×

हिंदी दिवस पर विशेष : देश को है "हिंदी सेनानियों" की जरूरत !

देश को स्वतंत्र हुए 70 दशक हो गये हैं, परन्तु देश और इस देश की जनता का यह दुर्भाग्य है कि उसकी अभी तक कोई अपनी राष्ट्रभाषा नहीं है जिस पर वह गर्व कर सके।

tiwarishalini
Published on: 13 Sept 2017 4:44 PM IST
हिंदी दिवस पर विशेष : देश को है हिंदी सेनानियों की जरूरत !
X
हिंदी पखवारा विशेष: अब याद नहीं आते स्व. गंगा शरण सिंह

पूनम नेगी

देश को स्वतंत्र हुए 70 दशक हो गये हैं, परन्तु देश और इस देश की जनता का यह दुर्भाग्य है कि उसकी अभी तक कोई अपनी राष्ट्रभाषा नहीं है जिस पर वह गर्व कर सके। ऐसा तब है जबकि हिन्दी के सूत्र के सहारे कोई भी व्यक्ति देश के एक कोने से चलकर दूसरे कोने तक जा सहजता से आ जा सकता है। देश में फैली विभिन्न भाषाओं और संस्कृतियों के बीच यदि भारतीय जीवन की उदात्तता एवं एकात्मकता किसी एक भाषा में दिखाई देती है तो वह हिन्दी में ही है। देश में तकरीबन एक अरब लोग हिंदी लिखते, बोलते और समझते हैं तथा दुनियाभर में लगभग 60 करोड़ लोगों का हिंदी बोला जाना इस भाषा की वैश्विक लोकप्रियता का प्रमाण है।

राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी कहते थे कि हिंदी न जानने से गूंगा रहना ज्यादा बेहतर है। आजादी के बाद एक जनसभा को सम्बोधित करते हुए उन्होंने कहा था, "जैसे अंग्रेज अपनी मातृभाषा अंग्रेजी में बातचीत करते हैं और उसे अपने दैनिक जीवन और कार्यसंस्कृति में प्रयोग में लाते हैं, उसी तरह आप सब देशवासी भी हिन्दी को भारत की राष्ट्रभाषा बनाने का गौरव प्रदान करें। बापू ही नहीं, स्वतंत्रता-प्राप्ति से देश के अनेक संतों, सुधारकों, मनीषियों और राजनेताओं ने भी अपने विचारों का प्रसार-प्रचार हिन्दी के माध्यम से किया था। उत्तर भारत में कबीर, पंजाब में नानक, सिंध में सचल, कश्मीर में लल्लन, बंगाल में बाउल, असम में शंकरदेव सभी संतों ने इसी भाषा को अपनी भावधारा के प्रचार का साधन बनाया। स्वामी दयानंद सरस्वती, लोकमान्य तिलक, केशवचंद्र सेन, राजा राममोहन राय, नवीनचंद राय, जस्टिस शारदाचरण मित्र आदि अहिन्दी भाषी विद्वानों ने भी हिन्दी का व्यापक प्रचार-प्रसार किया।

राष्ट्रीय एकता की एक मजबूत कड़ी के रूप में हिन्दी की स्थापना के लिए सर्वप्रथम वाराणसी में 1893 में नागरी प्रचारिणी सभा की स्थापना हुई और 1910 में अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन की स्थापना प्रयाग में। सन् 1918 में कांग्रेस के इंदौर अधिवेशन में भी महात्मा गांधी ने हिन्दी को अपनाने का अनुरोध किया और उनकी प्रेरणा और मार्गदर्शन से उसी वर्ष दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा की नींव पड़ी। इसी तरह गुजरात में हिन्दी का प्रचार करने के लिए 1937 में राष्ट्रभाषा प्रचार समिति वर्धा की स्थापना हुई। स्वतंत्रता पूर्व हिन्दी हमारे स्वतंत्रता आंदोलन में राष्ट्रीयता का प्रतीक बनी। आज भारत में 17 ऐसी स्वैच्छिक संस्थाएं हैं जो हिन्दी में परीक्षाओं का संचालन करती हैं और इन परीक्षाओं को भारत सरकार से मान्यता प्राप्त है। ये संस्थाएं असम, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, केरल, गुजरात, महाराष्ट्र, तमिलनाडु, ओडिसा, बिहार और उत्तर प्रदेश में हिन्दी के प्रचार-प्रसार में कार्यरत हैं।

यह भी पढ़ें ... हिंदी दिवस पर विशेष: मुद्दे, मौत, मदारी, और हमारी राष्ट्रीय मीडिया

इसके अतिरिक्त इन संस्थाओं की शाखाओं द्वारा देश के अन्य प्रदेशों में जम्मू-कश्मीर, बंगाल, अरुणाचल, नगालैण्ड, मिजोरम, लक्षद्वीप समूह आदि में भी हिन्दी प्रचार-प्रसार का कार्य किया जा रहा है। इन शिक्षण-संस्थाओं के अतिरिक्त सैकड़ों ऐसी संस्थाएं हैं जो पुस्तकालय, साहित्य-सृजन आदि के द्वारा हिन्दी के प्रचार-प्रसार में महत्वपूर्ण कार्य कर रही हैं। इसी प्रकार उड़ीसा, असम तथा मेघालय में भी हिन्दी का व्यापक प्रचार तथा प्रसार दिखता है। विभाजन के उपरांत देश के विभिन्न अंचलों में फैले सिंधी भाई भी किसी से पीछे नहीं है। आज दक्षिण के कई राज्यों में हिन्दी का जो सफल लेखन, पठन और अध्यापन हो रहा है उसमें राष्ट्रपिता महात्मा गांधी द्वारा स्थापित "दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा" और "राष्ट्रभाषा प्रचार समिति वर्धा" जैसी अनेक संस्थाओं का अत्यधिक योगदान है।

बावजूद इसके, राष्ट्रभाषा हिंदी स्वदेश में तिरस्कृत है। पूरे देश की बात छोड़िए, राजधानी दिल्ली के विश्वविद्यालयों में सिर्फ अंग्रेजी भाषा में व्याख्यान और अंग्रेजी पुस्तकों का राज चल रहा है। तमिलनाडु, कर्नाटक, महाराष्ट्र आदि राज्यों में भी भाषा विवाद के स्वर मुखर हैं। राजभाषा को उसका सम्मान लौटाने के प्रयासों पर यह हमलेे पूरी तौर पर अंसवैधानिक हैं। भाषाई दादागिरी की धौंस झाड़ने वाले शायद यह भूल रहे हैं कि मुंबई के विकास की नींव में "हिंदी" का कितना योगदान है। यदि मुंबई में हिंदी फिल्में न बनती तो क्या आज मुंबई इतनी लोकप्रिय होती? आज हमारे देश के पाँवों में अंग्रेजी भाषा की बेड़ी जकड़ी हुई है। नौकरशाहों, पूँजीपतियों, पाश्चात्य उपभोक्तावादियों और तथाकथित बुद्धिजीवियों ने अपने स्वार्थ के लिए अँग्रेजी का चोला ओढ़ रखा है। देश का बड़ा अभिजात्य वर्ग राष्ट्र की मुख्यधारा से इसलिए कटा हुआ है क्योंकि वह अपने घर, गाँव, गलियों, चौबारों और अपने परिवेश की भाषा नहीं जानता।

यह सच है कि आज हमारे देशवासी भारतीय कहलाने और हिन्दी बोलने में गर्व महसूस करते हैं। अच्छी और शुद्ध हिन्दी का प्रयोग अच्छे पढ़े-लिखे और सम्मानित लोग भी करते हैं। हिन्दी हमारी मातृभाषा के साथ साथ पहली राजभाषा भी है। यह भारत में सबसे अधिक बोली समझी जाने वाली भाषा है। भाषा सदैव उच्चारण से आती है और आम भाषा में हिन्दी सवार्धिक प्रचलित है। यह गर्व की बात है कि आज हमारे देश में हर धर्म का व्यक्ति हिन्दी में बात करना जानता है। कुछ लोगों का मानना है कि जो भाषा रोजगार नहीं दे सकती, वह विलुप्त हो जाती है। यदि यह सही है तो अब तक तो संस्कृत और लैटिन का लोप हो गया होता। मगर ये भाषाएं अब भी प्राथमिक कक्षाओं से लेकर स्नातक, स्नातकोत्तर और पी.एच.डी. स्तर तक पढ़ी और पढाई जाती हैं।

आज जरूरत इस बात की है कि देश में हिन्दी पढ़ाने हेतु उच्च-स्तरीय कक्षाओं के लिए अच्छे पाठ्यक्रम विकसित किये जाएं। सृजनात्मक/रचनात्मक अध्यापन प्रणालियां विकसित करना, पठन-पाठन की नई पद्धतियां और पढ़ाने के नए वैज्ञानिक तरीके खोजना देश में हिन्दी के विकास के लिए जरूरी हैं।

गौरतलब हो कि संविधान के अनुच्छेद 120, 210 और 343 से अनुच्छेद 351 तक के अंतर्गत हिन्दी भाषा को लेकर संवैधानिक प्रावधान किए गये हैं। राजभाषा अधिनियम जारी कर हिन्दी के कार्यान्वयन की मॉनिटरिंग के लिए केंद्रीय हिन्दी समिति, हिन्दी सलाहकार समिति, संसदीय राजभाषा समिति,नगर राजभाषा कार्यान्वयन समिति, राजभाषा कार्यान्वयन समिति जैसी कई समितियां बनायी गयीं ताकि हिन्दी भाषा का उत्थान हो सके और पूरा देश भाषा रूपी एकता के सूत्र में बंध सके।

हालांकि राजनैतिक इच्छाशक्ति के अभाव के हिन्दी को वह सम्मान नहीं मिला जिसकी वह हकदार है। बावजूद इसके, देश में हिन्दी की जड़ें खासी मजबूत हैं। हिन्दी वह वटवृक्ष है, जिसे हम खाद-पानी न भी डालें, खर पतवार से घिरा रहने दें, तो भी गिर नहीं सकता। उसकी जड़ें जमी ही रहेंगी। समझना होगा कि हिंदी कोई निर्धनों की भाषा नहीं है। संस्कृत से बनी हिंदी की दो हजार धातुओं से करोड़ों शब्द बने हैं जो इसकी समृद्धता के प्रतीक हैं। आज सार्वजनिक स्थानों पर, कार्यालयों, शिक्षण संस्थानों में अँग्रेजी के साथ हिंदी को समुचित स्थान दिलवाने के लिए देश को उसी तरह "हिंदी सेनानियों" की जरूरत है जिस तरह गुलाम देश दासता के चंगुल से मुक्त कराने के लिए को स्वतंत्रतता संग्राम सेनानियों की जरूरत थी।

tiwarishalini

tiwarishalini

Excellent communication and writing skills on various topics. Presently working as Sub-editor at newstrack.com. Ability to work in team and as well as individual.

Next Story