Emu War History: जब पक्षी इंसानो पर भारी पड़े! पक्षियों और सैनिकों के बीच हुआ अनोखा ईमू युद्ध

The Great Emu War History: ‘ईमू युद्ध’ आधुनिक मानव इतिहास का शायद सबसे अजीब और हास्यास्पद युद्ध था।

Shivani Jawanjal
Published on: 11 Jun 2025 2:17 PM IST
Australia The Great Emu and Farmers War History
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Australia The Great Emu and Farmers War History

The Great Emu War: इतिहास में कई युद्ध लड़े गए हैं कभी ज़मीन के लिए, कभी विचारधाराओं के लिए। लेकिन 1932 में ऑस्ट्रेलिया में लड़ा गया 'महान एमू युद्ध' न तो किसी इंसानी दुश्मन के खिलाफ था और न ही किसी राजनीतिक उद्देश्य से प्रेरित। यह युद्ध था इंसानों और पक्षियों के बीच हाँ, आपने सही पढ़ा एक ऐसा अभियान जिसमें ऑस्ट्रेलियाई सेना ने तेज़, चालाक और अप्रत्याशित एमू पक्षियों के खिलाफ मोर्चा खोला। बंदूकें, मशीनगन और सैनिकों की रणनीति के बावजूद, ये विशालकाय पक्षी जीत गए। यह घटना आज न केवल हास्य का विषय है बल्कि एक गहरा संदेश भी देती है, कभी-कभी प्रकृति की सादगी, मानव की तकनीकी शक्ति और अहंकार पर भारी पड़ जाती है।

आइये जानते है इस अनोखे युद्ध के बारे में ।

ईमू - एक विशाल और तेज़ पक्षी


ईमू एक दिलचस्प और विशिष्ट पक्षी है जो ऑस्ट्रेलिया(Austrelia) का मूल निवासी है। यह उड़ान रहित पक्षी अपनी तेज दौड़ने की क्षमता के लिए जाना जाता है जो लगभग 50 किलोमीटर प्रति घंटे तक पहुंच सकती है। ईमू का कद लगभग 6 फीट तक हो सकता है, जिससे यह दुनिया के सबसे बड़े पक्षियों में से एक है। ये पक्षी आमतौर पर झुंडों में रहते हैं और इंसानों से डरते नहीं हैं, जिससे इन्हें नियंत्रित करना चुनौतीपूर्ण हो जाता है। कई बार ये फसलों को नुकसान पहुंचाकर किसानों के लिए समस्या भी बन जाते हैं, जिससे इनका अस्तित्व कृषि क्षेत्रों में चिंता का विषय बन जाता है।

अनोखे युद्ध की पृष्ठभूमि


प्रथम विश्व युद्ध के बाद, ऑस्ट्रेलियाई सरकार ने अपने पूर्व सैनिकों को खेती के लिए ज़मीन आवंटित की थी ताकि वे शांतिपूर्ण जीवन जी सकें और देश की कृषि अर्थव्यवस्था में योगदान दें। पश्चिमी ऑस्ट्रेलिया में इन सैनिकों ने खेती शुरू की, लेकिन जल्द ही उन्हें कई चुनौतियों का सामना करना पड़ा, जैसे सूखा, फसलों की कम कीमतें और सबसे बड़ी परेशानी ईमू पक्षी। 1932 में लगभग 20,000 ईमू कैंपियन क्षेत्र में घुस आए और उन्होंने गेहूं की फसल को बर्बाद कर किसानों को आर्थिक संकट में डाल दिया। इस विनाश से परेशान किसानों ने अंततः ऑस्ट्रेलियाई सरकार से हस्तक्षेप की मांग की।

सरकार का निर्णय और युद्ध की घोषणा


किसानों की लगातार शिकायतों और गेहूं की फसल को हुए भारी नुकसान के बाद ऑस्ट्रेलियाई रक्षा मंत्री सर जॉर्ज पियर्स ने 1932 में एक अभूतपूर्व निर्णय लिया, सेना को ईमू पक्षियों के खिलाफ तैनात करने का। सैनिकों को लुईस मशीनगनों और हजारों गोलियों के साथ भेजा गया ताकि वे इन उड़ान रहित पक्षियों को मारकर किसानों को राहत दिला सकें। यह निर्णय इतना असामान्य था कि कई लोगों को यह एक व्यंग्य या मज़ाक जैसा लगा लेकिन यह पूरी तरह वास्तविक था और इतिहास में यह घटना "The Great Emu War" या 'ईमू युद्ध' के नाम से दर्ज हो गई।

ऐतिहासिक ईमू युद्ध


2 नवंबर 1932 को, ऑस्ट्रेलियाई सेना की एक छोटी टुकड़ी मेजर मेरिडिथ के नेतृत्व में दो लुईस मशीनगनों और लगभग 10,000 गोलियों के साथ पश्चिमी ऑस्ट्रेलिया पहुंची। योजना यह थी कि ईमू के झुंडों को मशीनगनों से मारकर नियंत्रित किया जाएगा। हालांकि जितना अनुमान लगाया गया था यह अभियान उतना आसान नहीं रहा । ईमू पक्षी अप्रत्याशित रूप से तेज़, सतर्क और फुर्तीले साबित हुए। वे गोलीबारी के दौरान झुंड बनाकर भागने लगे और सेना को लगातार चकमा देते रहे जिससे उन्हें मारना बेहद कठिन हो गया।

ईमू पक्षियों की रणनीति

ऑस्ट्रेलिया के इतिहास में दर्ज 'ईमू युद्ध' एक ऐसा अजीब और असफल सैन्य अभियान था जिसमें आधुनिक हथियारों से लैस सैनिकों ने पक्षियों के एक झुंड के खिलाफ मोर्चा संभाला। जैसे ही मशीनगनों से गोलीबारी शुरू हुई , ईमू तुरंत भाग खड़े हुए और छोटे-छोटे समूहों में बिखर गए और उन्हें निशाना बनाना बेहद कठिन हो गया। एक सैनिक ने तो यहां तक कहा कि 'ईमू ऐसे बंटते हैं जैसे वे युद्ध के अनुभवी सिपाही हों'। पहले ही दिन मशीनगन के बार-बार जाम हो जाने की समस्या सामने आई, जिससे ऑपरेशन की कार्यक्षमता पर सवाल उठने लगे। जब ट्रक से हमले की योजना बनाई गई, तो ईमू की तेज़ गति और ट्रक की अस्थिरता के कारण वह भी विफल रही। कई बार ट्रक खराब रास्तों में फंस भी गए, जिससे हमला करना और मुश्किल हो गया। नतीजतन शुरुआती प्रयासों में केवल 2-3 ईमू ही मारे जा सके जबकि हजारों खेतों में तबाही मचाते घूमते रहे। ऑपरेशन की शुरुआत में ही यह स्पष्ट हो गया था कि यह युद्ध पक्षियों से नहीं बल्कि असमर्थ रणनीति से था।

विफलता और मज़ाक का पात्र बनी सरकार


ऑस्ट्रेलिया में हुए 'ईमू युद्ध' के दौरान मेजर मेरिडिथ ने स्वयं यह स्वीकार किया था कि ईमू असाधारण रूप से 'संगठित और तेज़' थे जिनका शिकार करना बेहद मुश्किल था। दो हफ्तों की कार्रवाई में करीब 2,500 गोलियां चलाई गईं लेकिन केवल लगभग 986 ईमू ही मारे जा सके जिससे ।और परिणामस्वरूप एक ईमू को मारने के लिए औसतन 10 गोलियां खर्च हुईं। नतीजतन, यह सैन्य ऑपरेशन ऑस्ट्रेलियाई सरकार के लिए राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हास्य का विषय बन गया। अख़बारों में चुटकी ली गई: “अगर हम ईमूओं से लड़ नहीं सकते, तो शायद हमें उन्हें सेना में भर्ती कर लेना चाहिए!” इसप्रकार युद्ध को लेकर इस तरह की व्यंग्यात्मक टिप्पणियाँ उस समय की रिपोर्टों में खूब पढ़ी गईं।

सेना की वापसी और युद्ध का अंत

10 दिसंबर 1932 को ऑस्ट्रेलियाई सरकार ने 'ईमू युद्ध' अभियान को औपचारिक रूप से स्थगित कर दिया और सेना को वापस बुला लिया गया। इस असफल प्रयास के बाद भी कुछ छोटे स्तर के प्रयास जरूर किए गए लेकिन वे भी प्रभावी सिद्ध नहीं हुए। अंततः यह अभियान इतिहास में एक अनोखे और विफल सैन्य हस्तक्षेप के उदाहरण के रूप में दर्ज हो गया । जहाँ अत्याधुनिक हथियारों से लैस सेना भी बड़ी संख्या में ईमू पक्षियों के सामने बेबस नज़र आई। यह घटना आज भी दुनिया भर में चर्चा का विषय बनी रहती है और इसका उल्लेख अक्सर हास्य, विडंबना और रणनीतिक विफलता के प्रतीक के रूप में किया जाता है।

ईमू युद्ध से क्या सबक मिला?

'ईमू युद्ध' से मिले सबक आज भी प्रासंगिक हैं। इस घटना ने यह स्पष्ट कर दिया कि प्रकृति की ताकत को कभी कम नहीं आंका जाना चाहिए। ईमू जैसे उड़ने में असमर्थ पक्षी ने आधुनिक हथियारों और सैन्य रणनीतियों के सामने अप्रत्याशित रूप से मजबूती दिखाई जो तकनीकी श्रेष्ठता के बावजूद मानव की सीमाओं को उजागर करता है। इसके साथ ही, इस अभियान की विफलता ने यह भी सिखाया कि हर समस्या का समाधान युद्ध या सैन्य हस्तक्षेप नहीं होता। बाद में जब वैज्ञानिक और स्थानीय प्रबंधन उपायों को अपनाया गया तो स्थिति कहीं बेहतर ढंग से संभाली जा सकी। इसके अतिरिक्त सरकार द्वारा लिया गया यह निर्णय प्रशासनिक दृष्टिकोण से एक हास्यास्पद मिसाल बन गया, जिससे उसकी गंभीरता और दूरदर्शिता पर सवाल उठे और वह मीडिया व जनता के उपहास का पात्र बनी।

ईमू समस्या का स्थायी हल क्या था?


'ईमू युद्ध' के बाद ऑस्ट्रेलियाई सरकार ने समस्या का समाधान खोजने के लिए एक अधिक व्यावहारिक और दीर्घकालिक दृष्टिकोण अपनाया। किसानों को ईमू से सुरक्षा देने के लिए सरकार ने बाड़ लगाने की सुविधा प्रदान की, इसके लिए फेंसिंग सब्सिडी शुरू की गई और लाइसेंस आधारित शिकार की अनुमति दी गई। इन उपायों ने धीरे-धीरे ईमू की बढ़ती आबादी पर नियंत्रण पाने में मदद की। खास बात यह रही कि सरकार ने मशीनगनों या हवाई हमलों जैसे आक्रामक सैन्य विकल्पों के बजाय स्थानीय और वैज्ञानिक उपायों को प्राथमिकता दी। इसके साथ ही इनाम प्रणाली (बाउंटी सिस्टम) को भी लागू रखा गया जिसके तहत किसानों को मारे गए ईमू के लिए इनाम दिया जाता था। जैसे कि वर्ष 1934 में केवल छह महीनों में 5,734 ईमू इनाम के दावे के तहत मारे गए। ये उपाय न केवल अधिक प्रभावी सिद्ध हुए बल्कि किसानों को भी सीधे तौर पर ईमू समस्या से निपटने में मदद मिली।

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