपने ही प्रान्त में ‘प्रशस्ति-पत्र’ की आवश्यकता पड़े। वर्तमान प्रधानमंत्री ने आंध्र प्रदेश का मुख्यमंत्री लोकतंत्र या विधायकों की आवश्यकता के लिए नहीं बदला और न ही उन्होंने न्यायपालिका ने निर्णय को माना क्योंकि अगर न्यायपालिका को मानते तो उनके मंत्रिमण्डल और पार्टी में महाराष्ट्र के ढेर सारे ऐसे नेता हैं जो इंजीनियरिंग और डाक्टरी डिग्रियों को बांटने का धन्धा वैधानिक ढंग से चला रहे हैं उन्हें कोई चेतावनी देते। सच यह है कि आन्ध्र प्रदेश में प्रधानमंत्री के रिश्तेदार व्यावसायिक कालेज चलाने की वो सारी सुविधाएं चाहते थे जिसे मुख्यमंत्री ने किसी और को दे दिया था। इतना ही नहीं चन्द्रा स्वामी जैसे व्यक्ति को अपना गुरु स्वीकारने के पीछे भी चर्चा और अवसर को हाथ से न जाने देने जैसी ही मंशा थी। यही कारण है कि देश का राजनीतिक क्षितिज धुंधला गया है। इस पर स्याह धब्बे नजर आने लगे हैं और स्थापना, चर्चा, कुर्सी जैसी अभिलाषाओं को पूरा करने में वह सब कुछ बिखरता जा रहा है जो इतिहास में जीने के लिए चाहिए। वर्तमान में जीना सुखकर लगता भले हो पर होता नहीं है। यह अन्तहीन कथा सभी राजनीतिक पार्टियों और राजनीतिज्ञों की होती जा रही है।
वैसे नेताओं और अभिनेताओं की आपसी पटरी भी खूब बैठती है क्योंकि नकारवादी प्रवृत्तियों को प्रसारित करने वाला ये जीवाणु यदि एक साथ नही रहेंगे तो अस्तित्व संकट में पड़ जाएगा। यही कारण है कि ये दोनों समान गुणधर्मी स्वीकारे जाते हंै। दोनों में भौतिकता व नैतिकता का संगम होता है।
लोकप्रियता के लिए कुछ भी करने की अभिलाषा होती है। स्टार का फिल्मों से जो रिश्ता है वही नेता का कुर्सी से है। ये ही इन दोनों के लक्ष्य हैं। स्टार की लोकप्रियता प्रति फिल्म, प्रति दर से निर्भर करती है। जबकि नेता के प्रति कुर्सी, प्रति कार्यकाल से। इसी समानता के नाते अभिनेता, राजनीति के लिए और नेता फिल्मों के लिए ‘इण्टरटिसिप्लिनरी’ हो उठे हैं। परिणाम यह हुआ कि अभिनेताओं का पलायन सांसद की ओर हुआ। बुढ़ापे में निर्देशक बनकर किसी फाइनेन्सर को तलाशने से अच है किसी राजनीतिक पार्टी के लिए ‘मदारी’ का काम भी जुटाने के लिए किया जाये क्योंकि लगातार पर्दे पर छाये रहने के बाद किसी को पर्दे पर स्थापित करना इनको वैसे भी नहीं भाता है। वैसे यह बात नेताओं पर भी लागू होती है। यही कारण है कि नेता और अभिनेता अपने पुत्रों के अलावा किसी की भी स्थापना के लिए कोई अभिलाषा नहीं रखते हैं, और न ही प्रयास करते हंै।
भारत वैसे तो इकलौता देश है जहां हमें हमारे नेता और अभिनेता का चरित्र देखने का अधिकार नहीं रह जाता है। हमें यही सिखाया जाता है कि धनुर्धारी अर्जुन जैसे उनकी उपलब्धियों को मछली की आंख की तरह देखो। पाश्चात्य देशों में जहां हमें भारतीयता न होती नजर आ रही है, वहां पर नेता का नैतिक चरित्र बहुत आवश्यक होता है। हम लोग संक्रमण की स्थिति से गुजर रहे हैं जिसमें हमें आदर्श, त्याग, बलिदान आदि चाहिए पर हममें नहीं, दूसरों में। जैसे देश की रक्षा में मरने वाला शहीद पूजनीय तो है परन्तु वह हमारा पति, पुत्र व पिता नही होना चाहिए। यह ‘हिप्पोक्रेसी’ हमारी चरित्रगत विशेषता है तभी तो हम मायावी स्थितियों में जीते हैं चाहते हैं ‘शार्टकट एचीवमेण्ट्स’।
जिस तरह देश का अभिनेता अपनी स्थापना और सुर्खियों में बने रहने के लिए तलाक, पागलपन, यायावरी और ऊटपटांग बयानबाजी तक कर बैठता है उसी तरह हमारा नेता अपनी कुर्सी बनाये रखने के लिए या सत्ता में जाने, पहुंचने के लिए कुछ भी कर सकता है। इनमें बड़ी अनिश्चितता होती है। देश की राजनीति में मण्डलवाद के नाम पर अगड़ों-पिछड़ों में बंटवारा व वैमनस्य की खाई उत्पन्न करने वाले कथित जननायक वी.पी. सिंह इस कला के पुरोधा हैं जो सत्ता और सुर्खियों के लिए हमेशा कुछ न कुछ करते रहते हैं। मन्दिर के नाम पर जब हिन्दू मतों का जखीरा भाजपा इकट्ठा कर रही थी तो इन्होंने अगड़ों-पिछड़ों का परम्परागत ढंांचा ही तो दिया और वोट की राजनीति मेें दूसरे नम्बर पर आ गये। इतना ही नहीं कांग्रेस छोड़ते समय इन्होंने अपना त्याग-पत्र राजीव गांधी को सौंपते हुए लिखा था - ‘राजीव जी। यदि पार्टी हित में हो, तो मेरा त्याग-पत्र स्वीकार कर लें।’ फिर वही राजीव गांधी बोफोर्स जैसे घोटाले के जनक हो गये। नैतिकता तो यह थी कि बोफोर्स को होने नहीं दिया जाता। उसे रोका जाता। मण्डल आयोग की सिफारिशों को जब ठण्डे बस्ते में डाला जा रहा था तब उसका विरोध किया जाना चाहिए था यानि स्पष्ट है कि वी.पी. सिंह अवसर की ताक में थे उन्हें गलती में सुधार की नहीं वरन गलती से अवसर की आवश्यकता थी। खैर अवसर उन्हें मिला भी और प्रधानमंत्री तक पहुंच गये। आज फिर वो उन्हीं स्थितियों को दोहराना चाहते हैं क्योंकि 6 दिसम्बर को जहां विहिप कारसेवा का उद्घोष कर चुकी है वहीं मण्डल आयोग को लागू करवाने के लिए 6 दिसम्बर को ही चक्का जाम का आयोजन, मायने क्या है?
इतना ही नहीं (आज) राजशाही परिवार के सदस्य वी.पी. सिंह वोट क्लब पर एक टैक्टर-टाली में तिरपाल पर रात गुजारेंगे तथा 15 नवम्बर को पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, उत्तर प्रदेश के किसानों के साथ वोट क्लब पर गेहूं बेचकर सरकार की गेहूं आयात नीति का विरोध करेंगे। वैसे इसके पीछे वीपी सिंह के तर्क बेहद पैने और सुदृढ़ हैं, क्योंकि हमारे किसानों का गेहूं सरकार 280 रुपये प्रति कुंटल पर खरीदती है जबकि वह 526 रुपये प्रति कुंटल की दर से गेंहूं आयात करेगी, जिस पर 1500 करोड़ रुपये खर्च होंगे। इस लागत से 3 लाख ट्यूबवेल लगाकर प्रति वर्ष 5 करोड़ टन गेहूं अधिक उगाया जा सकता है, परन्तु यहां की मंशा पर सवालिया निशान हैं? क्योंकि मंशा आयात नीति के विरोध की नहीं तिरपाल पर सोकर ख्याति प्राप्त करने की है क्योंकि समाचार जगत का यह मानना होता है कि एक कुत्ता आदमी को काटता है तो कोई समाचार नहीं बनता। समाचार तब बनता है जब आदमी कुत्ते को काट ले। यानि रोज इस देश में कई परिवार और लाखों गरीबी के कारण तिरपाल पर आकाश तले सोकर जिन्दगी यंू ही तमाम करते हैं वह समाचार नहीं है। वीपी सिंह ऐसा करें तो समाचार है क्योंकि वो ऐसा नहीं करते। इस घटना से इनका चेहरा स्पष्ट हो जाना चाहिए। देश में इनकी सरकार थी उस समय किसानों के गन्ने का पैसा बाकी था और अभी तक है परन्तु रामकोला में गन्ना किसानों के भुगतान की सहानुभूति उठाये बिना कैसे रह जाते।
इतना ही नहीं सरकार के अन्दर और सरकार के बाहर इनके चरित्र में काफी अन्तर होता है। जो कल्याण सिंह सरकार सुख के पहले ‘मन्दिर वहीं बनाएंगे’ जैसी स्वीकृति करते थे वही आजकल सरकार बचाने के लिए विहिप से और समय दिलवाने में कांग्रेसी मदद करते देखे जा सकते हैं। इतना ही नहीं एकता यात्रा के जननायक, महानायक भाजपा अध्यक्ष मुरली मनोहर जोशी ने कन्याकुमारी से कश्मीर तक की यात्रा से। यात्रा के मंसूबे भले ही फलाये हों परन्तु अपने शहर इलाहाबाद में ही वो भाजपा में एकता स्थापित नहीं करवा सकें। इतना ही नहीं के सरीनाथ त्रिपाठी से उनके राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने के बाद तक लाग-ठाट लगी हुई है। उसे नहीं सुला पाये। इंकाई भी गलती करते हैं। एकता यात्रा के समय उन्हंे जोशी जी और के शरी जी के घर के बीच एक लघु एकता यात्रा निकलनी चाहिए थी लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि इंका इससे परे है। इंका के पुरोधा राजनीतिज्ञ वर्तमान राष्ट्रपति जो भारतीय संस्कारों के पर्याय दिखते हैं वो भी शपथ ग्रहण और बाद में कार्यक्रमों में ‘अंग्रेजी दा’ दिखने में गर्व महसूस करते पाये जाते हैं। यह दुर्भाग्यपूर्ण एवं उपरोक्त मंशा का ही द्योतक है कि देश के प्रथम नागरिक को देश में खासकर अपने ही प्रान्त में ‘प्रशस्ति-पत्र’ की आवश्यकता पड़े। वर्तमान प्रधानमंत्री ने आंध्र प्रदेश का मुख्यमंत्री लोकतंत्र या विधायकों की आवश्यकता के लिए नहीं बदला और न ही उन्होंने न्यायपालिका ने निर्णय को माना क्योंकि अगर न्यायपालिका को मानते तो उनके मंत्रिमण्डल और पार्टी में महाराष्ट्र के ढेर सारे ऐसे नेता हैं जो इंजीनियरिंग और डाक्टरी डिग्रियों को बांटने का धन्धा वैधानिक ढंग से चला रहे हैं उन्हें कोई चेतावनी देते। सच यह है कि आन्ध्र प्रदेश में प्रधानमंत्री के रिश्तेदार व्यावसायिक कालेज चलाने की वो सारी सुविधाएं चाहते थे जिसे मुख्यमंत्री ने किसी और को दे दिया था। इतना ही नहीं चन्द्रा स्वामी जैसे व्यक्ति को अपना गुरु स्वीकारने के पीछे भी चर्चा और अवसर को हाथ से न जाने देने जैसी ही मंशा थी। यही कारण है कि देश का राजनीतिक क्षितिज धुंधला गया है। इस पर स्याह धब्बे नजर आने लगे हैं और स्थापना, चर्चा, कुर्सी जैसी अभिलाषाओं को पूरा करने में वह सब कुछ बिखरता जा रहा है जो इतिहास में जीने के लिए चाहिए। वर्तमान में जीना सुखकर लगता भले हो पर होता नहीं है। यह अन्तहीन कथा सभी राजनीतिक पार्टियों और राजनीतिज्ञों की होती जा रही है।