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बाल दिवस विशेष: स्वस्थ बचपन पर ही टिकेगी विकसित राष्ट्र की बुनियाद
पूनम नेगी
बचपन! जिंदगी का सबसे खूबसूरत दौर। न किसी बात की चिंता, न ही कोई जिम्मेदारी। बस खाना-पीना, खेलना-कूदना और अपनी मस्ती में खोए रहना। एक ऐसी उम्र जहां जाति-धर्म, क्षेत्र-भाषा कोई मायने नहीं रखती। ऐसा क्या है इस "बचपन" में जो हमें इसकी ओर खींचता है? क्यूं इतना प्यारा लगता है बचपन? क्यों हम बार-बार अपने बालपन में डूबना चाहते हैं? नादान शरारतों से भरी यह भोली उम्र हमें इसलिए लुभाती है क्योंकि इस अवधि में हमें न कोई चिंता सताती है न जिम्मेदारी।
बड़े होकर हम क्या बनेंगे, हमारे पास कितनी धन-दौलत होगी, समाज में हम कितने लोकप्रिय होंगे, कितने लोग हमारा मान-सम्मान करेंगे। इन सारे झंझटों व आकांक्षाओं से भी मुक्त होते हैं। हमारे कंधों पर न कोई बोझ नहीं होता और न कोई दायित्व इसलिए हम खुद को हल्का-फुल्का महसूस करते हैं। हमारा दिलो-दिमाग शांत व खुश रहता है क्योंकि उसमें विचारों का, सपनों का तूफान नहीं चल रहा होता।
बचपन को परिभाषित करते हुए ओशो बड़ी खूबसूरत बात कहते हैं, " हर एक बच्चा वर्तमान में जीता है क्योंकि अतीत की भूलें और भविष्य की चिंताएं उसकी चेतना का हिस्सा नहीं होते। वह केवल और केवल वर्तमान में जीता है। उसकी दौड़ न आगे होती है और न पीछे। एक बच्चे में जो चहक और चमक होती है, जो जीवन की ललक होती है वह इस बात की है कि उसकी ऊर्जा न तो अतीत में व्यर्थ होती है और न भविष्य में। अभी और यहीं, इस क्षण में संग्रहित उसकी समूची ऊर्जा उसके पूरे व्यक्तित्व को रोशन कर देती है।" सचमुच ओशो के इन शब्दों से बेहतर बचपन की दूसरी परिभाषा हो ही नहीं सकती। इसीलिए तो बच्चों को भगवान का रूप माना जाता है। यही वजह है कि कवि अपनी लालसा इन शब्दों में अभिव्यक्त करता है-
"ये दौलत भी ले लो, ये शोहरत भी ले लो
भले छीन लो मुझसे मेरी जवानी
मगर मुझको लौटा दो बचपन का सावन
वे कागज की कश्ती वो बारिश का पानी।"
बाल दिवस की नींव 1925 में तब रखी गई जब बच्चों के कल्याण पर "विश्व कांफ्रेंस" में बाल दिवस मनाने का प्रस्ताव पारित हुआ और 1954 में दुनिया भर में इसे मान्यता मिली। तत्पश्चात संयुक्त राष्ट्र संघ ने 20 नवंबर को अन्तरराष्ट्रीय बाल दिवस मनाने की घोषणा की। तबसे दुनिया के अधिकतर देशों में 20 नवंबर को बाल दिवस मनाया जाता है। जबकि भारत में इसका आयोजन 14 नवंबर को किया जाता है।
इसके तिथि के पीछे वजह यह है कि देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू बच्चों से बेहद प्रेम करते थे। बच्चे प्यार से उन्हें चाचा कहते थे। इसलिए बाल दिवस मनाने के लिए उनका जन्मदिन चुना गया। पंडित नेहरू का कहना था, "बच्चे हमारे राष्ट्र की आत्मा हैं। खुशहाल व स्वस्थ बचपन में ही स्वस्थ व मजबूत राष्ट्र का वर्तमान करवट लेता है और इसी नन्ही पौध के रूप में हम अपने उज्ज्वल भविष्य के बीज बोकर राष्ट्र को पल्लवित-पुष्पित कर सकते हैं।"
बाल दिवस इस बात की याद दिलाता है कि हर बच्चा खास है और बच्चों के बेहतर भविष्य के लिए उनकी मूल जरूरतों और पढ़ाई लिखाई की जरूरतों का पूरा होना बेहद जरूरी है। यह दिन बच्चों के सर्वांगीण विकास और उसके संवैधानिक अधिकारों के संरक्षण की आवश्यकता पर बल देता है; मगर इस तस्वीर का दूसरा स्याह पहलू खासा चिंताजनक है।
तमाम तकनीकी प्रगति व वैश्विक प्रतिष्ठा के बावजूद देश में करोड़ों बच्चे दो जून की रोटी के लिए मोहताज हैं। शिक्षा के अधिकार से वंचित हैं। कुपोषण के शिकार हैं। मजदूरी करने को मजबूर हैं। बीते दिनों एक सर्वे में यह शर्मनाक आंकड़ा सामने आया कि भूख से मुक्ति के मामले में हम अपने पड़ोसी बांग्लादेश व नेपाल से भी पीछे हैं।
सवा अरब की आबादी वाला हमारा भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है तथा बच्चों की आबादी तकरीबन 45 करोड़। मगर; गरीबी, अशिक्षा, अपराध, उचित परिवरिश का अभाव व आवश्यक संसाधनों की कमी के कारण बड़ी संख्या में हमारी यह नन्ही पौध समय से पहले कुम्हला रही है।
दिमागी बुखार हर साल लील लेता है सैकड़ों जिंदगियां
दिमागी बुखार, निमोनिया, डायरिया या दूसरी बीमारियों की वजह से हर साल सैकड़ों बच्चे असमय मौत के मुंह में समा जाते हैं। बावजूद इसके, व्ययस्था दुरुस्त करने के सरकारी प्रयास नाकाफी हैं। इन्हीं रोगों व बदइंतजामियों के चलते इस साल भी सैकड़ों ग्रामीण बच्चों की जान चली गयी। कुछ जापानी बुखार से मरे तो कुछ श्वसन प्रणाली में आयी अवरोध के चलते इस दुनिया को अलविदा कह गये। अकेले गोरखपुर मेडिकल कॉलेज अस्पताल में 1250 बच्चों की जान जा चुकी है।
जमशेदपुर के एक अस्पताल में भी पिछले चार महीने में 164 बच्चे जिंदगी की जंग हार गये। चिकित्सा विशेषज्ञों के मुताबिक जिसे आम बोलचाल की भाषा में "दिमागी बुखार" कहा जाता है. सैकड़ों बच्चों की मौतों का जिम्मेदार माना जाता है। मानसून के दौरान पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखण्ड, ओडिशा और असम में दिमागी बुखार (जापानी इंसेफेलाइटिस) के चलते हर साल सैकडों बच्चों की मौतें हो जाती हैं।
देश के 100 से अधिक जिले इसके संक्रमण की चपेट में हैं। पूर्वी उत्तर प्रदेश में जापानी बुखार के चलते 1980 से लेकर अब तक बारह हजार से ज्यादा बच्चों की मौत हो चुकी है। हालांकि सिर्फ दिमागी बुखार ही नहीं बल्कि कई और कारणों के चलते नवजातों की सांसे टूट जाती हैं।
गोरखपुर के बीआरडी मेडिकल कॉलेज के डॉक्टर पीके सिंह का कहना है कि स्थिति गंभीर होने के बाद बच्चों को अस्पताल में लाया जाता है जिसके चलते उन्हें बचाना मुश्किल हो जाता है। वे कहते हैं कि एनआईसीयू में ज्यादा गंभीर हालत वाले नवजात, जिनमें समय से पहले जन्मे, कम वजन वाले, पीलिया, निमोनिया और संक्रामक बीमारियों से पीड़ित बच्चे इलाज के लिए आते हैं, जबकि इंसेफलाइटिस से पीड़ित बच्चे भी अस्पताल में गंभीर स्थिति में पहुचते हैं, जिन्हें बचाना कई बार असम्भव हो जाता है। एनएचआरसी यानी राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने इन मामलों में संज्ञान लेते हुए बच्चों और नवजातों की मौत पर भारी चिंता जतायी है।
कुपोषण है बड़ी चुनौती
कुपोषण के मामले में भारत दक्षिण एशिया का अग्रणी देश बन चुका है यूनिसेफ की रिपोर्ट के अनुसार भारत में पांच साल से कम उम्र के करीब 10 लाख बच्चे हर साल कुपोषण के कारण मर जाते हैं। राजस्थान के बारन और मध्य प्रदेश के बुरहानपुर में एक नई स्टडी से पता चला है कि देश के गरीब इलाकों में बच्चे ऐसी मौत का शिकार होते हैं जिसको रोका जा सकता है। इस रिपोर्ट में कहा गया है राजस्थान में अनुसूचित जनजाति के पांच साल से कम आयु के बच्चे गंभीर कुपोषण समस्या के शिकार हैं। इनमें 24 फीसदी बच्चों की ग्रोथ रुकी हुई है जबकि 44 फीसदी बच्चों को अंडरवेट पाया गया है।
इसके अलावा झारखंड, बिहार, उत्तर प्रदेश व तेलंगाना में भी बाल स्वास्थ्य की स्थिति बहुत खराब है। अध्ययन बताते हैं कि इन राज्यों में गर्भवती महिलाओं को गर्भावस्था के दौरान पूरी तरह से पोषाहार नहीं मिलने से उनके बच्चे अत्यधिक कमजोर पैदा होते हैं। ऐसे बच्चों को बचा पाना चुनौती भरा होता है। झारखण्ड में हुई बच्चों की मौत में पाया गया कि गर्भवती मां प्रसव पूर्व और बाद के स्वास्थ्य जांचों के प्रति लापरवाह रहती हैं। जिस कारण उन्हें सही खुराक नहीं मिल पाती, जन्म के बाद भी नवजात को जो टीका मिलना चाहिए, वह नहीं मिल पाता; परिणामस्वरूप नवजात की स्थिति बिगड़ जाती है।
नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे की रिपोर्ट के अनुसार झारखंड में पांच वर्ष तक के 47.8 फीसदी बच्चे कुपोषित हैं।बिहार और उत्तर प्रदेश की स्थिति भी अच्छी नहीं है. रिपोर्ट बताती है कि एक साल तक के बच्चों की मौत के मामले में उत्तर प्रदेश पूरे देश में पहले नंबर पर है। यहां बुनियादी स्वास्थ्य सुविधाओं व जागरूकता की भारी कमी है। आबादी के हिसाब से सुविधा युक्त अस्पतालों का भी अभाव है। बढती आबादी के हिसाब से स्वास्थ्य केन्द्रों में इजाफा नहीं हो रहा है।
एक सर्वेक्षण के मुताबिक उत्तर प्रदेश में जरूरत की तुलना में 40 फीसदी स्वास्थ्य केन्द्रों की कमी है। 8 हजार से अधिक डॉक्टरों के पद भरे नहीं जा सके हैं। प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों का नेटवर्क सही तरीके से खड़ा नहीं हो पाया है। ये केंद्र या तो सुविधा विहीन है या उसकी पहुंच दूर दराज के क्षेत्रों तक नहीं है। बड़े अस्पतालों में भी पर्याप्त सुविधाएं नहीं हैं। ज्यादातर अस्पतालों में वेंटीलेटर और इन्क्यूबेटर की पर्याप्त सुविधा नहीं है।
स्वास्थ्य जानकारों का मानना है कि ग्रामीण इलाकों में स्वास्थ्य जागरूकता का भी भारी अभाव है, जिसके चलते बीमारी गंभीर रूप ले लेती है। स्वास्थ्य सेवाएं गांवों तक नहीं पहुंची हैं और जानकारी के आभाव में ग्रामीण स्वास्थ्य केन्द्रों तक नहीं पहुंच पाते। ग्रामीण क्षेत्रों में स्वास्थ्य तंत्र का ढांचा मजबूत करके मौतों की संख्या में कमी लाई जा सकती है।
सभ्य समाज का कलंक "स्ट्रीट चिल्ड्रेन"
स्ट्रीट चिल्ड्रेन! एक ऐसा शब्द है जो शहर की सड़कों पर रहने वाले बच्चों के लिए प्रयोग होता है। ऐसे अनाथ बच्चे जो परिवार की देखभाल और संरक्षण से वंचित होते हैं। सड़कों पर रहने वाले ये बच्चे अमूमन 5 से 15-16 आयुवर्ग के हैं और अलग-अलग शहरों में उनकी संख्या भी अलग अलग है।
निर्जन भवनों, रेलवे व स्टेशनों, बस अड्डों, फुटपाथ, पार्कों अथवा सड़कों किनारे गुजर बसर करने वाले ये स्ट्रीट चिल्ड्रेन वाकई हमारे सभ्य समाज के चेहरे का ऐसा बदनुमा दाग हैं जिसके लिए हम सब भी कहीं न कहीं दोषी व जवाबदेह हैं। यूं इन बेसहारा बच्चों को परिभाषित करने के लिए काफी कुछ लिखा जा चुका है, पर बड़ी कठिनाई यह है कि इनका कोई ठीक-ठीक वर्ग नहीं है। इनमें से कुछ जहां थोड़े समय सड़कों पर बिताते हैं और बुरे चरित्र वाले वयस्कों के साथ सोते हैं। वहीं कुछ ऐसे हैं, जो सारा समय सड़कों पर ही बिताते हैं और उनकी देखभाल करने वाला कोई नहीं होता।
यूनिसेफ द्वारा दी गई इनकी परिभाषा व्यापक रूप से मान्य है, जिसके तहत स्ट्रीट चिल्ड्रेन को दो मुख्य वर्गों में बांटा गया है। पहला सड़कों पर रहने वाले बच्चे भीख मांगने से लेकर बिक्री करने जैसे कुछ आर्थिक क्रियाकलापों में लिप्त रहते हैं। इनमें से ज्यादातर शाम को घर जाकर अपनी आमदनी को अपने परिवारों में दे देते हैं।
परिवार की आर्थिक बदहाली के कारण ये बच्च सड़कों की जिंदगी चुनने को विवश होते हैं। भारत का इस मामले में भी बुरा हाल है। हमारे यहां स्ट्रीट चिल्ड्रेन ऐसे बच्चे होते हैं जिनका अपने परिवारों से ज्यादा वास्तविक घर सड़क होता है। यह ऐसी स्थिति है, जिसमें उन्हें कोई सुरक्षा, निगरानी या जिम्मेदार वयस्कों से कोई दिशा-निर्देश नहीं मिलती। मानवाधिकार संगठन के अनुमान के मुताबिक भारत में करीब 1 करोड़ 80 बच्चे सड़कों पर रहते या काम करते हैं। इनमें से ज्यादातर बच्चे अपराधों, यौनवृत्तियों, सामूहिक हिंसा तथा नशीले पदार्थों के शिकार हो जाते हैं।
बाल अपराधों का बढ़ता दायरा
एनसीआरबी (नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो) की रिपोर्ट इस बात की तस्दीक कर रही है कि देश में बच्चों के साथ होने वाले अपराधों की स्थिति खासी चिन्ताजनक है। बीते दिनों हुए एक सर्वेक्षण में यह खुलासा हुआ कि बच्चों साथ हुई कुल आपराधिक वारदातों में उत्तर प्रदेश भले ही तीसरे पायदान पर हो लेकिन संगीन वारदातें सबसे ज्यादा यूपी में ही हुई हैं।
सर्वे के मुताबिक बच्चों की हत्या और भ्रूण हत्या के मामले में हरियाणा व यूपी अव्वल है, जबकि बिहार के बाद बच्चों के सबसे ज्यादा अपहरण भी उत्तर प्रदेश में ही हुए हैं। बच्चों के साथ हुई आपराधिक वारदातों में मध्यप्रदेश सबसे ऊपर है, यहां देश में हुई कुल वारदातों में 18.4 फीसदी घटनाएं हुई हैं। दूसरे पायदान पर 12.2 प्रतिशत घटनाओं के साथ महाराष्ट्र है। यूपी इस मामले देश में तीसरे नंबर पर है, जहां 8.70 फीसद आपराधिक वारदातें बच्चों के साथ हुई हैं।
एनसीआरबी के मुताबिक बच्चों की हत्याओं के मामले में यूपी शीर्ष पर है। बीते दो सालों सूबे में 315 बच्चों की हत्याएं हुई। इनमें दस साल तक के बच्चों में 76 लड़के जबकि 62 लड़कियां थीं। 10 से 15 साल तक के 52 लड़कों व 30 लड़कियों की हत्याएं हुईं, जबकि 15 से 18 साल के 79 किशोर व 47 किशोरियों की हत्याएं हुईं। यूपी के बाद 211 हत्याओं के साथ महाराष्ट्र आैर 200 हत्याओं के साथ बिहार क्रमश: दूसरे व तीसरे स्थान पर रहा। इसी क्रम में 1359 बच्चों के अपहरण के साथ पहले पायदान पर रहे बिहार के बाद दूसरा नंबर उत्तर प्रदेश का रहा।
रिपोर्ट बताती है कि वर्ष 2014-16 के मध्य सूबे में 1225 अपहरण हुए, जिसमें दस साल तक की उम्र के 31 लड़के व 12 लड़कियां अगवा हुई। इनके अलावा 10 से 15 साल तक की उम्र के 59 लड़कों व 169 लड़कियों का अपहरण यूपी में हुआ जो सबसे ज्यादा है, साथ ही 15 से 18 साल की 48 किशोर व 906 किशोरियों के अपहरण के साथ भी यूपी अव्वल रहा। गौरतलब हो कि जहां एक ओर जरायमपेशा मासूमियत को कुचल रहा है वहीं सूबे में अपने ही बच्चों की जान के दुश्मन बनते दिख रहे हैं। गर्भपात कराने के सबसे ज्यादा 18-18 मामले भी यूपी, हरियाणा, राजस्थान व मध्यप्रदेश में ही सामने आए।
यूं तो बच्चों के प्रति किसी भी प्रकार के अपराध चिंता का विषय हैं किन्तु बच्चों के यौन शोषण संबंधी अपराधों का बढ़ना विशेष चिंता का विषय है। बच्चों का यौन शोषण केवल अपराध ही नहीं, उनके प्रति क्रूरता भी है। नेशनल क्राइम रिकार्ड्स ब्यूरो के द्वारा संकलित किये गए आंकड़ों से प्रकाश में आता है कि वर्ष 2013 की तुलना में वर्ष 2014 में बच्चों के प्रति विभिन्न प्रकार के अपराधों में लगभग 50 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज हुई।
वर्ष 2013 में जहां रिपोर्टेड अपराधों की संख्या 58224 रही थी वही 2014 में यह संख्या बढ़ कर 89423 हो गयी। संकलित आंकड़ों के अनुसार इनमें से यौन शोषण के मामलों की संख्या मामलों की कुल संख्या का लगभग 21.41 प्रतिशत दोनों वर्षों में रही। यौन अपराधों के बढ़ने की दर 2012 की अपेक्षा 2013 में लगभग 45 फीसद और 2013 की अपेक्षा 2014 में लगभग 55 फीसद रही। यह स्थिति तब है जब हम सभी जानते हैं कि अनेक कारणों से अपराधों के सभी मामले रिपोर्ट नहीं हो पाते; वास्तविक आंकड़े इनसे कहीं अधिक होंगे।
बाल मजदूरी की समस्या से हम अच्छी तरह वाकिफ हैं। कोई भी ऐसा बच्चा जिसकी उम्र 14 वर्ष से कम हो और वह आजीविका के लिए काम करे बाल मजदूर कहलाता है। गरीबी, लाचारी और माता-पिता की प्रताड़ना के चलते तमाम बच्चे इस दलदल में धंसते चले जाते हैं। आज दुनिया भर में 215 अरब बाल मजदूर हैं। इन बच्चों का समय स्कूल और दोस्तों के बीच नहीं बल्कि होटलों, घरों, उद्योगों में बर्तनों, झाड़ू-पोंछे और औजारों के बीच बीतता है।
आज भी बच्चे दो जून की रोटी के लिए ऐसे काम करने को मजबूर हैं। जो शायद उनकी उम्र से दोगुने और तीन गुने ज्यादा बड़े लोग करते हैं। बड़े शहरों के साथ-साथ आपको छोटे शहरों में भी हर गली नुक्कड़ पर हमें बड़ी आसानी कई राजू-मुन्नी-छोटू-चवन्नी मिल जाएंगे जो हालातों के चलते बाल मजदूरी की गिरफ्त में कैद हैं। बात सिर्फ बाल मजदूरी तक ही सीमित नहीं है, इन बच्चों को कई घिनौने कुकृत्यों का भी सामना करना पड़ता है। जिनका बच्चों के मासूम मन पर बड़ा गहरा प्रभाव पड़ता है। जिस उम्र में बच्चो के हाथ में किताबे होनी चाहिए उस उम्र में इन बच्चो को आर्थिक कमजोरी के चलते इन्हें काम करने पर मजबूर कर दिया जाता है जिसके चलते इनके जीवन में पढाई का कोई महत्व नही रह जाता।
आमतौर पर घर बच्चों के लिए सबसे सुरक्षित जगह मानी जाती है, मगर आज के दौर में कई बच्चों के लिए उनके घर ही "टार्चर हाउस" बन गये हैं और बच्चे परेशान होकर अपने ही घरों से भाग रहे हैं। आए दिन बच्चों के घरों से भागने के मामले प्रकाश में आ रहे हैं। गत 5 वर्षों की बात करें तो जिला भटिंडा में ऐसे 50 मामले रिपोर्ट हुए हैं। अधिकांश मामलों में बच्चों के घर से भागने का मुख्य कारण माता-पिता की अनदेखी है।
बच्चों को पर्याप्त समय न देना और उनके सामने आपस में झगड़ा बच्चों को घरों से दूर करने का सबसे बड़ा कारण है। बच्चों के घर से भागने का एक बड़ा कारण घरेलू हिंसा भी है। माता-पिता की लड़ाई, गाली-गलौच और झुंझलाहट का सबसे बुरा प्रभाव बच्चों पर ही पड़ता है। अवसादग्रस्त अभिभावक अपना गुस्सा बच्चों पर उतारने से भी नहीं हिचकिचाते और मारपीट करते हैं। ऐसे में बच्चे माता-पिता से डरते हुए घर से भाग जाते हैं।
माता-पिता की अनदेखी बच्चों को गलत संगत में डालने का भी काम करती है। मां-बाप अपने कार्यों में व्यस्त होकर बच्चों के लिए पर्याप्त समय नहीं निकाल पाते और बच्चे के उज्ज्वल भविष्य को ध्यान में रखकर खुद को ओवरटाइम की भट्ठी में झोंक देते हैं परन्तु इसका बुरा असर बच्चों पर पड़ता है। माता-पिता का साथ न मिलने के कारण बच्चे में नकारात्मकता घर कर जाती हैं और इससे आहत होकर वे दूसरों के साथ नजदीकियां बढ़ा लेते हैं। कई बार यही नजदीकियां उन्हें गलत संगत में डाल देती है और फिर शुरु होता है बात छुपाने, चोरी करने, नशा करने और घर से भागने का सिलसिला।
लक्ष्य से खासा दूर है सर्व शिक्षा अभियान
सरकार सर्व शिक्षा अभियान के तहत करोड़ों रुपये बच्चों को शिक्षित करने पर खर्च कर रही है ताकि उन्हें समाज की मुख्यधारा से जोड़ा जा सके लेकिन हकीकत इससे इतर है कि शिक्षा में भी भेदभाव हो रहा है। जो बच्चे निजी स्कूलों में पढ़ रहे हैं और जो बच्चे सरकारी स्कूलों में पढ़ रहे हैं दोनों में विशेष अंतर साफ साफ देखा जा सकता है।
एक एक्सीलेंट और दूसरा निल बटे सन्नाटा। ऐसा नहीं है कि सरकारी स्कूलों में पढ़नेवाले बच्चे तेज नहीं होते। होते हैं लेकिन निजी स्कूलों में शिक्षा ज्यादा अच्छी तरीके से दी जाती है और यही कारण है कि लोग अपने बच्चों को निजी स्कूलों में पढ़ाना चाहते हैं ताकि उनका भविष्य उज्जवल हो सके। सबसे बड़ी बात यह है कि बच्चों की शिक्षा को लेकर खासकर 8वीं तक के बच्चों का समाज भी ध्यान नहीं देता। हम आपसे ही पूछते हैं क्या आप कभी भी अपने आस-पास के स्कूलों की जानकारी ली है? क्या आपने कभी जानने की कोशिश की है कि स्कूल में पढ़ाई होती है या नहीं?
स्कूल में शिक्षक सही समय पर आते हैं कि नहीं? स्कूल में बच्चों को किस तरह से शिक्षा दी जा रही है? क्या कभी आप स्कूल में आयोजित होने वाले बाल सभा का हिस्सा बनें? शायद इन सबका जवाब आपके पास न ही होगा। आज सरकार ने आठवीं तक की शिक्षा को अनिवार्य और निशुल्क कर दिया है, लेकिन लोगों की गरीबी और बेबसी के आगे यह योजना भी निष्फल साबित होती दिखाई दे रही है।
तमाम बच्चों के अशिक्षित माता-पिता सिर्फ इस वजह से उन्हें स्कूल नहीं भेजते क्योंकि उनके स्कूल जाने से परिवार की आमदनी कम हो जाएगी। माना जा रहा है कि आज भारत में 60 मिलियन बच्चे बाल मजदूरी के शिकार हैं। आंकड़ों की यह भयावहता हमारे भविष्य का कलंक बन सकती है। भारत में बाल मजदूरों की इतनी अधिक संख्या होने का मुख्य कारण सिर्फ और सिर्फ गरीबी है। यहां एक तरफ तो ऐसे बच्चों का समूह है बड़े-बड़े मंहगे होटलों में 56 भोग का आनंद उठाता है और दूसरी तरफ ऐसे बच्चों का समूह है जो गरीब हैं, अनाथ हैं, जिन्हें पेटभर खाना भी नसीब नहीं होता। दूसरों की जूठनों के सहारे वे अपना जीवनयापन करते हैं।
इस तस्वीर कर दूसरा पहलू भी मनन करने योग्य है। ध्यान दीजिए कि जब यही बच्चे पेट व परिवार के लिए दो वक्त की रोटी कमाना चाहते हैं तब इन्हें बाल मजदूर का हवाला देकर कई जगह काम नहीं दिया जाता। आखिर ये बच्चे क्या करें, कहां जाएं ताकि इनकी समस्या का समाधान हो सके। सरकार ने बाल मजदूरी के खिलाफ कानून तो बना दिए। इसे एक अपराध भी घोषित कर दिया लेकिन क्या इन बच्चों की कभी गंभीरता से सुध ली? बाल मजदूरी को जड़ से खत्म करने के लिए जरूरी है गरीबी को खत्म करना।
इन बच्चों के लिए दो वक्त का खाना मुहैया कराना। इसके लिए सरकार को कुछ ठोस कदम उठाने होंगे। केवल एक दिन स्कूलो में मना लेने से बाल दिवस का उद्देश्य खत्म नही हो जाता, सिर्फ सरकार ही नहीं इसमें आम जनता की सहभागिता भी जरूरी है। हर एक व्यक्ति जो आर्थिक रूप से सक्षम हो, अगर ऐसे एक बच्चे की भी जिम्मेदारी लेने लगे तो परिदृश्य काफी कुछ बदल सकता है। जब बचपन स्वस्थ व सुशिक्षित बनेगा तभी हम एक विकसित राष्ट्र का सपना देख सकते है। देश के सुरक्षित भविष्य के लिए हमें व आपको यह जिम्मेदारी अब लेनी ही होगी। क्या आप लेंगे ऐसे किसी एक मासूम की की जिम्मेदारी?