सिंहासन हिल उठे राजवंशों ने भृकुटी तानी थी,
बूढ़े भारत में आई फिर से नयी जवानी थी,
गुमी हुई आज़ादी की कीमत सबने पहचानी थी,
दूर फिरंगी को करने की सबने मन में ठानी थी।
चमक उठी सन सत्तावन में, वह तलवार पुरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
लखनऊ: भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की महानायिका और देश के इतिहास में गौरवशाली मोड़ लाने वाली झांसी की महारानी लक्ष्मीबाई की पुण्यतिथि पर उनकी वीरता व साहसिक स्मृतियों को सादर नमन।सामाजिक रूढ़ियों और सती प्रथा के उस दौर में रानी लक्ष्मीबाई एक ऐसे प्रतीक के रूप में उभरीं, जिन्होंने बताया कि महिला यदि मन में ठान ले तो वह क्या नहीं कर सकती।देश के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की अद्भुत वीरांगना लक्ष्मीबाई उस नारी शक्ति की प्रतीक हैं, जो कोमलांगी होने के साथ-साथ वज्र की तरह कठोर भी थीं। सती प्रथा के उस दौर में रानी लक्ष्मीबाई एक ऐसे प्रतीक के रूप में उभरीं, जिन्होंने बताया कि महिला यदि मन में ठान ले तो वह क्या नहीं कर सकती।
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झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई का जन्म 19 नवम्बर 1835 को वाराणसी के ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनके बचपन का नाम मणिकर्णिका था और उन्हें मनु नाम से पुकारा जाता था। उनके पिता मोरोपंत बिठूर बाजीराव पेशवा की सेवा में थे।अल्पआयु में ही मां के प्यार से वंचित मनु जब चार वर्ष की थीं कि उनकी माता का देहांत हो गया। इस पर पिता मनु को अपने साथ बिठूर ले आए। विठूर की आबोहवा ने मनु को फौलाद बना दिया । यहीं से मनु के एक वीरांगना में बदलने की शुरुआत हुई। यहाँ रहते हुए उन्होंने शस्त्र विद्या और घुड़सवारी सीखी। अपना अधिकांश समय वे बाजीराव पेशवा के दत्तक पुत्र नाना साहब के साथ व्यतीत करती थीं।
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महज बारह वर्ष की आयु में वे तलवार चलाने और घुड़सवारी में इतनी पारंगत हो गईं कि अनुभवी योद्धाओं को भी पराजित करने लगीं। तेरह वर्ष की आयु में 1848 में झाँसी के शासक महाराजा गंगाधर राव से मनु का विवाह हुआ।महाराजा गंगाधर राव पहले से विवाहित थे, लेकिन पहली पत्नी से उनके कोई संतान नहीं थी। लक्ष्मीबाई ने पुत्र को जन्म भी दिया, लेकिन वह तीन महीने का होकर चल बसा। पुत्र मोह में महाराजा गंभीर रूप से ऐसे बीमार हुए कि फिर कभी उठ नहीं सके।इस घटनाक्रम के बाद लक्ष्मीबाई ने पाँच वर्ष के एक बालक दामोदर राव को गोद लिया।
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उस समय देश अग्रेंज कुशासन का दंश झेल रहा था। डलहौजी की नीतियों को धूल चटाते हुए महारानी लक्ष्मीबाई ने उससे लोहा लिया। तत्कालीन अंग्रेज गवर्नर जनरल लॉर्ड डलहौजी रियासतों की अपनी हड़प नीति के लिए कुख्यात था। उसकी कुदृष्टि झाँसी पर भी थी। डलहौजी को जब गंगाधर राव की मृत्यु का समाचार मिला तो उसने लक्ष्मीबाई के दत्तक पुत्र को झाँसी का वारिस मानने से इनकार करते हुए 1854 में झाँसी को ब्रिटिश सरकार का हिस्सा घोषित कर दिया।अंग्रेजों ने रानी लक्ष्मीबाई को राज्य कार्य से विमुक्त कर पाँच हजार रुपए प्रतिमाह की पेंशन देना शुरू कर दिया। रानी लक्ष्मीबाई ने अंग्रेज हुकूमत से पत्राचार के जरिये अपना राज्य वापस लेने का प्रयास किया, लेकिन इससे काम नहीं बना।
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इससे नाराज रानी लक्ष्मीबाई ने झाँसी को पुनः प्राप्त करने के लिए विद्रोह का रास्ता अपनाया। चार जून 1856 को अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह हुआ और लक्ष्मीबाई ने झाँसी का किला जीत लिया। झाँसी के सिंहासन पर रानी लक्ष्मीबाई बैठीं जरूर, लेकिन यहीं से मुश्किलों की शुरुआत भी हुई।ओरछा के राजा के दीवान नत्थे खान ने झाँसी पर आक्रमण कर दिया, लेकिन उसे शिकस्त मिली। हार के बाद वह अंग्रेजों की शरण में जा पहुँचा। उसने अंग्रेज जनरल ह्यूरोज को रानी लक्ष्मीबाई के विरुद्ध भड़काते और उन्हें अंग्रेजों के खिलाफ होने वाले विद्रोह का संचालक बताते हुए झाँसी पर आक्रमण करने के लिए उकसाया।
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अंग्रेजों के पास लम्बी दूरी तक मार करने वाली तोपें तथा विशाल सेना थी, जबकि रानी लक्ष्मीबाई के पास गुलाम गौस खाँ और खुदाबख्श जैसे जाँबाज योद्धा थे। एक विश्वासघाती की मदद से अंग्रेजों ने झाँसी किले में प्रवेश कर लिया। इस पर रानी लक्ष्मीबाई अपने पुत्र को अपनी पीठ पर बाँधकर घोड़े पर सवार हो दोनों हाथों से बिजली की तरह तलवार चलाती हुईं अंग्रेजी सेना को चीरते हुए कालपी की ओर चल पड़ीं।झाँसी और कालपी के मध्य कौंच नामक स्थान पर अंग्रेज तथा राव साहब की सेनाओं में युद्ध हुआ, जिसमें राव साहब की सेना को मुँह की खाना पड़ी। इस बीच रानी लक्ष्मीबाई कालपी के किले में अंग्रेज सेना से घिर गईं।
जैसे-तैसे वे ग्वालियर की ओर निकलीं, वहाँ आकर उन्होंने ग्वालियर महाराजा तथा बांदा के नवाब से सहयोग माँगा, लेकिन दोनों ने मदद देने से इनकार कर दिया।जनरल ह्यूरोज लगातार रानी लक्ष्मीबाई का पीछा कर रहा था और अवसर की प्रतीक्षा में था। उसने ग्वालियर के पूर्वी प्रवेश द्वार की ओर से आक्रमण किया। जनरल ह्यूरोज के पास विशाल सेना थी, जबकि रानी लक्ष्मीबाई के पास उनके वफादार मुट्ठीभर सैनिक थे। फिर भी रानी लक्ष्मीबाई और उनके योद्धाओं ने अंग्रेजों से जमकर लोहा लिया।
युद्ध के तीसरे दिन रानी लक्ष्मीबाई की सेना के पैर उखड़ने लगे। इतिहासकारों के अनुसार 17 जून 1857 की शाम रानी लक्ष्मीबाई चारों तरफ से अंग्रेजी फौज से घिर गईं, लेकिन मैदान में वे मानों बिजली की तरह कौंध रही थीं। एक अद्भुत वीरांगना घोड़े की रास मुँह में दबाए और दोनों हाथों में तलवार लिए अंग्रेज सेना को गाजर-मूली की तरह काट रही थी।इसी दौरान अचानक एक अंग्रेज ने पीछे से उनके सिर पर वार किया। वार इतना जबरदस्त था कि रानी लक्ष्मीबाई की एक आँख बाहर निकल आई, लेकिन फिर भी यह मर्दानी पीछे मुड़ी और उस अंग्रेज को मौत के घाट उतार दिया। रानी ने अपना घोड़ा आगे बढ़ाया, लेकिन घोड़ा नाले के पास अड़ गया और वे आगे नहीं जा सकीं।
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उनके शरीर पर तीर और तलवारों की कई चोटें लगीं, जिनसे आहत होकर वे जमींन पर गिर पड़ीं। आजादी के लिए प्राणों का उत्सर्ग करने वाली वीरांगना लक्ष्मीबाई मरकर भी अमर हो गईं। महारानी, यह राष्ट्र आपका कृतज्ञ है। उनके लिए रची गई यह पंक्ति आज भी रोमांचित कर देती है-
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी..