बहुजन समाज पार्टी की नेता Mayawati और समाजवादी पार्टी के नेता akhilesh यादव की प्रेस कांफ्रेंस शुरू हो चुकी है। कुछ ही देर में गठबंधन का एलान हो जाएगा। लेकिन 1993 जैसे हालातों की लाख दुहाई देने के बावजूद इस गठबंधन द्वारा भाजपा को सत्ता में आने से रोक पाना संभव दिखाई नहीं दे रहा है। मोदी से भयभीत जोड़ी क्या कर पाएगी ये वक्त बताएगा।
यह गठबंधन 2019 के लोकसभा चुनाव को देखते हुए किया जा रहा है। दोनो ही दल अपनी खुद की जमीन खो चुके हैं। पिछले लोकसभा चुनाव में हाशिये पर सिमट चुके हैं।
दोनो ही क्षत्रपों के समक्ष अपना वजूद बरकरार रखने की चुनौती है। इसी के चलते गठबंधन के लिए मजबूर हुए हैं।
दोनो ही क्षत्रपों द्वारा कांग्रेस को बहुत छोटा मानना एक बड़ी चुनावी भूल कही जा सकती है। क्योंकि दोनो ही क्षत्रप कांग्रेस के उभार को नजरअंदाज कर रहे हैं जो कि निश्चय ही इनके लिए खतरे की घंटी साबित होगी। कांग्रेस के लिए दो सीटें छोड़ना क्या उचित है ये समझने की जरूरत है।
लाख टके का सवाल यह है कि क्या ये गठबंधन चमत्कार कर पाएगा। जबकि न तो 93 जैसी BJP है, न मुलायम-कांशीराम जैसा करिश्मा दोनो नेताओं के साथ है।
गौरतलब है कि 1993 में मुलायम और कांशीराम के गठबंधन में भी बसपा को कोई खास फायदा नहीं हुआ था सपा फायदे में रही थी। कांग्रेस ने मुलायम को मुख्यमंत्री बनवाया था लेकिन घाटे में भाजपा भी नहीं रही थी। इसलिए गठबंधन ने भाजपा को मात दी थी। यह बात कहना गलत होगा।
वहीं 25 साल के बाद अखिलेश और मायावती के लिए भाजपा के तूफान को रोक पाना चुनौती नहीं असंभव को संभव बनाने जैसा है।
और फिर स्टेट गेस्ट हाउस कांड के काले अध्याय पर क्या ये गठबंधन मिट्टी डाल पाएगा। क्या मायावती भरोसा कर पाएंगी। नई इबारत लिखी जा रही है। नरेंद्र मोदी को 2019 में मात देने लिए। घोषणा से पहले तक माना यही जा रहा है कि सपा 38 और बसपा 38 सीट पर चुनाव लड़ेंगी। दो सीटें सहयोगियों के लिए छोडी गई हैं।
ये गठबंधन क्यों सफल नहीं होगा। इसके पक्ष में तर्क यह है कि उस समय मंडल की लहर में मुलायम कांशीराम सवार हुए थे लेकिन आज सवर्ण आरक्षण की लहर में इस गठबंधन का भविष्य क्या होगा।
तब राम मंदिर आंदोलन के चलते मुस्लिम मतदाता एकजुट हुए थे। आज मुस्लिम मतदाताओं के इनके साथ आने के पक्ष में सिर्फ तीन तलाक बिल कहा जा सकता है। कांशीराम उस समय दलितों के मसीहा बनकर उभरे थे। आज मोदी दलित वोट बैंक में सेंध लगा चुके हैं। अनुसूचित जाति जनजाति संशोधन विधेयक के जरिये उन्हें काफी हद तक मोदी भाजपा से जोड़ चुके हैं।
क्या दलितो और यादवों के बीच की खाई ये गठबंधन भर पाएगा। 1995 में सपा बसपा गठबंधन टूटा था। दलित बेशक बहनजी के इशारे पर चले, हालांकि ये संभव नहीं है। लेकिन क्या यादव दलित प्रतिनिधियों को वोट कर पाएगा।
मोटे तौर पर यह कहा जा सकता है कि सपा बसपा का ये गठबंधन कोई बड़ा चमत्कार नहीं कर सकता है। क्यों कि दोनो ही दलों का आधे से ज्यादा वोट बैंक बीजेपी के पास जा चुका है।