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लोकपर्व छठ के गीतों में जीवन के आधार तत्व हैं समाहित, जिसके अद्भुत हैं मर्म
अजीत दुबे
लखनऊ: भारत के लोकपर्व केवल सामान्य उत्सव भर नहीं है। इनमें वास्तव में जीवन के वे सभी आधार तत्व समाहित होते हैं। इसीलिए इन पर्वों की गहरी आस्था से लोक जुड़ा हुआ है। सृष्टि और प्रकृति के समन्वयकारी स्वरुप पर इन पर्वों को स्थापित किया गया है जो जीवन मूल्यों को क्षरित होने से बचाने और जीवन को सुगम बनाने की प्रक्रिया करते रहते हैं। भारत के पर्वों में मुख्य रूप से जो गेय तत्व इसको और भी गहरा कर देता है। इस गेयता में लोकस्वर तो होते ही है, कथा और सुर के समागम से यह अद्भुत ढंग से संप्रेषणीय भी होता है। ऐसा प्राय: सभी लोक पर्वों में है। छठ भी इससे अछूता नहीं है। छठ में तो प्रकृति के समग्र अवयव इसके गीतों के साथ ही समाहित रहते हैं।
छठ के गीत अद्भुत है। इन गीतों का भाव और मर्म भी अद्भुत है। वैसे तो भारतीय भाषाओं के मूल स्वर ही लोक से उपजते हैं पर हिंदी क्षेत्र के लोक साहित्य में जिन लोकगीतों ने सबसे अधिक अपनी जगह बनायीं है वह छठ के गीत है। छठ के गीत केवल सामान्य शब्द विन्यास नहीं है, बल्कि इनमे जितना गहरा विमर्श है उतना अन्य किसी लोकगीत में नहीं दिखता। एक साथ आस्था और विश्वास की परंपरा से लेकर स्त्री को सीधे प्रकृति के विमर्श के रूप में स्थापित करते इन गीतों की समूची परंपरा बहुत ही समृद्ध है। वास्तव में छठ जीवन संदर्भों से गहराई से जुड़ा हुआ है। इसकी अभिव्यक्ति गीतों में भी हुई है। लोक की यह खूबी रही है कि उसकी अनिवार्यताएं उसके संसाधनों से ही पूरी हो जाती हैं। लोकवृत्त में सहोपकारिता के दर्शन तो होते ही हैं, उदारचेता मनोवृत्ति भी दिखाई देती है। वैचारिक धरातल तो इतना व्यापक है कि उसके समकक्ष आधुनिक सोच भी नहीं। आज का स्त्री-विमर्श भी उतना आधुनिक और उदार नहीं, जितना प्रासंगिक लोक पक्ष में रहा है। इसकी बानगी छठ गीतों में देखी जा सकती है।
रुनुकी-झुनुकी हम बेटी मांगिले,
पढ़ल पंडित दामाद,
छठी मइया दर्शन देहूं ना अपार।
लोक में पुत्री की कामना ज्यादा समतामूलक, वैज्ञानिक और प्रासंगिक है। आज जहां मालदार ओहदे वाले दामाद लाखों-करोड़ों में खरीदे जा रहे हैं, वहीं लोक में विद्वान दामाद की कामना अपने को उत्तर आधुनिक कहने वाले लोगों को मुंह चिढ़ाती है। लोक भाव से लैस इस पर्व में प्रकृति की महत्ता को प्रतिपादित किया गया है। प्रकृति प्रदत्त संसाधनों से ही सूर्योपासना संपन्न् होती है। यहां तक की घाट तक पूजन सामग्री ले जाने वाली बहंगी (जिसके दोनों तरफ टोकरियां लदी होती हैं) भी बांस और मूंज से बनी होती है।
कांच ही बांस के बहन्गिया, बहंगी लचकत जाये.
देखे में लागे सतरंगिया, बहंगी लचकत जाये..
छठीया पूजन सभे चलेली तिवइया.
बड़ी मन भावन लागेला समइया
बहंगी लचकती जाये..
भकती में डूबल बिया दुनिया
बहंगी लचकती जाये.
भउजी के संगे-संगे चले ला देवरवा..
मथवा प धरी छठी माइ के दऊरवा.
पीछे-पीछे चले नन्हमुनिया
पायल छनकती जाये..
कांच ही बांस के बहन्गिया, बहंगी चलकती जाये...
इस पर्व की सबसे खास बात यह कि इसमे पूजा के लिए किसी अलग समिधा की आवश्यकता नहीं होती। फल-फूल, कंद-मूल और नवान्न सब प्रकृति प्रदत्त यानी आस-पास से प्राप्त संसाधन और सामग्री, पवित्रता और स्वच्छता का खास खयाल रखना होता है-
केरवा जे फरेला घवध से ओपर सुग्गा मेडऱाय।
मरबो रे सुगवा धनुष से, सुग्गा गिरे मुराय।
एक अन्य गीत
केरवा के पात पर उगेलन सूरुजदेव कवना लागे,
हम करेलीं ठ बरतिया से कवना लागे।
इन गीतों में जागरण के संदेश भी मिलते हैं। साथ ही नव विहान का आग्रह भी है।
कौन कोंखे जनम लेलन सूरुजदेव,
उठ सूरुज भइले बिहान, रे माई।
सृष्टि की निरंतरता को बनाए रखने की अपील और सामाजिक संतुलन बनाए रखने का आह्वान भी छठ गीतों में हुआ है।
काहे लागी सेवली देव सुरुजमल, काहे लागी।
हे सेवली जगरनाथ हे केकरा लागी।
गीतों में मौलिक सोच के दर्शन तो होते ही हैं सामाजिक अभियांत्रिकी भी दिखती है। आज जहां धनोपार्जन के लिए बेटा की कामना है, वहीं गतकालीन लोक में सामाजिक समरसता और मर्यादा देखते बनती है।
छठ गीत की इन पंक्तियों पर गौर उचित है।
सभवा बइठन के बेटा एक मांगिला,
गोड़वा लगन के मांगिला पतोह, हे छठी मइया।
स्पष्ट है कि गीतों में प्रकृति, समाजिकता, समरसता, सहकार और उद्दात विचारों का समाहार है। ये गीत प्रेरणा देते हैं। जीवन की कला सिखाते हैं और यह सीख भी देते हैं कि अपने संसाधनों और अपने सानिध्य में उत्सवधर्मिता का रंग कैसे सृजित हो सकता है। कथानको में सामान्य तौर पर पुत्र कामना के व्रत कहे जाने वाले इस महापर्व के मूल में स्त्री तत्व ही है। वह तत्व जिससे यह सृष्टि चल रही है। उस प्रकृति को साधने के लिए लोकजीवन की इस हर घर की प्रकृति यानी नारी तत्व को ही लगाया गया है। स्वाभाविक है की ऐसी कठिन साधना केवल नारी तत्व के ही वश की बात है। यही कारण है की छठ स्थान तक जाने के लिए जब पूजा के सामान वाला डाल तैयार होता है तो उस डाल को वह तक पहुंचाने के लिए घर के श्रेष्ठ पुरुष को लगाना पड़ता है। यह इस बात को भी प्रमाणित करता है की भारत के लोक जीवन में भी स्त्री कितनी श्रेष्ठ और सम्माननीय रही है और आज भी है। आदि देव भगवान भास्कर की आराधाना का यह महापर्व असल में प्रकृति की आराधना का भी त्योहार है। छठ पूजा बिहार व पूर्वी उत्तर प्रदेश की कृषक सभ्यता का महापर्व है।
खेतों में लहलहाती धान की फसल, उसकी सोने सरीखी पीली-पीली बालियां देखकर किसान मन प्रकृति के प्रति सहज ही कृतज्ञता से झुक जाता है और वह तुभ्यम वस्तु गोविंद, तुभ्यमेव समर्पये के भाव के साथ प्रकृति के प्रति सहज ही कृतज्ञता से झुक जाता है और वह तुभ्यम वस्तु गोविंद, तुभ्यमेव समर्पये के भाव के साथ प्रकृति के प्रतीक सूर्य देव के आगे करबद्ध होकर उनकी आराधना करने लगता है। यह एक ऐसा त्योहार है जिसका बाजार से कोई खास वास्ता नहीं है। इसका अपना ही बाजार होता है जो खास इसी अवसर पर दिखाई देता है। सूर्य देव को अर्घ देने के लिए जो भी वस्तुएं लाई जाती हैं, वे सभी एक किसान के घर में सहज ही उपलब्ध होती हैं। केला, मूली, बोड़ा, समतोल ,हल्दी, नींबू, ओल , नारियल, अदरक, ईख, गेहूँ के आटे से बना ठेकुआ, सबकुछ किसान खुद ही उपजाता है । जिस बाँस की टोकरी में अर्घ्य का यह सारा सामान रखा जाता है, वह भी खेती-किसानी करने वाले लोग खुद ही बना लेते हैं। यह दीगर बात है कि शहरों में आ चुके पुरबिया लोगों को अब यह सारा सामान बाजार से खरीदना पड़ता है, लेकिन छठ पूजा का बाजार भी बिल्कुल अलग है। आज भी सारा सामान पटना और बनारस से आता है। इसीलिए गीतों में बनारस और पटना का जिक्र भी कई बार आता है। बक्सर से पटना तक का गंगा का किनारा भी छठ के गीतों में समाहित मिलता है।
छठ को एक रूप में भोजपुरी क्षेत्र का पर्व भी कहा जाता रहा है क्योकि पहले यह बिहार और पूर्वी उत्तरप्रदेश केंद्रित ही होता रहा है। इसकी गीति परंपरा के शब्द भी भोजपुरी में ही है। भोजपुरी, मैथिली ,और काफी हद तक अवधी साहित्य में भी छठ को महत्ता मिली है लेकिन भोजपुरी के लिए तो यह स्थापित लोकसाहित्य है। यह अलग बात है कि सूचना क्रान्ति ने इसको बहुत व्यापकता दे दी है और आज छठ के गीत केवल भारत ही नहीं बलिक दुनिया भर में सुनने को मिल जाते है। यहां तक कि अमेरिका, यूरोप , और अन्य महाद्वीपो में भी छठ के स्वर और शब्द स्थापना पाने लगे हैं।