अमेरिका में मोदी यह याद रखें
भारत और अमेरिका के आपसी संबंधों में घनिष्टता बढ़े, यह दोनों देशों के हित में है लेकिन हम यह न भूलें कि पिछले 74 साल में भारत किसी भी महाशक्ति का पिछलग्गू नहीं बना है। सोवियत संघ के साथ भारत के संबंध अत्यंत घनिष्ट रहे। लेकिन शीतयुद्ध के दौरान भारत अपनी तटस्थता के आसन पर टिका रहा। फिसला नहीं।
Modi Ka America Daura: प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (PM Narendra Modi) काफी दिनों बाद इस हफ्ते विदेश यात्रा करने वाले हैं। वे वाशिंगटन और न्यूयार्क में कई महत्वपूर्ण मुलाकातें करने वाले हैं। सबसे पहले तो वे अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन (Joe Biden) और उप-राष्ट्रपति कमला हैरिस (Kamala Harris) से मिलेंगे और फिर चौगुटे (क्वाड) के नेताओं से मिलेंगे यानी जापान के प्रधानमंत्री योशिहिदे सूगा और आस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री स्कॉट मोरिसन से भी मिलेंगे।
इस दौरान वे अमेरिका की कई बड़ी कंपनियों के मालिकों से भी भेंट करेंगे। संयुक्त राष्ट्र संघ में उनके भाषण के अलावा उनका सबसे महत्वपूर्ण काम होगा- चौगुटे के सम्मेलन में भाग लेना। यह चौगुटा बना है- अमेरिका, भारत, जापान और आस्ट्रेलिया को मिलाकर। इसका अघोषित लक्ष्य है- चीनी प्रभाव को एशिया में घटाना। लेकिन चीन ने इसका नया नामकरण कर दिया है। वह कहता है कि यह 'एशियाई नाटो' है। यूरोपीय नाटो बनाया गया था, सोवियत संघ का मुकाबला करने के लिए। यह बनाया गया है, चीन का मुकाबला करने के लिए।
भारत के लिए चिंता का विषय
लेकिन चीन मानता है कि यह समुद्र के झाग की तरह हवा में उड़ जाएगा। भारत के लिए चिंता का विषय यह है कि अभी पिछले हफ्ते ही अमेरिका ने एक नया संगठन खड़ा कर दिया है। उसका नाम है ऑकुस यानी आस्ट्रेलिया, युनाइटेड किंगडम और अमेरिका । इसमें भारत और जापान छूट गए हैं और ब्रिटेन जुड़ गया है। अमेरिका ने यह नए ढंग का गुट क्यों बनाया है, समझ में नहीं आता? हो सकता है कि यह अंग्रेजी भाषी एंग्लो-सेक्सन गुट है। यदि ऐसा है तो माना जा सकता है कि अब चौगुटे का महत्व घटेगा या उसका दर्जा दोयम हो जाएगा। इस नए गुट में अमेरिका अब आस्ट्रेलिया को कई परमाणु-पनडुब्बियां देगा। क्या वह भारत को भी देगा ? परमाणु पनडुब्बियों का सौदा पहले आस्ट्रेलिया ने फ्रांस से किया हुआ था। वह रद्द हो गया। फ्रांस बौखलाया हुआ है।
यदि मोदी-बाइडन भेंट और चौगुटे की बैठक में अफगानिस्तान, प्रदूषण और कोविड जैसे ज्वलंत प्रश्नों पर भी वैसी ही घिसी-पिटी बातें होती हैं, जैसी कि सुरक्षा परिषद, शांघाई सहयोग संगठन और ब्रिक्स की बैठकों में हुई हैं तो भारत को क्या लाभ होना है ? भारत और अमेरिका के आपसी संबंधों में घनिष्टता बढ़े, यह दोनों देशों के हित में है लेकिन हम यह न भूलें कि पिछले 74 साल में भारत किसी भी महाशक्ति का पिछलग्गू नहीं बना है। सोवियत संघ के साथ भारत के संबंध अत्यंत घनिष्ट रहे। लेकिन शीतयुद्ध के दौरान भारत अपनी तटस्थता के आसन पर टिका रहा। फिसला नहीं।
अब भी वह अपनी गुट-निरपेक्षता या असंलग्नता को अक्षुण्ण बनाए रखना चाहता है। वह रूस, चीन, फ्रांस या अफगानिस्तान से अपने रिश्ते अमेरिका के मन मुताबिक क्यों बनाए? मोदी को अपनी इस अमेरिका-यात्रा के दौरान भारतीय विदेश नीति के इस मूल मंत्र को याद रखना है।
(लेखक भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष हैं)