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वर्षगांठ पर विशेष : भाजपा के लिए क्यों इतना अहम है बंगाल का चुनाव

वैसे तो देश के पांच राज्यों- तमिलनाडु, पुडुचेरी, असम, केरल व पश्चिम बंगाल में चुनाव हो रहे हैं, लेकिन लोगों

Yogesh Mishra
Written By Yogesh MishraPublished By Vidushi Mishra
Published on: 5 April 2021 1:39 PM IST
वर्षगांठ पर विशेष : भाजपा के लिए क्यों इतना अहम है बंगाल का चुनाव
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फोटो-सोशल मीडिया

नई दिल्ली। वैसे तो देश के पांच राज्यों- तमिलनाडु, पुडुचेरी, असम, केरल व पश्चिम बंगाल में चुनाव हो रहे हैं, लेकिन लोगों से पूछें या मीडिया की रपटों को उलटें पलटें तो लगता है कि देश के केवल एक राज्य पश्चिम बंगाल में ही चुनाव हैं। बाकी चुनावों की आहट व गरमाहट उस राज्य के दायरे से बाहर नहीं निकल पा रही है।

अपनी स्थापना के 40 साल पूरे कर रही भारतीय जनता पार्टी के लिए

ऐसा क्या है कि पश्चिम बंगाल चुनाव इतना महत्वपूर्ण हो गया है? यह उत्तर प्रदेश जैसा महत्वपूर्ण राज्य भी नहीं है, जहां से गुजरे बिना प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंचना संभव न हो। इस चुनाव के नतीजों से केंद्र की सरकार की सेहत पर कोई असर भी नहीं पड़ने वाला है। पश्चिम बंगाल भाजपा के शक्ति प्रदेशों में भी नहीं है। पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी के जीतने का मक़सद भी कांग्रेस की पराजय है।

उस कांग्रेस की जिससे भाजपा व उसके नेता देश को मुक्त कराना चाहते हैं। इस राज्य में भाजपा की कभी सरकार भी नहीं रही है। यहां भाजपा के पास विधानसभा में कुल तीन ही विधायक हैं। 294 सदस्यों की संख्या वाली विधानसभा में सरकार बनाने के लिए आधे से एक अधिक विधायक चाहिए। यहां भाजपा के पास हर विधानसभा में उतारने लायक़ चेहरे नहीं है। उसे ममता के लोगों के चेहरे रंगने व बदलने पड़े हैं।


यहां भाजपा के पास कोई मुख्यमंत्री का चेहरा तक नहीं मिला। सौरव गांगुली को चेहरा बनाने की कोशिश आकार नहीं ले सकी। फिर उस मिथुन चक्रवर्ती को झाड़ पोंछकर खड़ा करना पड़ा जो न जाने कब से रिटायरिंग रूम में सुस्ता रहे थे। आसपास के लोगों को गये जमाने के क़िस्से सुनाकर ख़लील मियां के फ़ाख्ता उड़ाने के हसीन दिनों को बता रहे थे। फिर भी सरकार बनाने को रोज ब रोज़ बढ़ रहा भाजपा नेताओं का दमखम देखते ही बनता है।

भाजपा की मूल पार्टी रही भारतीय जनसंघ के विचार पुरुष श्यामा प्रसाद मुखर्जी ज़रूर इसी पश्चिम बंगाल से आते हैं। तोमार नाम, आमार नाम, नंदीग्राम, खेला होबे,चंडी पाठ,हिंदू, ब्राह्मण,चोट,चोट की साज़िश,जय श्रीराम बनाम जय श्रीकृष्ण, दुर्गा काली बनाम जय श्रीराम,कलमा फिर गोत्र, ममता का इमोशनल कार्ड सब चल रहा है इस चुनाव में। ममता अपनी जनसभाओं में यह बात कहना नहीं भूलतीं कि मैं बेहद दर्द में हूं, लेकिन आपका दर्द मुझसे बड़ा है।

जिस तरह भाजपा के नेताओं ने पूरी पार्टी व समूची सरकार की इज़्ज़त फंसा रखी है, उससे यह अंदाज लगाना किसी के लिए मुश्किल नहीं रह जाता है कि आज का चुनाव सिर्फ़ बंगाल ही नहीं,देश की राजनीति की दशा व दिशा तय करेगा। ममता ने इस बात का संकेत विपक्ष को लिखे अपने पत्र में दिया भी है।

ममता को ही समर्थन देने की घोषणा की


तभी तो पश्चिम बंगाल की सियासी जंग में ममता को देश के विभिन्न राज्यों में असर रखने वाले नेताओं का पूरा समर्थन मिला है। इनमें अखिलेश यादव, तेजस्वी यादव, हेमंत सोरेन, उद्धव ठाकरे और शरद पवार शामिल हैं। मजे की बात यह है कि महाराष्ट्र में शिवसेना कांग्रेस और एनसीपी के साथ मिलकर सरकार चला रही है मगर पश्चिम बंगाल में उसने कांग्रेस की जगह ममता को समर्थन देने की घोषणा की है।

इसी तरह बिहार में राजद का कांग्रेस के साथ सियासी गठबंधन है मगर राजद बंगाल में कांग्रेस को छोड़कर ममता के साथ खड़ा है। झारखंड में हेमंत सोरेन भी कांग्रेस के साथ मिलकर सरकार चला रहे हैं मगर यहां उन्होंने भी कांग्रेस को छोड़कर ममता को ही समर्थन देने की घोषणा की है।

पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनाव में इस बार सियासी स्थितियां पूरी तरह बदली हुई हैं। 2016 के विधानसभा चुनाव में महज तीन सीटें जीतने वाली भाजपा इस बार मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को सत्ता से बेदखल करने में जुटी है। भाजपा ने ममता की तगड़ी घेरेबंदी कर रखी है। बंगाल में सियासी बदलाव लाने के लिए पूरी ताकत झोंक दी है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह और भाजपा अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा की अगुवाई में पार्टी ने विभिन्न राज्यों से जुड़े पार्टी नेताओं की फौज भी चुनाव में उतार दी है। ममता की चौतरफा घेरेबंदी साफ़ दिख रही है। अब ऐसे में देखने वाली बात यह होगी कि ममता इस चक्रव्यूह को तोड़ने में कहां तक कामयाब हो पाती हैं?


सवाल यह है कि आख़िर पश्चिम बंगाल के नतीजे का ऊंट किस-किस करवट बैठ सकता है। पहला, ममता बनर्जी की सरकार बन सकती है। दूसरा, ममता बनर्जी की सरकार जा सकती है। तीसरा, भाजपा की सरकार बन सकती है। चौथा, मिलीजुली सरकार बन सकती है। चौथे विकल्प से हम अपनी बात शुरू करें तो इस विकल्प का सीधा मतलब यह है कि गंठबंधन की सरकार में भाजपा की सरकार नहीं बनती। ममता बनर्जी की ही सरकार बनती है। भाजपा की सरकार नहीं बनती इसका सीधा मतलब है कि दूसरे व तीसरे विकल्प की संभावनाओं पर विचार ही नहीं किया जाना चाहिए।

पश्चिम बंगाल में 2019 के लोकसभा चुनाव के दौरान मतदाताओं का रुझान तृणमूल कांग्रेस और भाजपा के प्रत्याशियों के पक्ष में दिखाई दिया था। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता की लहर पर सवार भाजपा को इस चुनाव में मतदाताओं ने बढ़-चढ़कर समर्थन दिया। उसे कुल 40.64 प्रतिशत मत मिले। उसे 18 सीटों पर जीत मिली। इसमें भी 16 सीट ऐसी हैं, जिन पर पहली बार भाजपा की किस्मत का ताला खुला।

स्थानीय निकाय चुनाव में तृणमूल का पलड़ा बहुत भारी

भाजपा के वोट बैंक में भी 22.25 प्रतिशत की वृद्धि हुई। यह बात दीगर है कि मोदी लहर के बावजूद तृणमूल के जनाधार में 3.48 प्रतिशत की वृद्धि भी हुई। कुल 43.69 प्रतिशत मतदाताओं ने टीएमसी को वोट किया। उसे 22 सीटें मिलीं।

भाजपा के उभार और कांग्रेस व माकपा के वोटबैंक में आई कमी की वजह से हालांकि 2014 के चुनाव के मुकाबले उसे 12 सीटों का नुकसान हुआ। 2019 के चुनाव में इंडियन नेशनल कांग्रेस को 4.09 प्रतिशत और सीपीएम को 16.72 प्रतिशत मतों का नुकसान हुआ। इससे दोनों ने अपने कब्जे की दो-दो सीटें गंवायीं। 2018 में बंगाल के स्थानीय निकाय चुनाव में तृणमूल का पलड़ा बहुत भारी रहा।

उसने भाजपा के 5779 ग्राम पंचायतों में जीत के मुकाबले 38,118 ग्राम पंचायतों में जीत हासिल की। लेफ्ट फ्रंट को 1713 और कांग्रेस को 1066 ग्राम पंचायतों में जीत मिली। जिला परिषद में टीएमसी को 793 सीटों को जीतने का मौका मिला। बीजेपी 22, लेफ्ट फ्रंट एक और कांग्रेस केवल 6 सीट जीतने में कामयाब हो सकी।

2016 के विधानसभा चुनाव में तृणमूल कांग्रेस को दो करोड़ 45 लाख 64523 मतदाताओं वोट दिया। यह कुल मतदाताओं का 44.91 प्रतिशत था। 293 विधानसभा सीटों पर चुनाव लडऩे वाली टीएमसी को 211 सीटों पर जीत मिली और उसके मत प्रतिशत में 6 प्रतिशत का इजाफा हुआ। इसका फायदा उसे पिछले विधानसभा चुनाव के मुकाबले 27 नई सीटों पर जीत के तौर पर मिला।

2016 के विधानसभा चुनाव में सबसे बड़ा नुकसान सीपीएम को हुआ। उसके 10.35 प्रतिशत मतदाता साथ छोड़कर चले गए। 148 सीटों पर चुनाव लडऩे के बावजूद माकपा को केवल 26 सीटें मिलीं और 14 सीटों का नुकसान हुआ। कुल मतदाताओं की संख्या 1,0802058 रही। कांग्रेस को 67 लाख वोट व 12.25 प्रतिशत मतदाताओं का साथ मिला। 3.15 प्रतिशत नए मतदाताओं के जुड़ने का फायदा कांग्रेस को मिला। केवल 92 सीटों पर चुनाव लड़ने वाली कांग्रेस को 44 सीटों पर जीत मिली। पिछले चुनाव के मुकाबले उसे 2 सीटों पर फायदा हुआ।

भाजपा को 2016 के विधानसभा चुनाव में 55 लाख 55 हजार मतदाताओं ने वोट किया। कुल मत प्रतिशत 10.16 रहा। पिछले चुनाव में भी उसे लगभग दोगुने का फायदा हुआ। उसके नए मतदाता 5.56 प्रतिशत रहे हैं। 291 सीटों पर चुनाव लडऩे के बावजूद भारतीय जनता पार्टी को 2016 के चुनाव में केवल 3 सीटों पर जीत मिली। हालांकि ये तीनों सीट उसने पहली बार जीतीं।

टीएमसी को फायदा होता नहीं दिख रहा

भाजपा तीन से 170 पर पहुंचना चाहती है। इसके लिए उसने साम, दाम, दंड व भेद सभी हथियार अख़्तियार किये हैं। पार्टी ने सौरव गांगुली को टटोलने, ममता के भरोसेमंद लोगों को तोड़ने, रथयात्राएं निकालने, हिंदुत्व, तुष्टिकरण, बांटो व राज करो, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की दाढ़ी को आकार देने, नेताजी सुभाष चंद्र बोस की याद को एक बार फिर ताज़ा करने, धर्म,जाति और मिथुन चक्रवर्ती का सहारा लेने आदि सभी टोटके आज़माये है।

इसी के साथ ममता पर जय श्रीराम के नारे से नफरत करने के साथ ही हिंदू विरोधी छवि बनाने का काम भी कम नहीं हो रहा है। तभी तो ममता बनर्जी मंदिरों की परिक्रमा करने और मंच पर चंडीपाठ करने पर मजबूर हुई हैं।

बंगाल में हिंदीभाषी लोगों की तादाद करीब 63 लाख यानी 6.96 फीसदी है। ममता की ओर से लगातार यूपी और बिहार के लोगों को घेरने के बाद भाजपा हिंदी भाषी मतों की गोलबंदी में जुटी हुई है। इस कारण सपा और राजद की ओर से ममता को समर्थन देने के एलान का भी टीएमसी को फायदा होता नहीं दिख रहा है।

वैसे लालकृष्ण आडवाणी व अटल बिहारी वाजपेयी की भाजपा तथा नरेंद्र मोदी व अमित शाह की भाजपा में जो बड़ा अंतर आया है,वह कहीं भी चुनाव के समय देखा जा सकता है। भाजपा मूलत: जुगलबंदी की सियासी पार्टी है। कभी श्यामा प्रसाद मुखर्जी व दीनदयाल उपाध्याय का समय था। लेकिन जुगलबंदी की सियासत का अंतर अब साफ़ पढ़ा जा सकता है।

गठबंधन ममता के लिए केवल वोटकटवा

मोदी व शाह की भाजपा हमेशा चुनावी मूड व मोड में रहती है। सरकार बनाने के लिए अपने सभी संसाधन झोंक देती है। पूरी प्रतिष्ठा दांव पर लगा देती है। इसे पश्चिम बंगाल के चुनाव में मुखरित रूप में देखा जा सकता है। यही वजह है कि चश्में को आड़ा तिरछा करके वह अपने लिए 170 सीटें देख पा रही है।


उसे इस चुनाव के बाद उत्तर प्रदेश में मिशन अरविंद शर्मा लांच करना है। उत्तर प्रदेश की नौकरशाही में बड़ा फेरबदल करना है। मुख्यमंत्री तो योगी आदित्य नाथ को बनाये रखते हुए सत्ता की सीट पर बिठाये रखना है मगर इसके साथ ही चुनाव के लिए स्टेयरिंग, ब्रेक व क्लच पर कुछ और हाथ भी रख छोड़ना है। पश्चिम बंगाल की शक्ति से यूपी फ़तह करना है। यही नहीं, मध्य प्रदेश में भी ज्योतिरादित्य को शिवराज सिंह चौहान की जगह लाना है। ताकि मध्य प्रदेश कांग्रेस में एक और टूट करा कर वहां कांग्रेस को अप्रासंगिक किया जा सके। शिवराज को दिल्ली ले जाना है।

पश्चिम बंगाल फ़तह के बाद से सारे फैसले लेना आसान होगा। इस फ़तह के बाद विपक्ष की एकजुटता को भी पलीता लग जाएगा मगर भाजपा को यह नहीं भूलना चाहिए कि यदि ममता को पराजय झेलनी पड़ गयी तो वह व्हीलचेयर पर ही दिल्ली कूच कर जाएंगी। ममता की छवि एक जुझारू महिला नेता की है जिन्होंने अपने दम पर वाममोर्चा के 34 साल के शासन का अंत किया।

आज जो परिदृश्य उभर रहा है, उसमें भाजपा को अधिकतम 128 व ममता को अधिकतम 161 सीटें हाथ लग सकती हैं। न्यूनतम सीटों की बात की जाए तो भाजपा के लिए तीन डिजिट में प्रवेश कर लेना बड़ी बात होगी। जबकि ममता इस लिहाज़ से भी 130 सीटों के आसपास रह जाती हैं। कांग्रेस व वामपंथ के गठबंधन के प्रति लोगों के मन में कोई उत्साहजनक रुचि नहीं दीखी। इनके लिए अपना पुराना प्रदर्शन दोहरा पाना भी संभव नहीं होगा। दोनों के गठबंधन को पश्चिम बंगाल के लोगों के लिए गले के नीचे उतार पाना मुश्किल हो रहा है। लोगों का मानना है कि यह गठबंधन ममता के लिए केवल वोटकटवा है।

ममता मुख्यमंत्री के तौर पर बहुतायत की बड़ी पसंद है। ममता की सरकार बनने के पीछे लोग भाजपा के पास मुख्यमंत्री का कोई चेहरा नहीं होने को मानते है। वैसे पोशीदा हक़ीक़त यह है कि भाजपा ने अनिरबन गांगुली का नाम निकालकर रख छोड़ा है। ये श्यामा प्रसाद मुखर्जी के रक्त संबंधी है। मुखर्जी के नाम पर गठित शोध संस्थान के निदेशक भी हैं। संघ के बहुत पुराने स्वयंसेवक हैं।

बीस से बाइस ऐसी सीटें हैं, जिनके बारे में अनुमान

मुश्किल है क्योंकि इन सीटों पर जीत हार का अंतर पांच सात सौ वोटों के बीच ही होगा। पश्चिम बंगाल के चुनाव के नतीजे मतुआ, राजवंशी महतो व बाबरी जातियों के वोटों पर निर्भर करेंगे। लोकसभा में इन चारों जातियों ने भाजपा के पक्षों बढ़-चढ़कर वोट किया था। इस बार के विधानसभा चुनाव में ममता इनमें तीस चालीस फ़ीसदी तक सेंध लगाने में कामयाब हो रही हैं।

भाजपा के वोट दो फ़ीसदी बढ़ सकते हैं जबकि ममता के वोटों में भी एक फ़ीसदी के आसपास इज़ाफ़ा दिख रहा है। यह बढ़ोतरी लोकसभा के वोटों के लिहाज से देखी जानी चाहिए । पश्चिम बंगाल में चुनाव भाजपा व तृणमूल के बीच ही सीधी लड़ाई में हैं। कांग्रेस वामपंथ गंठबंधन को अपनी ज़मीन गंवानी पड़ सकती है। पश्चिम बंगाल में नतीजों के दृश्य काफ़ी कुछ बिहार की तरह ही दिख रहे है।

( लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)



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Vidushi Mishra

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