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Bharat Me Garibi: अमीरी में फलती फूलती फकीरी
Bharat Me Garibi Kitni Hai: वर्ल्ड बैंक की एक रिपोर्ट से है जो बताती है कि भारत में सिर्फ 5 फीसदी लोग अत्यधिक गरीबी में हैं।
Bharat Me Garibi Kitni Hai
Bharat Me Garibi Kitni Hai: कुछ जानकारियां सामने आईं। हैरान करने वालीं हैं। एक सोशल मीडिया पोस्ट थी, दूसरी थी एक डेटा रिपोर्ट और तीसरी, एक भाषण। ये सब ही बहुत कुछ बयां करती हैं। सोचने को मजबूर करती हैं।
सोशल मीडिया पोस्ट किसी सॉफ्टवेयर इंजीनियर ने की। उसने लिखा कि हर महीने कट पिट कर करीब 1 लाख 20 हजार रुपये घर ले जाते हैं। फैमिली सिर्फ मियां बीवी की है। कार नहीं है,लक्जरी भी कोई नहीं। फिर भी फ्लैट नहीं खरीद पा रहे क्योंकि दो करोड़ से कीमतें शुरू होती हैं। खरीद लें तो क़िस्त में तनख्वाह चली जायेगी।
दूसरी जानकारी वर्ल्ड बैंक की एक रिपोर्ट से है जो बताती है कि भारत में सिर्फ 5 फीसदी लोग अत्यधिक गरीबी में हैं। अत्यधिक गरीबी के मायने हैं रोजाना 250 रुपये से कम आमदनी।
तीसरी जानकारी है नीति आयोग के सीईओ का भाषण जिसमें वो कहते हैं कि भारत विश्व की चौथी सबसे बड़ी आर्थिक ताकत है।
तस्वीर बढ़िया है ना? हमारे युवा लाखों की सैलरी पा रहे हैं। गरीबी का नामोनिशान मिटने वाला है। मुल्क आर्थिक सुपर पावर बनने की राह पर है। सब बम बम है।
हमें इन खबरों पर खुश होना चाहिए, जश्न मनाना चाहिए। लेकिन क्या करें, जश्न के लिए जेब खाली है। सरकार से जो 80 करोड़ परिवार मुफ्त राशन पाते हैं वो भी जश्न नहीं मना पा रहे। क्योंकि सिर्फ गेंहू चावल से जश्न मन नहीं पाता। जो गरीबी से ऊपर उठ चुके वो भी बेजार हैं क्योंकि जेब में पैसा नहीं। रोजाना 250 कमाने वाले की क्या बिसात? वर्ल्ड बैंक का क्या खूब डेटा है। रोज़ 250 रुपये से कम कमाने वाले ‘अत्यधिक गरीब’ हैं, मानो जो 251 रुपये कमा रहे हैं, वो तो गोवा में छुट्टियां मना रहे होंगे।
महीने की दो लाख सैलरी पाने वाले मुंबई के वो युवा प्रोफेशनल भी खुश नहीं हो पा रहे जो रोजाना 50 किलोमीटर के सफर में लोकल ट्रेन में धक्के खाने को मजबूर हैं।
समझ नहीं आता कि इन खबरों पर खुश होएं कि दुखी। उत्साही हों या हताश। दरअसल मसला यह है कि हम हैं क्या? यह ही अभी तक तय नहीं। चलिए कुछ ठंडे आंकड़े देख लेते हैं।
हम भले ही दुनिया की चौथी अर्थव्यवस्था बन गए हों लेकिन जब हमारी जेबों की बात आती है तो हम ठनठन गोपाल ही हैं। जेब में पैसे के मामले में हम दुनिया में 144वें नम्बर पर हैं। भारत की प्रति व्यक्ति जीडीपी कोई 2,900 डॉलर है। हमारी प्रति व्यक्ति आय लगभग 2.4 लाख रुपये है। यानी महीने के 20 हजार रुपये। जबकि देश के हर नागरिक पर ₹126,250 रुपये का कर्ज लदा है।इसमें ₹40,972 का विदेशी ऋण आता है।सरकारी HCES सर्वेक्षण बताता है कि ग्रामीण इलाक़े में मुफ्त वस्तुओं सहित (इम्यूटेशन): ₹4,247 मासिक और शहरी इलाक़े में मुफ्त वस्तुओं सहित: ₹7,078 मासिक है। हालाँकि सालना प्रति व्यक्ति खर्च देखा जाए तो यह आँकड़ा केवल साठ हज़ार रुपये वार्षिक ही बैठता है।
ऐसे में गरीबी से उबरने के जश्न मनाएं तो भी कैसे? यहां तो दिल ही डूबे हुए हैं। दुनिया में खुश लोगों की बात आती है तो भी हम निचले पायदानों पर सिसकते नजर आते हैं। वर्ल्ड हैप्पीनेस रिपोर्ट ने तो जैसे नमक पर मिर्च छिड़क रखी है। 147 देशों में हमारा118वां नंबर! पाकिस्तान और नेपाल तक हमसे खुशहाल हैं। ये तो वैसा ही है जैसे पड़ोसी की टूटी-फूटी साइकिल हमारी मारुति 800 को रेस में हरा दे! खुशी का तो जैसे भारत का वीज़ा कैंसिल हो गया है।
तो माजरा क्या है? हम आर्थिक सुपरपावर बन तो रहे हैं, लेकिन जेब में सुपरपावर की जगह सुपर-छेद है। युवा प्रोफेशनल्स लाखों कमा रहे हैं, लेकिन फ्लैट खरीदने के लिए या तो पिताजी का प्लॉट बेचना पड़ेगा या फिर ससुराल से दहेज में मांगना पड़ेगा। गरीबी कम हो रही है। लेकिन जो गरीबी से बाहर निकले, वो भी खुश नहीं, क्योंकि 251 रुपये रोज़ से ज़िंदगी का रंग फीका ही रहता है। और खुशी? उसका तो जैसे भारत का वीज़ा कैंसिल हो गया हो।
और हां, वो 80 करोड़ मुफ्त राशन वाले? हकीकत यह है कि राशन से पेट भरता है, लेकिन सपने अब भी भूखे हैं। और जो मिडिल क्लास है, वो तो ऐसे पिस रहा है जैसे चक्की में गेहूं। किसिम किसिम के टैक्स दो, किसिम किसिम के आडंबर, इन्हीं सब में जिंदगी ढक्कन हुई जा रही है।
अब सवाल यह है कि जश्न मनाएं या मातम? हंसें या रोएं? या फिर बस सोशल मीडिया पर एक मीम शेयर करके ‘ये भी ठीक है’ बोल दें? सच तो यह है कि हमारी कहानी सपनों का भारत और जेबों का सच के बीच लटकी पड़ी है। एक तरफ़ नीति आयोग के सपने, दूसरी तरफ़ लोकल ट्रेन की ठोकरें। एक तरफ़ वर्ल्ड बैंक के आंकड़े, दूसरी तरफ़ खाली थाली।
सपने हैं दुनिया की टॉप अर्थव्यवस्था बनने के। हम जापान को पीछे छोड़ भी चुके हैं। लेकिन जरा ये भी जान लीजिए कि उनकी जेबों का क्या हाल है।
जापान की प्रति व्यक्ति जीडीपी लगभग 46,231 डॉलर है। यानी भारत से कोई 15 गुना ज्यादा है। यह हाल तब है जब जापान जी7 में प्रति व्यक्ति जीडीपी के मामले में सबसे नीचे है। वहां लोग सुशी खाते हैं, हम यहां मोमो के लिए जेब टटोलते हैं। अब अमेरिका को देखिए। 2029 तक प्रति व्यक्ति जीडीपी 90,000 डॉलर के करीब पहुंचने की उम्मीद है। आज ही अमेरिका में प्रति व्यक्ति जीडीपी भारत से 28 गुना ज्यादा है।
इकोनॉमी के मामले में ब्रिटेन को भी पछाड़ने का हमारा दावा है लेकिन एक सच्चाई यह भी है कि उनकी जीडीपी 50,000 डॉलर के आसपास है यानी भारत से 17 गुना ज्यादा।वहां लोग ‘फिश एंड चिप्स’ खाते हैं, हम यहां सोचते हैं कि मछली खरीदें या चूल्हा जलाएं।
बहरहाल, हमारी प्रति व्यक्ति जीडीपी इन तीनों देशों के सामने चवन्नी जैसी लगती है, लेकिन उनकी जिंदगी भी सुपरपावर वाली नहीं। वहां किराया, टैक्स, और कॉफी की कीमतें ऐसी हैं कि जेब में छेद तो हर जगह है, बस उनके छेद ‘डॉलर’ में हैं, हमारे ‘रुपये’ में। और हम? हम तो जश्न मना रहे हैं। गेहूं-चावल का राशन है। लोकल ट्रेन की ठोकरें हैं। और सुपरपावर बनने का सपना है। बस एक दिक्कत है, जश्न के लिए जेब में खनक नहीं, सिर्फ ख्वाब हैं जिसमें अमीरी में फकीरी और फकीरी में अमीरी है।
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