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कुर्सी के खातिर ये बिहार में क्या हो रहा है? लालू नितीश को लेकर क्यों हो रहा बवाल
Bihar Politics: बिहार की राजनीति को करीब से देखने वाले जानते हैं कि यहाँ कुछ भी स्थायी नहीं है, सिवाय बदलाव के। यहाँ रिश्ते उतनी ही तेज़ी से बनते-बिगड़ते हैं, जितनी तेज़ी से मौसम करवट बदलता है। कभी एक-दूसरे के धुर विरोधी रहे नेता पलक झपकते ही एक मंच पर गले मिलते दिखते हैं, तो कभी बरसों की दोस्ती चंद पलों में दुश्मनी में बदल जाती है।
Bihar Politics: बिहार की सियासी गलियों में इन दिनों एक अजीब सी खामोशी छाई है, जो अक्सर किसी बड़े राजनीतिक बवंडर से पहले देखने को मिलती है। यह वह खामोशी नहीं है, जो शांति का प्रतीक हो, बल्कि वह खामोशी है, जो भीतर ही भीतर सुलग रही चिंगारियों की कहानी बयां करती है। राज्य की राजनीति का इतिहास अनिश्चितता और अप्रत्याशित मोड़ों से भरा पड़ा है, जहाँ कल के दुश्मन आज के साथी बन जाते हैं और आज के साथी कल के प्रतिस्पर्धी। इसी अस्थिरता के बीच, पिछले कुछ समय से जिस 'महागठबंधन' ने राज्य की सत्ता पर अपनी पकड़ मजबूत कर रखी है, उसके भीतर से अब ऐसी फुसफुसाहटें सुनाई देने लगी हैं, जो एक बार फिर बिहार को राजनीतिक अनिश्चितता के भँवर में धकेलने का संकेत दे रही हैं। यह फुसफुसाहटें किसी और के नहीं, बल्कि बिहार की राजनीति के दो सबसे बड़े ध्रुवों – मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और राष्ट्रीय जनता दल के सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव – के बीच बढ़ती कथित दूरियों को लेकर हैं। क्या वाकई यह 'दोस्ती' एक बार फिर कमजोर पड़ रही है? क्या एक बार फिर बिहार की राजनीति एक नए मोड़ पर खड़ी है, जहाँ पुरानी 'अदवातेन' फिर सिर उठाने लगी हैं?
बिहार की राजनीति का 'अंदाज अपना-अपना': एक अनवरत नाटक
बिहार की राजनीति को करीब से देखने वाले जानते हैं कि यहाँ कुछ भी स्थायी नहीं है, सिवाय बदलाव के। यहाँ रिश्ते उतनी ही तेज़ी से बनते-बिगड़ते हैं, जितनी तेज़ी से मौसम करवट बदलता है। कभी एक-दूसरे के धुर विरोधी रहे नेता पलक झपकते ही एक मंच पर गले मिलते दिखते हैं, तो कभी बरसों की दोस्ती चंद पलों में दुश्मनी में बदल जाती है। इसी उथल-पुथल भरे परिदृश्य में, पिछले साल जब नीतीश कुमार ने भाजपा का साथ छोड़ कर एक बार फिर लालू प्रसाद यादव के राष्ट्रीय जनता दल (राजद) के साथ हाथ मिलाया था, तो राजनीतिक पंडितों ने इसे एक 'ऐतिहासिक मिलन' बताया था। कईयों ने इसे बिहार की स्थिरता और विकास के लिए एक नई उम्मीद के तौर पर देखा था, जबकि कुछ ने इसे नीतीश कुमार की 'पलटू राम' की छवि की एक और कड़ी कहा था। लेकिन, इस बार दोस्ती की गहराई और एकजुटता के बड़े-बड़े दावे किए गए थे, जिनका मकसद केंद्र की भाजपा सरकार को चुनौती देना था।
जब 'शत्रु' बने 'मित्र': पुरानी दोस्ती की नई शुरुआत की कहानी
याद कीजिए, वो समय जब बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने भाजपा के साथ अपने गठबंधन को तोड़कर एक बार फिर राजद के साथ हाथ मिलाया था। यह बिहार की राजनीति में एक बड़ा भूचाल था। वर्षों पहले, जिस लालू प्रसाद यादव के जंगलराज के खिलाफ आवाज़ उठाकर नीतीश कुमार ने अपनी राजनीति चमकाई थी, आज वही उनके सबसे करीबी सहयोगी बन गए थे। इस 'महागठबंधन' के पुनर्जन्म ने न केवल बिहार की राजनीति में नया समीकरण स्थापित किया, बल्कि राष्ट्रीय स्तर पर भी भाजपा विरोधी मोर्चे को एक नई उम्मीद दी। नीतीश कुमार को संयोजक के तौर पर प्रोजेक्ट करने की कोशिशें हुईं, वहीं लालू प्रसाद यादव ने भी अपने पुराने मित्र के साथ मिलकर देश को नई दिशा देने की बात कही। तेजस्वी यादव को उपमुख्यमंत्री बनाकर सत्ता के हस्तांतरण की एक अप्रत्यक्ष राह भी दिखाई गई। सब कुछ बड़ा सुहाना लग रहा था, लग रहा था जैसे बिहार की राजनीति अब एक नए स्थिर दौर में प्रवेश कर चुकी है, जहाँ दो बड़े दिग्गजों का तालमेल राज्य के भाग्य को बदल देगा।
अंदरखाने में बढ़ती 'खामोशी' और 'बेचैनी': रिश्तों की कसौटी
लेकिन, अब यह सुहानापन दरकने लगा है। सियासी गलियारों से जो खबरें छनकर आ रही हैं, वे चिंताजनक हैं। बताया जा रहा है कि नीतीश कुमार और लालू प्रसाद यादव के बीच अंदरखाने में 'खटास' बढ़ने लगी है। यह खटास खुले तौर पर नहीं दिख रही, लेकिन राजनीतिक विश्लेषक इसे दोनों दलों के नेताओं के बयानों, हाव-भाव और सामूहिक बैठकों में दिख रही कमी से भांप रहे हैं। हाल के दिनों में ऐसे कई मौके आए हैं, जब नीतीश कुमार की ओर से ऐसी बयानबाजी हुई है, जिससे राजद असहज महसूस कर रहा है। वहीं, राजद के कुछ नेताओं की बढ़ती मुखरता और अपनी पार्टी के भविष्य को लेकर बेचैनी ने भी इस खटास को बढ़ाया है।
सूत्रों के हवाले से ऐसी खबरें हैं कि 2025 के विधानसभा चुनाव को लेकर दोनों दलों के बीच सीटों के तालमेल और मुख्यमंत्री पद के चेहरे पर अंदरूनी कलह जारी है। राजद जहां तेजस्वी यादव को मुख्यमंत्री के तौर पर प्रोजेक्ट करना चाहता है, वहीं जदयू में अभी भी नीतीश कुमार के राष्ट्रीय महत्वाकांक्षाओं और राज्य की सत्ता पर उनकी पकड़ को लेकर संशय बरकरार है। नीतीश कुमार की ओर से लगातार 'संकेत' दिए जा रहे हैं कि वह केंद्र की राजनीति में अधिक सक्रिय भूमिका निभाना चाहते हैं, लेकिन राजद इसे मुख्यमंत्री पद छोड़ने की उनकी अनिच्छा के रूप में देख रहा है। इसके अलावा, लालू परिवार पर केंद्रीय एजेंसियों की बढ़ती कार्रवाई ने भी इस गठबंधन में तनाव पैदा किया है। जदयू के नेताओं को लगता है कि इससे उनकी 'सुशासन' की छवि पर नकारात्मक असर पड़ रहा है, जबकि राजद इसे राजनीतिक प्रतिशोध बता रहा है। दोनों दलों के बीच समन्वय समिति की बैठकों में कमी और महत्वपूर्ण फैसलों में एक-दूसरे की भूमिका को लेकर भी असंतोष की खबरें हैं।
'पुरानी आदतें' या 'नई मजबूरियाँ'? भविष्य की ओर संकेत
नीतीश कुमार की राजनीतिक यात्रा को देखें तो 'पलटते' रहना उनकी पुरानी आदत रही है। भाजपा से राजद और फिर राजद से भाजपा, और फिर वापस राजद – यह चक्र कई बार चल चुका है। सवाल यह उठ रहा है कि क्या यह फिर से उसी पुरानी आदत की पुनरावृत्ति है या इसके पीछे कुछ नई और बड़ी मजबूरियाँ हैं? क्या नीतीश कुमार राष्ट्रीय राजनीति में अपनी भूमिका सुनिश्चित करने के लिए कोई नया रास्ता तलाश रहे हैं, जहाँ उन्हें 'मान्यता' मिल सके? या फिर बिहार में अपनी घटती जनाधार और राजद की बढ़ती ताकत से वे असहज महसूस कर रहे हैं?
दूसरी ओर, लालू प्रसाद यादव और तेजस्वी यादव भी अब राज्य की सत्ता में अपनी पकड़ मजबूत करने के लिए बेचैन हैं। उन्हें लगता है कि 2025 में राजद सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरेगी और ऐसे में मुख्यमंत्री का पद उनके खेमे में आना चाहिए। यह महत्वाकांक्षा स्वाभाविक है, लेकिन यही महत्वाकांक्षा अब 'दोस्ती' के बीच दीवार बन रही है। भाजपा, जो इस पूरे घटनाक्रम पर पैनी नज़र रख रही है, निश्चित तौर पर इस अवसर को भुनाने का प्रयास करेगी। अंदरूनी खटास अगर बढ़ती है, तो भाजपा के लिए बिहार में अपनी स्थिति मजबूत करने का यह एक स्वर्णिम अवसर होगा।
बिहार पर संभावित प्रभाव: अस्थिरता का नया दौर?
यदि नीतीश-लालू की यह दोस्ती वाकई कमजोर पड़ती है और अंदरूनी कलह सार्वजनिक होती है, तो इसका सबसे बड़ा खामियाजा बिहार की जनता को भुगतना पड़ेगा। राजनीतिक अस्थिरता का मतलब है, नीतियों का लड़खड़ाना, विकास परियोजनाओं का धीमा पड़ना और सुशासन के दावों का खोखला साबित होना। बिहार ने पिछले कुछ दशकों में राजनीतिक अस्थिरता का बहुत दर्द झेला है। बार-बार सरकारें बदलने से राज्य का विकास प्रभावित हुआ है। आगामी लोकसभा चुनाव और उसके बाद 2025 के विधानसभा चुनाव से पहले यह खटास, महागठबंधन के लिए बड़ी चुनौती बन सकती है। मतदाताओं के बीच भी एक संदेश जाएगा कि ये नेता सिर्फ अपनी कुर्सी और सत्ता के लिए गठबंधन करते हैं, न कि राज्य के विकास के लिए। ऐसे में, बिहार की जनता एक बार फिर राजनीतिक अनिश्चितता के दलदल में फंस सकती है। अब देखना यह होगा कि क्या नीतीश और लालू इस अंदरूनी कलह को सुलझा पाएंगे, या फिर बिहार की राजनीति एक बार फिर नए समीकरणों के साथ करवट बदलेगी। यह दोस्ती की कसौटी है, जिस पर बिहार का भविष्य टिका है।
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