षताब्दियों के दासतां के अंधकार को समाप्त कर जब स्वतंत्रता का नवविहान आया तब भारत के लोगों ने भारत को एक संपूर्ण प्रभुत्व संपन्न लोकतांत्रिक गणराज्य बनाने हेतु गणराज्य बनाने हेतु न्याय, समता, स्वतंत्रता और बंधुता के आदर्ष के आधार पर दृढ़ संकल्प होकर संविधान अंगीकृत अधिनियमित और आत्मसमर्पित किया, जिसमें अनुच्छेद 343 में भारत संघ की राजभाषा हिंदी और लिपि देवनागरी संकल्पित की। आज हमारे देष में 80 करोड़ लोग 1652 से अधिक भाषाएं बोलते हैं जिसमें 63 अभारतीय भाषाएं भी हैं। संविधान निर्माण के समय संविधान की आठवीं अनुसूची में जिन 14 भाषाओं को रखा गया था। ये भाषाएं 91 प्रतिषत लोगों द्वारा बोली जाती थीं।
धीरे-धीरे जनसंख्या बढ़ी, भाषाओं को बोलने वाले लोग बढ़े तो आठवीं अनुसूची में बढ़ोत्तरी की मांग भी होने लगी। अभी हाल में नेपाली, मणिपुरी व कोंकणी भाषा को संविधान की आठवीं अनुसूची में षामिल किया गया। इन्हें लेकर इस अनुसूची में कुल 18 भाषाएं हो जाएंगी।
इन भाषाओं को षामिल करने में समाज का एक बौद्धिक तबका डरा और सहमा है कि जिस तरह नेहरू ने भाषा के आधार पर प्रांतों का बटवारा करके हिंदी को दोयम दर्जे का बना दिया और आज तक भाषाई विवाद जारी है। भाषाई दंगे अनवरत हो रहे हैं। उसी तर्ज पर फिर फिरकापरस्त ताकतें सर उठाने लगेंगी। वैसे संसद में यह 78वंा विधेयक जिस तरह से लाया गया वह एक उचित कदम नहीं था क्योंकि यह विधेयक कार्य सूची में षामिल नहीं था। इसको पेष करने के तरीके पर गौर करें तो सरकारी मंषा पर स्याह धब्बे नजर आते हैं।
17 जून 1948 को भारतीय संविधान के मुख्य षिल्पी डा. भीमराव अंबेडकर ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय के भूतपूर्व न्यायाधीष ए.के .दर की अध्यक्षता वाली समिति, जिसका गठन संविधान सभा के अध्यक्ष ने किया था, को प्रेरित अपने ज्ञापन में कहा था कि ‘भाषाई राज्यों का अंत कई राष्ट्रों में होगा, क्योंकि कई ऐसे समूह हैं, जिन्हें अपनी जाति, भाषा एवं साहित्य पर इतना ज्यादा गर्व है कि वे केंद्रीय विधायिका को एक संघ में बदल देंगे, कि वे षायद आसानी से केंद्रीय सरकार के लिए प्रषासन चलाना असंभव कर दें कि वे केंद्र व राज्यों के बीच आवष्यक प्रषासकीय संबंधों के लिए घातक बन जाएंगे, कि भाषाई राज्यों के उच्च न्यायालयों से आए मुकदमों की सुनवाई करने में उच्चतम न्यायालय अपने को अक्षम महसूस करने लगेगा या षायद उसे बंद ही करना पड़ेगा कि ये षायद एक ऐसी स्थिति पैदा कर दे जिसे कोई देषभक्त भारतीय सोच भी नहीं कर सकता क्योंकि उसका निहित अर्थभारत को तोड़ना होगा एवं उसका अंत दुव्र्यवस्था एवं गड़बड़ी में होगा।’
इस ज्ञापन के संदर्भ में 78वें संषोधन को देखा जाए तो स्थिति बेहद चिंताजनक लगती है। भाषाई राज्यों के खिलाफ अंबेउकर ने जोरदार विरोध दर्ज किया है। प्रधानमंत्री नेहरू पर भाषाई राज्यों की स्थापना का आरोप लगातार लगता आ रहा है। जबकि सत्यता यह है कि नेहरू स्वयं भाषाई राज्य के खिलाफ थे लेकिन आंध्र को सबसे पहले भाषा के आधार पर राज्य घोषित करने का कार्य भी नेहरू ने ही किया। इसके पीछे सच्चाई यह है कि आंध्र को भाषा के आधार पर राज्य बनाए जाने के पक्ष में पोट्टी श्रीरामुलु आमरण अनषन कर रहे थे, नेहरू को उनकी मृत्यु का समाचार मिला तो उन्होंने द्रवित होकर आंध्र को अलग राज्य बनाने की घोषणा कर दी। प्रकारांतर नेहरू ने अपने इस निर्णय पर अफसोस जाहिर किया। एक बड़ा बौद्धिक तबका जो इस समय सहमा है एक ओर उसके सामने अंबेडकर को जोरदार विरोध है दूसरी ओर नेहरू के भाषाई राज्य के निर्माण में हुई हिंसा की अविस्मृत स्मृतियां हैं क्योंकि हमारे यहां भारतीय भाषाओं का सवाल सिर्फ भाषा का सवाल नहीं है। यह भाषाओ में व्यक्त होने वाले सोच, संवेदन, अनुभव व कर्म की मुक्ति का सवाल उठता है। अंग्रेजी से देष का आत्मगौरव टूटा है। फिर भी अंग्रेजी के सामने भारतीय भाषा, साहित्य व गौरवपूर्ण इतिहास की अपमानजनक अवहेलना हुई है। यदि अंग्रेजी को ऐसा और इतनी ही सम्मान मिलता रहा तो हमारी स्थिति लैटिन अमरीका और अफ्रीका के उन कुछ अति पिछड़े देषों की तरह हो जाएगी जो अपनी भाषा और संस्कृति को खो चुके हैं परिणामतः दुनिया में उत्कृष्ट मानवीय सभ्यता का षंखनाद फूंकने वाले राष्ट्र के हृदय विदारक परिणति होगी।
आजादी के चार दषक हो जाने के उपरांत भी हमारा देष अंग्रेजी साम्राज्यवाद अवषेषांे की लाष ढोे रहा है। भारतीय भाषाओं का जाती एक छीनकर अंग्रेजी हमारी राष्ट्रीय स्वाधीनता, राष्ट्रीय एकता के सुफल को अखंड देष में फलने-फूलने में सबसे बड़ी बाधा है। ऐसी स्थिति में जब हमें अंग्रेजी से डरना चाहिए, जब हमें हमारी भारतीय भाषाओं को अंग्रेजी के खिलाफ जेहाद में मजबूती से षरीक होकर भारतीय संस्कृति एवं अस्मिता की रक्षा करना चाहिए। हमें भारतीय भाषा से भय व्याप्त होने का कोई मूल कारण स्पष्ट होता नहीं दिख रहा है। आज हमें भारतीय भाषाओं का विरोध उस तर्ज पर नहीं करना चाहिए जिस तर्ज पर भारतेंदु युग में अंग्रेजी का विरोध किया जाता था। यह कितना दुर्भाग्यपूर्ण है स्वाधीनता के 45 वर्षों बाद भी हम देष को भाषा से जोड़कर देखने में कोई प्रगति नहीं कर पाए हैं। जबकि देष, काल, समाज तीनों का बोध भाषा से ही है। अगर हम प्रांतों का बोध प्रांतो की पहचान, भाषा से कर लें तो भी कोई निराषाजनक स्थिति नहीं होगी। देष की पहचान हमें हिंदी से करने के लिए अवष होना पड़ेगा क्योंकि राष्ट्रविरोधी ताकतें भी हिंदी को देष से जोड़कर ही देखती हैं।
दरअसल भाषा का सवाल बोलने वालों को अस्मिता का सवाल होता है ओर अस्मिता की पहचान राष्ट्र के बिना संभव नहीं है। राष्ट्र की सीमाएं जितनी सिकुड़ेंगी उतनी ही उसकी प्रासंगिकता व षक्ति पर सवाल उठेंगे, उतनी ही संभावनाएं उसके उपनिवेष होने की उठेंगी और कुछ नहीं तो आर्थिक उपनिवेष बनने से उसे रोका नहीं जा सके गा। वैसे तो जनवरी 1987 में ही गोवा विस ने गोवा भाषा अधिनियम पारित करके मराठी, गुजराती के अतिरिक्त कोंकणी को संघ राज्य क्षेत्र की भाषा घोषित कर दिया था। जिसकी चरम परिणति संविधान के 78वें संषोधन के रूप में होना अवष्यंभावी था। हमें परेषान नहीं होना चाहिए। यद्यपि कि हमारा भाषाई इतिहास बहुत हिंसक हे। फिर भी 1967 में 21 संषोधन के बाद से सिंधी की आठवीं अनुसूची में षामिल होने के बाद का इतिहास याद करे। वैसे भी इस संषोधन के विरोध में एक भी मत नहीं पड़ा इससे हमारे राजनीतिज्ञों की संसद के प्रति मजबूत जवाबदेही बनती है क्योंकि हमेषा भाषा का दुरुपयोग तभी हुआ है जब वह राजनीतिज्ञों के कुचक्रों की ढाल के रूप में इस्तेमाल हुई है। तभी भाषा की संवेदना मरी है। उसमें हिंसा समायी है उसने भावना के तंतु तोड़े हैं। अब वह किसी के लिए षिखंडी का कार्य नहीं कर सके गी। इतना ही नहीं अनुसूची आठवीं को कुछ और भाषाओं के लिए तैयार रखना पड़ेगा। यथा राजस्थानी, जिसे आठ करोड़ लोग बोलते हैं। इसमें हिचकने की जरूरत नहंी है। हमारे बुद्धिजीवियों के सामने एक प्रष्न और गंभीर हो सकता है कि नेपाली भाषा को क्यों षामिल किया गया है। इससे भारतीय भाषाओं की संकल्पना टूटती है। भारतीय भाषाओं के मानदंड आहत होते हैं लेकिन अगर इसकी लिपि पर हमारा ध्यान दिया जाए तो वह देवनागरी है। लिपि के आधार पर नेपाली हिंदी की बहन कही जा सकती है। वैसे भी जो दुष्चिंतताएं हमारे बौद्धिक वर्ग के सामने भाषा की समस्या से संभावना में है, उनमें बहुलांष का समाधान हो सकता है। जबकि सभी भारतीय भाषाएं अपने लिए देवनागरी लिपि स्वीकार कर लें।
हारे यहां भारतीय भाषाओं से आपसी विरोध इतना गहरा नहीं है जितना तीन प्रतिषत अंग्रेजी जानने वाले अंग्रेजीदां लोग के नाते हिंदी को अंग्रेजी का विरोध झेलना पड़ता है। हिंदी वैसे भी हमारे हिंदुस्तान का बोध कराने के लिए पर्याप्त है। अंग्रेजी से लड़ने के लिए भारतीय भाषाओं को हमें यहां की माटी और अखंड भारत की मान्यताओं के तहत स्वीकारना और उत्साहित करना चाहिए। क्योंकि संस्कृति भी तो एक मूलतः विदेषी भाषा रही है जिसे आर्य बाहर से लेकर आए तथा सिंधु सभ्यता को रौंदकर यहां बस गए। लेकिन संस्कृत ने राष्ट्रीय स्वरूप ग्रहण कर लिया आसपास की भाषा से संपर्क बनाया। इस दृष्टिकोण के तहत भारतीय भाषाओं का सम्मान होना चाहिए। भाषाएं संवेदना की वाहिका होती हैं यह संवेदनाएं मानव-मानव को जोड़ने की होनी चाहिए। भारत को ‘राष्ट्र को अखंड स्वरूप देने की होनी चाहिए। क्योंकि राष्ट्र कोई कागजी नक्षा नहीं है। भौगोलिक सीमाएं तो उसकी महज औपचारिकता है। देष एक भावना है। भावना को तोड़ने का काम भाषा नहीं कर सकती हां भावना का छद्म आवरण डालकर पैषाचिक प्रवृत्तियां ऐसा करती हैं तो उन्हें माफ नहीं किया जाएगा क्योंकि संविधान में अभी अनंत संषोधन की संभावनाएं बरकरार हैं।
धीरे-धीरे जनसंख्या बढ़ी, भाषाओं को बोलने वाले लोग बढ़े तो आठवीं अनुसूची में बढ़ोत्तरी की मांग भी होने लगी। अभी हाल में नेपाली, मणिपुरी व कोंकणी भाषा को संविधान की आठवीं अनुसूची में षामिल किया गया। इन्हें लेकर इस अनुसूची में कुल 18 भाषाएं हो जाएंगी।
इन भाषाओं को षामिल करने में समाज का एक बौद्धिक तबका डरा और सहमा है कि जिस तरह नेहरू ने भाषा के आधार पर प्रांतों का बटवारा करके हिंदी को दोयम दर्जे का बना दिया और आज तक भाषाई विवाद जारी है। भाषाई दंगे अनवरत हो रहे हैं। उसी तर्ज पर फिर फिरकापरस्त ताकतें सर उठाने लगेंगी। वैसे संसद में यह 78वंा विधेयक जिस तरह से लाया गया वह एक उचित कदम नहीं था क्योंकि यह विधेयक कार्य सूची में षामिल नहीं था। इसको पेष करने के तरीके पर गौर करें तो सरकारी मंषा पर स्याह धब्बे नजर आते हैं।
17 जून 1948 को भारतीय संविधान के मुख्य षिल्पी डा. भीमराव अंबेडकर ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय के भूतपूर्व न्यायाधीष ए.के .दर की अध्यक्षता वाली समिति, जिसका गठन संविधान सभा के अध्यक्ष ने किया था, को प्रेरित अपने ज्ञापन में कहा था कि ‘भाषाई राज्यों का अंत कई राष्ट्रों में होगा, क्योंकि कई ऐसे समूह हैं, जिन्हें अपनी जाति, भाषा एवं साहित्य पर इतना ज्यादा गर्व है कि वे केंद्रीय विधायिका को एक संघ में बदल देंगे, कि वे षायद आसानी से केंद्रीय सरकार के लिए प्रषासन चलाना असंभव कर दें कि वे केंद्र व राज्यों के बीच आवष्यक प्रषासकीय संबंधों के लिए घातक बन जाएंगे, कि भाषाई राज्यों के उच्च न्यायालयों से आए मुकदमों की सुनवाई करने में उच्चतम न्यायालय अपने को अक्षम महसूस करने लगेगा या षायद उसे बंद ही करना पड़ेगा कि ये षायद एक ऐसी स्थिति पैदा कर दे जिसे कोई देषभक्त भारतीय सोच भी नहीं कर सकता क्योंकि उसका निहित अर्थभारत को तोड़ना होगा एवं उसका अंत दुव्र्यवस्था एवं गड़बड़ी में होगा।’
इस ज्ञापन के संदर्भ में 78वें संषोधन को देखा जाए तो स्थिति बेहद चिंताजनक लगती है। भाषाई राज्यों के खिलाफ अंबेउकर ने जोरदार विरोध दर्ज किया है। प्रधानमंत्री नेहरू पर भाषाई राज्यों की स्थापना का आरोप लगातार लगता आ रहा है। जबकि सत्यता यह है कि नेहरू स्वयं भाषाई राज्य के खिलाफ थे लेकिन आंध्र को सबसे पहले भाषा के आधार पर राज्य घोषित करने का कार्य भी नेहरू ने ही किया। इसके पीछे सच्चाई यह है कि आंध्र को भाषा के आधार पर राज्य बनाए जाने के पक्ष में पोट्टी श्रीरामुलु आमरण अनषन कर रहे थे, नेहरू को उनकी मृत्यु का समाचार मिला तो उन्होंने द्रवित होकर आंध्र को अलग राज्य बनाने की घोषणा कर दी। प्रकारांतर नेहरू ने अपने इस निर्णय पर अफसोस जाहिर किया। एक बड़ा बौद्धिक तबका जो इस समय सहमा है एक ओर उसके सामने अंबेडकर को जोरदार विरोध है दूसरी ओर नेहरू के भाषाई राज्य के निर्माण में हुई हिंसा की अविस्मृत स्मृतियां हैं क्योंकि हमारे यहां भारतीय भाषाओं का सवाल सिर्फ भाषा का सवाल नहीं है। यह भाषाओ में व्यक्त होने वाले सोच, संवेदन, अनुभव व कर्म की मुक्ति का सवाल उठता है। अंग्रेजी से देष का आत्मगौरव टूटा है। फिर भी अंग्रेजी के सामने भारतीय भाषा, साहित्य व गौरवपूर्ण इतिहास की अपमानजनक अवहेलना हुई है। यदि अंग्रेजी को ऐसा और इतनी ही सम्मान मिलता रहा तो हमारी स्थिति लैटिन अमरीका और अफ्रीका के उन कुछ अति पिछड़े देषों की तरह हो जाएगी जो अपनी भाषा और संस्कृति को खो चुके हैं परिणामतः दुनिया में उत्कृष्ट मानवीय सभ्यता का षंखनाद फूंकने वाले राष्ट्र के हृदय विदारक परिणति होगी।
आजादी के चार दषक हो जाने के उपरांत भी हमारा देष अंग्रेजी साम्राज्यवाद अवषेषांे की लाष ढोे रहा है। भारतीय भाषाओं का जाती एक छीनकर अंग्रेजी हमारी राष्ट्रीय स्वाधीनता, राष्ट्रीय एकता के सुफल को अखंड देष में फलने-फूलने में सबसे बड़ी बाधा है। ऐसी स्थिति में जब हमें अंग्रेजी से डरना चाहिए, जब हमें हमारी भारतीय भाषाओं को अंग्रेजी के खिलाफ जेहाद में मजबूती से षरीक होकर भारतीय संस्कृति एवं अस्मिता की रक्षा करना चाहिए। हमें भारतीय भाषा से भय व्याप्त होने का कोई मूल कारण स्पष्ट होता नहीं दिख रहा है। आज हमें भारतीय भाषाओं का विरोध उस तर्ज पर नहीं करना चाहिए जिस तर्ज पर भारतेंदु युग में अंग्रेजी का विरोध किया जाता था। यह कितना दुर्भाग्यपूर्ण है स्वाधीनता के 45 वर्षों बाद भी हम देष को भाषा से जोड़कर देखने में कोई प्रगति नहीं कर पाए हैं। जबकि देष, काल, समाज तीनों का बोध भाषा से ही है। अगर हम प्रांतों का बोध प्रांतो की पहचान, भाषा से कर लें तो भी कोई निराषाजनक स्थिति नहीं होगी। देष की पहचान हमें हिंदी से करने के लिए अवष होना पड़ेगा क्योंकि राष्ट्रविरोधी ताकतें भी हिंदी को देष से जोड़कर ही देखती हैं।
दरअसल भाषा का सवाल बोलने वालों को अस्मिता का सवाल होता है ओर अस्मिता की पहचान राष्ट्र के बिना संभव नहीं है। राष्ट्र की सीमाएं जितनी सिकुड़ेंगी उतनी ही उसकी प्रासंगिकता व षक्ति पर सवाल उठेंगे, उतनी ही संभावनाएं उसके उपनिवेष होने की उठेंगी और कुछ नहीं तो आर्थिक उपनिवेष बनने से उसे रोका नहीं जा सके गा। वैसे तो जनवरी 1987 में ही गोवा विस ने गोवा भाषा अधिनियम पारित करके मराठी, गुजराती के अतिरिक्त कोंकणी को संघ राज्य क्षेत्र की भाषा घोषित कर दिया था। जिसकी चरम परिणति संविधान के 78वें संषोधन के रूप में होना अवष्यंभावी था। हमें परेषान नहीं होना चाहिए। यद्यपि कि हमारा भाषाई इतिहास बहुत हिंसक हे। फिर भी 1967 में 21 संषोधन के बाद से सिंधी की आठवीं अनुसूची में षामिल होने के बाद का इतिहास याद करे। वैसे भी इस संषोधन के विरोध में एक भी मत नहीं पड़ा इससे हमारे राजनीतिज्ञों की संसद के प्रति मजबूत जवाबदेही बनती है क्योंकि हमेषा भाषा का दुरुपयोग तभी हुआ है जब वह राजनीतिज्ञों के कुचक्रों की ढाल के रूप में इस्तेमाल हुई है। तभी भाषा की संवेदना मरी है। उसमें हिंसा समायी है उसने भावना के तंतु तोड़े हैं। अब वह किसी के लिए षिखंडी का कार्य नहीं कर सके गी। इतना ही नहीं अनुसूची आठवीं को कुछ और भाषाओं के लिए तैयार रखना पड़ेगा। यथा राजस्थानी, जिसे आठ करोड़ लोग बोलते हैं। इसमें हिचकने की जरूरत नहंी है। हमारे बुद्धिजीवियों के सामने एक प्रष्न और गंभीर हो सकता है कि नेपाली भाषा को क्यों षामिल किया गया है। इससे भारतीय भाषाओं की संकल्पना टूटती है। भारतीय भाषाओं के मानदंड आहत होते हैं लेकिन अगर इसकी लिपि पर हमारा ध्यान दिया जाए तो वह देवनागरी है। लिपि के आधार पर नेपाली हिंदी की बहन कही जा सकती है। वैसे भी जो दुष्चिंतताएं हमारे बौद्धिक वर्ग के सामने भाषा की समस्या से संभावना में है, उनमें बहुलांष का समाधान हो सकता है। जबकि सभी भारतीय भाषाएं अपने लिए देवनागरी लिपि स्वीकार कर लें।
हारे यहां भारतीय भाषाओं से आपसी विरोध इतना गहरा नहीं है जितना तीन प्रतिषत अंग्रेजी जानने वाले अंग्रेजीदां लोग के नाते हिंदी को अंग्रेजी का विरोध झेलना पड़ता है। हिंदी वैसे भी हमारे हिंदुस्तान का बोध कराने के लिए पर्याप्त है। अंग्रेजी से लड़ने के लिए भारतीय भाषाओं को हमें यहां की माटी और अखंड भारत की मान्यताओं के तहत स्वीकारना और उत्साहित करना चाहिए। क्योंकि संस्कृति भी तो एक मूलतः विदेषी भाषा रही है जिसे आर्य बाहर से लेकर आए तथा सिंधु सभ्यता को रौंदकर यहां बस गए। लेकिन संस्कृत ने राष्ट्रीय स्वरूप ग्रहण कर लिया आसपास की भाषा से संपर्क बनाया। इस दृष्टिकोण के तहत भारतीय भाषाओं का सम्मान होना चाहिए। भाषाएं संवेदना की वाहिका होती हैं यह संवेदनाएं मानव-मानव को जोड़ने की होनी चाहिए। भारत को ‘राष्ट्र को अखंड स्वरूप देने की होनी चाहिए। क्योंकि राष्ट्र कोई कागजी नक्षा नहीं है। भौगोलिक सीमाएं तो उसकी महज औपचारिकता है। देष एक भावना है। भावना को तोड़ने का काम भाषा नहीं कर सकती हां भावना का छद्म आवरण डालकर पैषाचिक प्रवृत्तियां ऐसा करती हैं तो उन्हें माफ नहीं किया जाएगा क्योंकि संविधान में अभी अनंत संषोधन की संभावनाएं बरकरार हैं।