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सौ में सत्तर आदमी नाशाद, दिल पर रखकर हाथ कहिए क्या देश है आजाद !
योगेश मिश्र
सौ में सत्तर आदमी फिलहाल जब नाशाद है।
दिल पे रख के हाथ कहिए देश क्या आजाद है।।
आजादी के 70 वें साल में अदम गोंडवी में की यह लाइनें बताती हैं कि आखिर हम जा किस ओर रहे हैं। हमें जाना किधर चाहिए। 70 सालों में हम देश के हर नागरिक को विकास का एहसास नहीं करा पाए हैं। दवाई, पढाई नहीं उपलब्ध करा पाए हैं। बिजली, सड़क पानी नहीं दे पाए हैं। हालांकि हर सरकार ने यह दावा किया है कि उसके एजेंडे में गांव का और शहर का गरीब, किसान है।
पंचवर्षीय योजनाएं इसलिए गांव को ध्यान में रखकर बनती रही क्योंकि हम यह मानकर चल रहे हैं कि भारत की आत्मा गांव में बसती है। करीब दो तिहाई लोग गांव में रहते है। एक सच्चाई यह भी है कि बीते दो दशक में शहरीकरण तेजी से बढ़ा है, इसमें शहरों की सरहदें इतनी खींची गयी कि आसपास के गांव मोहल्लो में तब्दील हो गये। बगल के गांव के मोहल्ले में तब्दील होने की कथा गांव में गई और उनके बाशिंदे भी उसी तरह की आधारभूत संरचना खोजने लगे। लेकिन हम ठहरे कि अभी सोने की चिडि़या होने के दंभ से उभर ही नहीं पा रहे हैं।
समस्याएं सामने से आ रही हैं और हम पीछे मुंह किए बैठे हैं अपने अतीत से समस्याओं का समाधान खोज रहे हैं। हम अपने गणतंत्र को गुणतंत्र में नहीं तब्दील कर पाए। स्वराज को सुराज नहीं बना पाए। बावजूद इसके रामराज की रट लगाए रहते हैं।
देश की आजादी के समय जो ढांचा खड़ा किया गया था वह संभव है हमारे उस समय के संसाधनों के मद्देनजर विकल्पहीनता का विकल्प रहा हो। लेकिन संसाधन और समस्याओं बढ़ने के साथ हमने अपने तौर तरीके नहीं बदले। हमने विकास की यात्रा जरुर जारी रखी। यात्रा की गति और दिशा का ख्याल हम नहीं रख पाए। आजादी के दिन यह याद करना मौजूं नहीं है, लेकिन जिक्र जरुरी है ताकि लग सके कि हमने संविधान में जो हम भारत के लोग की बात की है उस पर हमारे राजनेता कितना अमल कर पाए हैं।
70 साल में रेलवे के ट्रैक और डाक की कनेक्टिविटी हम कितना बढ़ा पाए इसका ही विश्लेषण कर लें तो मूल्यांकन के लिए पर्याप्त होगा। हमने पंचवर्षीय योजनाएं बनाईं लेकिन किसी भी क्षेत्र में संतृप्त होने की दिशा में नहीं बढे। अगर हर पंचवर्षीय योजना में देश के हर राज्य के एकएक जिले को विकास के नजरिये से संतृप्त किया गया होता तो बारह जिले वाले राज्य तो संतृप्त हो ही गये होते। पांच साल का कालखंड किसी भी जिले को संतृप्त करने के लिए पर्याप्त नहीं अधिक है। हमने अपनी योजनाएँ फौरी जरुरतें पूरी करने तक ही सीमित कर दीँ। सत्तर साल बाद भी देश का कोई भी पूरा जिला आधारभूत ढांचे और अवस्थपना के लिहाज से संतृप्त नहीं हुआ है।
हम गांव को भारत की आत्मा मानते हैं जबकि पिछले 25 साल में खेती योग्य भूमि में 15 फीसदी की कमी हुई है। हमारे यहां पीने के पानी के लिए तमाम महिलाओं को रोज चार मील तक चलना पड़ता है। 20 फीसदी लोगों को पानी हासिल करने के लिए डेढ़ किलोमीटर चलना पड़ता है। चार करोड़ भारतीय जल जनित बीमारियों से ग्रसित हैं। हम अपने मानव संसाधन को शुद्ध पीने का पानी नहीं मुहैया करा पा रहे है।
हमारा गरीबी रेखा का पैमाना अफ्रीकी देश रवांडा से भी नीचे का है। वहां 892 रुपये प्रति माह ग्रामीण क्षेत्र का व्यक्ति गरीबी रेखा के नीचे आता है भारत में यह आंकड़ा 816 रुपये का है। सरकारी आकंडों की ही माने तो देश में 22 फीसदी लोग गरीबी रेखा के नीचे हैं। जबकि हमारे लगभग सभी दक्षिण एशियाई पडोसी पाकिस्तान, बांग्लादेश और नेपाल सरीखे देश भी हमसे बेहतर स्थिति में उनकी प्रतिव्यक्ति आय भले ही हमसे कम हो लेकिन गरीबी का आंकडा हमसे बेहतर हैं।
विश्व के सबसे प्रदूषित शहरों में हमारी राजधानी दिल्ली है। एक आदमी के हिस्से में 1970-71 में 468.8 ग्राम अनाज आता था साल 2014-15 में बढ़कर महज 491.2 ग्राम ही हुआ है। उद्योगों का प्रदूषण चार गुना बढा है। सिर्फ 16 फीसदी लोग शुद्ध पानी पी पाते हैं। दुनिया में प्रति व्यक्ति बिजली की खपत का औसत 2429 यूनिट प्रतिव्यक्ति आता है, भारत में 734 यूनिट प्रति व्यक्ति है।
अमरीका में नीति बनाने वाली सस्था आईएफपीआरआई के मुताबिक भूख से मरने वाले 84 देशों की सूची में 67वें स्थान पर है हमसे बेहतर स्थिति श्रीलंका और म्यांमार हैं यहां तक कि पाकिस्तान भी है। आजादी के 70 साल बाद भी लोगों तक अनाज पहुंचाने के लिए हमें अंत्योदय योजना चलानी पड़ रही है। कानून के मार्फत भूख मिटाने की कोशिश हो रही है और तालीम देने की। खाद्य सुरक्षा कानून के जरिए पेट की आग बुझाने की लडाई हमने 66 साल बाद शुरू की।
हर बच्चे को स्कूल भेजने के लिए शिक्षा का अधिकार हमने कानून के जरिए 62 साल बाद देना शुरु किया। देश में लड़कियां औसतन 4.8 वर्ष तक स्कूली शिक्षा ग्रहण करती हैं जबकि लड़के 8.2 वर्ष तक। सभी बच्चों का औसत 6.6 वर्ष का है। अगर इस स्तर को सुधार कर 12 वर्ष किया जा सके तो हम उच्च मानव विकास की श्रेणी में आ जाएंगे। उजबेकिस्तान हमारे जैसी ही आय के साथ उस स्तर को हासिल कर चुका है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक जीडीपी का 5 फीसदी हिस्सा स्वास्थ्य पर खर्च करना चाहिए लेकिन हम 2025 तक 2.5 फीसदी हिस्सा खर्च करने का लक्ष्य तय कर रहे हैं औ आज महज जीडीपी का 1.16 फीसदी हिस्सा खर्च कर रहे हैं। 39 साल से लगातार एक बीमारी से गोरखपुर मेडिकल कालेज के अंदर हर साल एक हजार बच्चे दम तोड़ देते हैं।
हम अपने बच्चों को आजादी के 70 साल बाद भी मच्छरों से नहीं बचा पा रहे हैं। ऐसी तमाम बीमारियां हर साल लाखों लोगों को देश के अलग अलग इलाकों में निगल जाती हैं गरीबी का अभिशाप झेल रहे उनके परिजन पैसा न होने के चलते अच्छा इलाज न करा पाने का दंश जीते रहते हैं।
जबकि एड्स, स्वाइन फ्लू सरीखी बीमारियां सरकार का एजेंडा बन जाती हैं। गरीब आदमी की दिक्कत सिर्फ नारा बनकर रह जाती है। यही वजह है कि सिर्फ 72 घंटे में गोरखपुर मेडिकल 5 दर्जन से ज्यादा बच्चे मौत के मुंह में समा जाते हैं तब सरकार के नुमाइंदे हर अगस्त माह में इससे ज्यादा लोगो के मरने की आंकडे गिनाने लगते हैं।
आक्सीजन के न होने से मौत हुई या बीमारी से दोनों हालत में मौत की जिम्मेदारी सरकार और मेडिकल कालेज के हुक्मरानों को लेनी चाहिए। घटना के कुछ घंटे पहले पहले मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने मेडिकल कालेज का भी दौरा किया था। उन्होंने नरेंद्र मोदी की राह पर चलते हुए लखनऊ के बालू अड्डे में हाथ में झाडू थाम सफाई का श्रीगणेश किया था। कई दिनों तक उनके मंत्री मीडिया में अपने आफिस की सफाई करते तस्वीरों में नजर आए थे। बावजूद इसके योगी आदित्यनाथ मौत के लिए गंदगी को जिम्मेदार ठहराते हैं। बीमारी या गंदी अगर सरकार के मेडिकल कालेज में है तो जिम्मेदारी भी सरकार की ही बनती है।
द्वापर युग में वासुदेव अपने सुत श्रीकृष्ण जेल की सींकचों से निकालकर मां यशोदा की गोद तक पहुंचाने मे कामयाब हो गये थे। पर कलयुग के इस कालखंड में जब हम आजादी के 70 साल का जश्न मानने जा रहे हैं श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के आसपास खड़े हैं तब पूर्वांचल के तकरीबन 60 गांव अपने लाल को मेडिकल कालेज से अपने घर तक ले जाने में कामयाब नहीं हो पाए तो इसे आजादी के किस अर्थ और भाषा एहसास करना चाहिए। वह भी तब जब लोकनीति करने वाली सरकार के नुमाइंदे इस सवाल पर राजनीति कर रहे हों।