क्या किसान विवश हैं और खेती विवशता? यह प्रश्न आने वाले दिनों में बहुत अहम होगा। फिलहाल पूरे देश में किसान उपहास के विषय से ज्यादा कुछ नहीं। बदले सामाजिक परिवेश में किसानों की हैसियत बेहद दयनीय हुई है, वहीं सरकारी उपेक्षा के चलते स्वयं को खेती से विरक्त करना चिंतनीय है।
जहां खेती का घटता रकबा भी बड़ा सवाल है, वहीं बढ़ती लागत और घटते दाम से बदहाल किसान हैरान, परेशान है और स्थिति कुछ यूं है कि खुद को खतरे में देखकर आत्महत्या कर रहा है!
किसान कहीं राजनीति का शिकार हैं तो कहीं सरकारी उपेक्षा के चलते आत्महत्या जैसे घातक फैसलों को मजबूर। यक्षप्रश्न यह कि दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी आबादी वाला देश, खेती से मुंह मोड़ेगा तो भारत का पेट भरेगा कौन? हमें नहीं भूलना चाहिए कि यह वही देश है जहां 'उत्तम खेती मध्यम बान, निषिद चाकरी भीख निदान' का मुहावरा घर-घर बोला जाता था और किसानों की बानगी ही कुछ अलग थी।
समय के साथ सब कुछ बदल गया। जहां नई पीढ़ी खेती के बजाय शहरों को पलायन कर मजदूरी श्रेयस्कर मानती है तो जमीन के मोह में गांव में पड़ा असहाय किसान कभी अनावृष्टि तो कभी अतिवृष्टि का दंश झेलता है तो कभी भरपूर फसल के बावजूद उसका उचित दाम न मिलने और पुराना कर्ज न चुका पाने से घबराकर मौत का रास्ता चुनता है। भारतीय किसान की यही बड़ी विडंबना है।
किसानों के नाम पर सियासी रोटी और प्रायोजित आयोजनों से जख्मों पर मरहम के बजाय नमक लगने से आहत असल किसान बेहद असहाय दिख रहा है। आखिर अन्नदाताओं के साथ सरकारें भेदभाव क्यों करती हैं? नौकरशाहों और कर्मचारियों को मंहगाई भत्ता देकर सरकारें उनके चेहरे पर शिकन तक नहीं आने देती। लेकिन किसान कर्ज और ब्याज माफी के लिए सड़क पर परसा भोजन खाने, स्वयं के मल-मूत्र भक्षण की धमकी, तपते आसमान के नीचे खुले बदन आंदोलन, पानी में गले तक डूबकर जल सत्याग्रह जैसे कठिन फैसलों तले जीने को मजबूर हैं।
मध्यप्रदेश का हालिया मंदसौर का उदाहरण इनकी दशा और दिशा को समझने के लिए काफी है। राजनीति का कमाल देखिए, गोलियों से मारे गए किसानों के परिवारों को बिना शुद्धि और तेरहवीं हुए मुख्यमंत्री के चंद घंटों का उपवास तुड़वाने भोपाल जाने को विवश होना पड़ता है। यानी मृतकों के परिवार, मुसीबतों के बाद भी हुक्मरानों के हाथों की कठपुतली बनने को मजबूर होते हैं।
क्या किसान झुनझुना बन गया है? राजनीति का अस्त्र बन गया है? या फिर केवल वो औजार रह गया है जो खेत में हल भी चलाए, भरपूर फसल उगाए और उसे बेचने, सहेजने और सही दाम पाने के लिए सीने पर गोलियां भी खाए? देश का पेट भरे और खुद भूखा मारा जाए? किसानों के नाम पर जो हो रहा है, वह बेहद गंभीर है, शोचनीय है।
राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़ों के अनुसार, किसानों की आत्महत्या मामलों में 42 प्रतिशत बढ़ोतरी के साथ सबसे ज्यादा 4291 मामले महाराष्ट्र में हुए। उसके बाद कर्नाटक में 1569, तेलंगाना में 1400, मध्यप्रदेश में 1290, छत्तीसगढ़ 954, आंध्र प्रदेश में 916 तथा तमिलनाडु में 606 मामले सामने आए।
30 दिसंबर, 2016 की रिपोर्ट के अनुसार 2015 में 12602 किसानों और खेतिहर मजदूरों ने आत्महत्या की, जिनमें 8007 किसान तथा 4595 खेतिहर मजदूर थे। जबकि 2014 में आत्महत्या करने वाले किसानों की संख्या 5650 तथा खेतिहर मजदूर 6710 थे। इसमें चौंकाने वाला तथ्य यह रहा कि किसानों और खेतिहर मजदूरों की आत्महत्या का कारण कर्ज, कंगाली, और खेती से जुड़ी दिक्कतें रहीं तथा आत्महत्या करने वाले 73 प्रतिशत किसानों के पास दो एकड़ या उससे कम जमीन थी। यानी छोटा और असली किसान बेहद टूटता जा रहा है।
किसानों को लेकर संवेदनाओं को जगाना होगा, तमाम व्यावसायिक और गैर सरकारी संगठनों का भी दायित्व है कि वे किसानों से जुड़ें, मिलकर एक कड़ी बनाएं तथा उन्हें भी व्यापार-व्यवसाय तथा समाज का हिस्सा समझें, तभी परस्पर दुख-तकलीफें साझा होंगी और बिखरते-टूटते किसानों को नया मंच और संबल मिलेगा।
हर समय सरकारी इमदाद को मोहताज किसान, विभिन्न संगठनों का साथ मिलने से मानसिक रूप से मजबूत होगा तथा न केवल अवसाद से बाहर निकलेगा, बल्कि स्थानीय स्तर पर सुगठित व्यावसायिक मंच का हिस्सा बनने से, कृषि को व्यवसाय के नजरिया से भी देखेगा।
इसका फायदा जहां उसका जीवन बचाने में मिलेगा, वहीं व्यापारिक-वाणिज्यिक संस्था से जुड़े होने से कृषि उत्पादों के विक्रय और विपणन के लिए मित्रवत उचित माहौल हर समय तैयार रहेगा। ऐसा हुआ तो एक बार फिर खेती, धंधा बनकर लहलहा उठेगी। व्यापार भी फलीभूत होगा और छोटे, मझोले, बड़े हर वर्ग के किसानों के लिए यह निदान, वरदान साबित होगा।
ऋतुपर्ण दवे
लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं