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पाकिस्तान चुनाव: आतंकवाद की जमीन पर जम्हूरियत की फसल लहलहाने की उम्मीद
संजय तिवारी
पड़ोस में लोकतंत्र के पुख्ता होने की उम्मीद बढ़ी है। पड़ोस से ज्यादा तो अपनी पट्टीदारी बनती है। इसलिए दिलचस्पी और भी बढ़ जाती है। दुनिया पकिस्तान के आम चुनाव को बहुत बारीकी से देख रही है। आतंकवाद के लिए बदनाम हो चुकी पाकिस्तानी सरजमीं क्या सच में अब जम्हूरियत की फसल उगाने वाली है ? यह अलग बात है कि हाफिज साइद जैसे कुख्यात भी अपने कई रिश्तेदारों के साथ जम्हूरियत की इस जंग में बहुत बढ़ चढ़ कर हिस्सा ले रहे हैं। पाकिस्तान में लोकतंत्र को मजबूत करने के प्रयास तो पहले भी बहुत हुए हैं लेकिन बहुत सफलता नहीं मिल सकी थी। इस बार उम्मीद इसलिए भी है क्योकि पाकिस्तान के 70 साल के इतिहास में दूसरी बार यहां के नागरिक लोकतांत्रिक तरीके से सत्ता हस्तांतरण के तहत अपना नया प्रधानमंत्री चुनने के लिए आज मतदान कर रहे हैं।देश में आज नेशनल असेम्बली की 272 सीटों और चार प्रांतों पंजाब, सिंध, बलूचिस्तान और खैबर पख्तूनख्वा की प्रांतीय विधानसभाओं की कुल 577 सीटों के लिए मतदान हो रहा है।
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पाकिस्तान : मतदान शुरू , मतदान केंद्रों के बाहर कतार में खड़े वोटर
साथ ही आजाद होकर भी बहुत पीछे चला गया पाकिस्तान
यहाँ थोड़ी नजर इतिहास पर भी डालनी होगी। यह उल्लेख करने वाली बात है कि पाकिस्तान और भारत को आजादी साथ-साथ मिली थी। इन 71 सालों में भारत तो लोकतांत्रिक रूप से मजबूत होता गया लेकिन पाकिस्तान कई बार पटरी से उतरा और चढ़ा है। इसकी कई वजहें हैं। पाकिस्तान की राजनीति को करीब से देखने वाले पाकिस्तान की अशांति की वजह आजादी के आंदोलन के नेतृत्व करने वाले नेताओं का जल्दी से उठ जाना बताते हैं। इन नेताओं में कायद-ए-आजम मोहम्मद अली जिन्ना की मौत 1948 में हो गई जबकि प्रधानमंत्री लियाकत अली खान सैन्यशासन का शिकार हुए। इधर भारत में पंडित नेहरू जैसे नेता 1964 तक अपने देश का नेतृत्व करते रहे। जैसे घर में बड़े बुजुर्ग की लोग सुनते हैं वैसे ही देशवासी भी प्रथम पुरुष यानी आजादी के लिए संघर्ष करने वाले नेता की लोग सुनते हैं। भारत का सौभाग्य था कि प्रथम पंक्ति के सभी नेता यहाँ जनता से जुड़े रहे लेकिन पाकिस्तान इन सबसे अछूता रहा। दिग्गज नेताओं के जल्द दुनिया से चले जाने से कई अहम मुद्दों पर आम सहमति नहीं बन पाई और पाकिस्तान में असंतोष का माहौल बढ़ता गया। वह सेना हॉबी हो गयी। सत्ता की चाह ने सेना प्रमुखों को तानाशाह बना दिया जिन्होंने पाकिस्तान में अंशाति फैलाने में अहम भूमिका निभाई।
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पाकिस्तान में 1970 में हो सका था पहला आम चुनाव
भारत में पहला आम चुनाव आजादी मिलते ही हो गया और चुनी हुई सरकार ने सत्ता सम्हाल ली लेकिन पाकिस्तान में ऐसा नहीं हो पाया। भारत में 1950 में संविधान लागू हुआ जबकि पाकिस्तान में 1956 तक संविधान तक नहीं बन पाया।पाकिस्तान में चुनाव ही नहीं हुए। वह सेना प्रमुख तानाशाह बने और देश का शासन उनके हाथों में चला गया। इधर भारत में पहला आम 1951-52 में हुआ और विरोधी पार्टी न होने की वजह से पंडित जवाहर लाल नेहरू ही प्रधानमंत्री रहे जबकि सैन्य शासन झेल रहे पाकिस्तान में आजादी के 23 साल बाद 1970 में पहला आमचुनाव हुआ। उसके बाद अभी तक वहां 13 बार सरकारें बनी हैं। बार बार तख्तापलट का दंश झेल रहे पाकिस्तान में 18 लोग 22 बार प्रधानमंत्री बने जिसमें सबसे अधिकबार पीएम बनने का रिकॉर्ड नवाज शरीफ को जाता है। वह अभी तक पाकिस्तान के पांच बार प्रधानमंत्री बन चुके हैं।
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पाकिस्तान में नेशनल असेम्ब्ली की 272 सीटों पर 3,459 उम्मीदवार
इस बार पाकिस्तान की नेशनल असेम्बली और चार विधानसभा क्षेत्रों में मतदान के लिए करीब 10.6 करोड़ मतदाता पंजीकृत हैं।पाकिस्तान निर्वाचन आयोग के अनुसार, नेशनल असेम्बली की 272 सीटों पर 3,459 उम्मीदवार अपना राजनीतिक भाग्य आजमा रहे हैं जबकि पंजाब, सिंध, बलूचिस्तान और खैबर पख्तूनख्वा प्रांतों की 577 सीटों के लिए 8,396 उम्मीदवार मैदान में हैं। पाकिस्तान की नेशनल असेम्बली में कुल 342 सीटें हैं। इनमें से 272 सीटों पर प्रत्यक्ष निर्वाचन होता है जबकि 60 सीटें महिलाओं और 10 सीटें धार्मिक अल्पसंख्यकों के लिए आरक्षित हैं। इनका बाद में अप्रत्यक्ष तरीके से निर्वाचन होता है।हालांकि किसी भी पार्टी को सरकार बनाने के लिए 172 सीटों की जरूरत होगी।
भारत के यूपी की तरह ही बेहद अहम् है पाकिस्तान में पंजाब
यहाँ पंजाब प्रान्त की विशेष चर्चा इसलिए जरुरी हो जाती है क्योकि इसकी भूमिका ठीक वैसी ही है जैसी भारत में उतर प्रदेश की है। जिस तरह दिल्ली का रास्ता उतरप्रदेश से होकर जाता है उसी तरह इस्लामाबाद का रास्ता पंजाब से होकर जाता है। पाकिस्तान के लिए पंजाब बहुत ही अहम् है। बिना पंजाब फतह किये कोई इस्लामाबाद पहुंच ही नहीं सकता। पाकिस्तान की नेशनल असेंबली के लिहाज से सबसे अहम कुल 272 में से 141 सीटें यहीं हैं। यहां 2013 में नवाज शरीफ की पीएमएल-एन ने 118 सीटें जीतीं थी । वहीं, इमरान की पीटीआई को सिर्फ 8 सीटें मिलीं थीं । प्रांत की राजधानी लाहौर की सभी सीटों को हमेशा पीएमएल-एन का गढ़ माना जाता है। यहां की 14 सीटों पर नवाज और उनकी पार्टी के अन्य सदस्यों ने हमेशा जीत हासिल की है। हालांकि, ख्वाजा अहमद हसन पार्टी के इकलौते ऐसे प्रत्याशी हैं, जो 2013 में चुनाव हार गए थे। ऐसे में इमरान खान के लिए यहां की लाहौर-9 सीट से जीत हासिल करना काफी मुश्किल हो सकता है। अगर लाहौर में उनका दांव नहीं चला तो सरकार बनाना आसान नहीं होगा।
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पंजाब ही है इमरान की राह का रोड़ा
इस बार भी सबकी नजर पंजाब पर ही टिकी है। एक तरफ पाकिस्तान के चुनावी सर्वे इमरान खान को सबसे बड़ा खिलाड़ी यानी प्रधानमंत्री पद के लिए दौड़ में सबसे आगे बता रहे हैं तो दूसरी तरफ यह चिंता भी है कि पंजाब का झटका इमरान कैसे झेल सकेंगेक्योकि पिछली बार उनको यहाँ से केवल आठ सीटें ही मिलीं थीं और इस बार भी यहाँ नवाज की पार्टी का ही दबदबा बताया जा रहा है। यद्यपि नेशनल असेम्ब्ली यानी संसद में इमरान की पीटीआई सबसे बड़ी पार्टी बन सकती है। 2013 में उनकी पार्टी ने 28 सीटें जीती थीं, जिनमें से 17 सीटें खैबर पख्तूनख्वाह और 8 सीटें पंजाब से थीं। इमरान की दिक्कत यह है कि उनके समर्थक रसूख तबके से हैं। अगर वे वोट देने नहीं आए तो ममुश्किलें बढ़ सकती हैं। हालांकि इस बार युवा उनके साथ नजर आ रहा है। दूसरी तरफ नवाज की बीमारी का इमोशनल कार्ड भी जनता पर असर डाल सकता है। दोनों पार्टियों पीटीआई और पीएमएल-एन के कुछ नेता निर्दलीय चुनाव लड़ रहे हैं। लिहाजा, किसी भी दल को स्पष्ट बहुमत मिलने के आसार नहीं हैं।
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कुल 36 लाख अल्पसंख्यक मतदाताओं में से आधे हिन्दू
यह तो जग जाहिर है कि पकिस्तान में अल्पसंख्यकों की हालत बहुत खराब है। फिर भी मतदान में उनकी हिस्सेदारी काफी महत्त्व रखती है। क्षेत्रफल की दृष्टि से 7 लाख 96 हजार किलोमीटर में फैले पाकिस्तान में 96.28% आबादी मुस्लिम है। यहां 1.6% हिंदू आबादी है, जो कई सीटों पर जीत तय करती है। इसके अलावा यहां 1.59% ईसाई और 0.58% अन्य धर्मों के लोग रहते हैं। वोटरों में 36 लाख अल्पसंख्यक हैं। इनमें 17 लाख हिंदू वोटर हैं। सिंध के उमरकोट में 49% और थारपारकर में 46% वोटर अल्पसंख्यक समुदाय से हैं।