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नियति बदलने की जरूरत क्योंकि... मिले अगर हवा पानी शुद्ध, पैदा होंगे गौतम बुद्ध
योगेश मिश्र
कुछ साल पहले उत्तर प्रदेश के पूर्वी इलाके में एक स्वयंसेवी संगठन ने यह नारा लिखा था- मिले अगर हवा पानी शुद्ध, पैदा होंगे गौतम बुद्ध। यह इलाका सीधे तौर से बुद्ध से जुड़ा है। हवा और पानी के शुद्ध करने की दिशा में हम भले पहल नहीं कर पाये।
आगे नहीं बढ़ पाये, लेकिन बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने इस नारे का मतलब ठीक से समझ लिया। इस दिशा में आगे बढ़ गईं। उन्होंने हवा और पानी के ऐसे बड़े कारोबार पैदा कर लिये कि जिस देश में पानी का रिश्ता वरुण देव से हो उस देश में पानी बाजार की वस्तु बन गया। हवा जो सबके लिए एक सरीखी उपलब्ध है उसकी भी कोटियां गढ़ दी गईं। कनाडा की एक कंपनी ने शुद्ध हवा के नाम पर चांदी काटने की लम्बी तैयारी कर ली है।
पानी का कारोबार कितना पसर गया है यह इसी से समझा जा सकता है कि गांव में बोतलबंद पानी जगह बना ली है। स्टार्टअप के रूप में शुरू हुई वाइटेलिटी कंपनी ने भारत में भी बोतलबंद शुद्ध हवा बेचने के लिए सर्वे शुरू करा दिया। जल्द ही दिल्ली के बाजार में यह कंपनी बोतलबंद हवा बेचना शुरू कर देगी। इसकी कीमत 1450 रुपये से लेकर 2800 रुपये तक होगी। हवा के इस कारोबार में एक सांस की कीमत तकरीबन 12.50 रुपए बैठेगी। जंगल और पहाड़ से यह हवा इकट्ठा की जायेगी।
निरंतर बढ़ते प्रदूषण ने इस कारोबार को जगह दी है। हवा में 78 फीसदी नाइट्रोजन, 21 फीसदी ऑक्सीजन, 0.03 फीसदी कार्बोनडाईऑक्साइड और 0.97 फीसदी अन्य गैसें होती हैं। एक मोटे अनुमान के मुताबिक पृथ्वी के वायुमंडल में करीब 6 लाख अरब टन हवा है। हवा की अनिवार्यता इससे भी समझी जा सकती है कि आदमी रोजाना जो कुछ खाता-पीता है उसमें 75 फीसदी हिस्सा हवा का होता है।
एक आदमी रोज तकरीबन 22 हजार बाद सांस लेता है। इस लिहाज से रोज वह 35 गैलन हवा गटक जाता है। विश्व आर्थिक मंच की रिपोर्ट बताती है कि दुनिया के 20 प्रदूषित शहरों में से 18 एशिया में हैं। इसमें 13 अकेले भारत में हैं। देश के 121 शहरों में वायु प्रदूषण का आंकलन करने वाला केन्द्रीय प्रदूषण मंडल की मानें तो किसी भी शहर की आवोहवा अब विशुद्ध नहीं रह गई है। इस लिहाज से बोतलबंद हवा के करोबार के विस्तार की उम्मीद करना बेमानी नहीं होगी। इस कंपनी ने प्रयोग के तौर पर वर्ष 2014 में हवा भरी थैलियां बेचने की शुरुआत की थी। कंपनी के संस्थापक मोसेजलेम के मुताबिक थैलियों की पहली खेप हाथों हाथ बिक गई। इसी ने उनके हौसलों को पंख लगा दिया। भारत ही नहीं, अमेरिका और मध्य पूर्व के देश बोतलबंद हवा के बड़े खरीददार नजर आ रहे हैं। चीन में तो पहले से तो यह कारोबार फल-फूल रहा है।
वर्ष 2015 की गर्मियों में कनाडा के कालागेरी जंगलों में आग गई। नतीजतन, चारों ओर धुंआ फैल गया और लोगों को सांस लेने में दिक्कत होने लगी। यहीं से हवा के बाजारीकरण के सपने हकीकत में तब्दील होने लगे। रिसर्च फर्म वैल्यूनोट्स के मुताबिक वर्ष 2018 तक भारत में पानी का कारोबार 16 हजार करोड़ रुपये तक पहुंचने का अनुमान है। देश में बोतलबंद पानी का सालाना कारोबार तकरीबन 22 फीसदी की रफ्तार से बढ़ रहा है।
यह कारोबार अभी उन तकरीबन 7.6 करोड़ लोगों तक नहीं पहुंच पाया है जिन्हें पीने का पानी मयस्सर ही नहीं है, क्योंकि इनकी क्रय शक्ति पानी खरीदने की नहीं है। 1947 में एक आदमी के हिस्से 6042 क्यूबीक मीटर पानी उपलब्ध था। आज यह घटकर 1495 क्यूबीक मीटर रह गया है। पानी के कारोबार की शुरुआत महज 27 साल पहले 1990 में बिसलेरी ने की थी। बोतलबंद पानी के बाजार का 67 फीसदी हिस्सा बिसलेरी, पेप्सीको, कोकाकोला, धारीवाल और पार्ले के पास है।
शुद्ध हवा बेचने वाली करोबारियों को पानी से अधिक हवा के कारोबार और बाजार की उम्मीद है। यह उम्मीद बेमानी भी नहीं है। समाज को बाजार और आदमी को आर्थिक मानव बनाने में जुटी कंपनियां हवा और पानी के बाजारीकरण तक ही खुद को रोक लेतीं, तो शायद उन्हें क्षमा किया जा सकता था, लेकिन वर्ष 1951 में खाड़ी युद्ध के बाद नई विश्व व्यवस्था के नाम पर अमेरिकी राष्ट्रपति जार्ज बुश सीनियर की अगुवाई में अमेरिका ने भूमंडलीयकरण का जो ताना-बाना बुना, जिसे हमने विश्व ग्राम के नाम पर अपनाया और आगे बढ़ाया। जिसे लेकर हम खुश होते रहे कि एक क्लिक पर पूरी दुनिया हमारी लेकिन नृशंस बाजारवाद ने हमारी मानवीय संवेदनाओं को इस कदर रौंदकर रख दिया कि अब मां के दूध के कारोबार भी शुरुआत हो गई है। कम्बोडिया की लाचार और गरीब महिलाओं के दूध को एकत्र कर अमेरिकी माताओं के लिए निर्यात किया जा रहा है। बच्चे के लिए अमृत तुल्य यह दूध विवश माताएं बेच रही हैं। हालांकि यूनिसेेफ ने इस करोबार के खिलाफ आवाज उठाई है। कम्बोडिया के यूटा स्थित कंपनी अम्ब्रोसिया ने इस नायाब कामकाज को अंजाम देना शुरू किया। इसने कम्बोडिया मानव ब्रेस्ट मिल्क खोला। 147 मिलीलीटर यह दूध 20 डॉलर में बेचा जाता है।
कारोबार की बढ़ती यह प्रवृत्ति और प्रकृति तथा मशीनीकरण के इस युग में यह तो साबित होता ही जा रहा है कि पैसा निरंतर बड़ा आकार ग्रहण कर रहा है। हर चीज को मूल्य से जोड़ा जा रहा है। प्रकृति ने हवा, पानी, समय सबको एक सरीखे दिये थे। सांस के लिए सभी जीव को हवा चाहिए थी। सभी जीव को पानी चाहिए था। सभी मनुष्यों को निश्चित और निर्धारित 24 घंटे ही दिये गये थे। पर मनुष्य ने प्रकृति के इन नियमों से अलग खड़े होने की ठानी है। उसने इस दिशा में कुछ मील के पत्थर भी गाड़े हैं, पर कई मील के पत्थर जमींदोज भी किये हैं। उससे जिस तरह समूचे समाज को आर्थिक ताने-बाने की गिरफ्त में जकड़ लिया है उससे मानव से मानव के बीच रिश्ते, समाज में आपसी रिश्तों के आधार, एक दूसरे के सुख-दुख बांटने का चलन, सब घिर रहे हैं। हवा, पानी, मां का दूध यह सब कारोबार के हिस्से हो जायेंगे तो आम लोगों को मयस्सर नहीं होंगे। जब से पानी का कारोबार करने देशी-विदेशी कंपनियां उतरीं तब से हमारे ताल-तलैया, पोखर सूख गये। नदियों की धारा का जल प्रवाह कम हो गया। यह हमारे लिये दुर्भाग्य नहीं तो और क्या है कि हम जिस-जिस चीज को सहेजने की कोशिश करते हैं वह और खत्म होती जाती है। हमने हिन्दी को सहेजने की कोशिश की उसकी दुर्दशा आम है। हमने संस्कारों को सहेजने की कोशिश की वह निरंतर कम हुआ। हमने लडक़ी बचाने की कोशिश शुरू की बेटियां-औरतें गायब होने लगीं। हमने प्रदूषण पर चिंता जताई निरंतर बढऩे लगा। हमने गाय और गंगा को बचाने के जितने भी वायदे किये उतनी ही ये हमसे दूर होती गईं। ऐसे में पिछली नियति से सबकुछ बचाने की जगह नई नियति गढऩी चाहिए, क्योंकि जब हमारे पूर्वजों ने गाय, गंगा, पानी, पेड़, अन्न को भगवान के साथ जोड़ा था, जानवरों को भगवान की सवारी बताई थी तब ये निरंतर बढ़ रहे थे। संरक्षित थे।
(लेखक अपना भारत/न्यूजट्रैक के प्रधान संपादक हैं)