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राष्ट्रगान का 'अधिनायक' आखिर है कौन?

हर वर्ष जब गणतंत्र दिवस आता है तो न जाने क्यों ‘जन मन गण.. अधिनायक जय हे.. की धुन कानों में गूंजने लगती है, जिस धुन के सम्मान में हम सगर्व अपने-अपने स्थान पर खड़े हो जाते हैं। फिर जब इसी गीत के इतिहास पर सोचता हूं तो न चाहते हुए भी ठहर जाता हूं। 1911 कांग्रेस का

tiwarishalini
Published on: 29 Jan 2018 11:50 AM IST
राष्ट्रगान का अधिनायक आखिर है कौन?
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आलोक अवस्थी

हर वर्ष जब गणतंत्र दिवस आता है तो न जाने क्यों ‘जन मन गण.. अधिनायक जय हे.. की धुन कानों में गूंजने लगती है, जिस धुन के सम्मान में हम सगर्व अपने-अपने स्थान पर खड़े हो जाते हैं। फिर जब इसी गीत के इतिहास पर सोचता हूं तो न चाहते हुए भी ठहर जाता हूं। 1911 कांग्रेस का कलकत्ता अधिवेशन 30 दिसंबर को श्रद्धेय रवीन्द्रनाथ ठाकुर के द्वारा गाया गीत चित्र बनकर अतीत के पन्नों से निकल कर सजीव हो उठता है। एक प्रश्न उठता है कि इसमें ये 'अधिनायक' कौन है जिसके सम्मान में रवीन्द्र दा ने अपनी पंक्तियों में सबको न्योछावर कर दिया।

30 दिसम्बर कांग्रेस के २5वें अधिवेशन में चुने गए पं. विशन नारायण धर जिन को शायद आज कोई क्या कांग्रेसी भी नहीं जानते। क्या वो ‘अधिनायक’ थे? क्यों कि जन और गण कल के गुलाम भारत में इस हैसियत में थे नहीं। उसी दिन यानी 30 दिसंबर 1911 को कोलकाता में जार्ज पंचम का आगमन था जो निसंदेह भारत भूमि के अधिष्ठाता थे। इस गायन के तुरंत बाद ही उनके भारत आगमन पर उनके सम्मान में कांग्रेस द्वारा प्रस्ताव पास करना अचंभित नहीं करता?

छोडिय़े ये इतिहास की बाते हैं। वहीं दफन रहे अच्छा है, मन दुखेगा उससे बड़ी दुख की बात है इस गीत को ‘राष्ट्रीय गान’ के रूप में स्वीकार करना, अंग्रेज विदा हो गए लोकतंत्र को भारत ने स्वीकार कर लिया। फिर ‘अधिनायक’ कौन बचा? वर्षों की गुलामी और हजारों वर्षों की राजशाही को अंगीकृत कर चुका ये देश क्या लोकतंत्र का अर्थ नहीं समझ पाया या अंग्रेजों से सत्ता लेते समय हमारे जननायक इस ‘अधिनायकवादी’ रूतबे का मोह नहीं त्याग पाए। हम भारत के लोग जैसे स्वर्णिम शब्दों से प्रारम्भ हमारे लोकतंत्र ने कैसे अधिनायक शब्द को स्वीकार कर लिया?

सबकुछ तो वैसे ही स्वीकारा गया जैसा अंग्रेज करते थे या उससे पहले की राजशाही। अधिनायकवादी वंश परम्परा से मुक्त होकर भी भारत, क्या इससे मुक्त हो पाया? अंतर जरूर आया कुछ लोकतांत्रिक राजघराने स्थापित हो गए, कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक।

इस पावन अवसर पर कोशिश करूंगा कि नामों से परहेज करूं। आज भी इन घरानों ने क्या इसे अपना नैसर्गिक अधिकार नहीं समझ लिया है ? और ‘हम भारत के लोग’ इन्हीं घरानों के आगे ‘जन मन गण’ ही नहीं तन मन धन से न्योछावर हैं? आखिर कौन है ये ‘अधिनायक’ जो हमारे हर नायक को चुनौती देता है? ये सुविधा प्रदान करता है कि अतत: तुम्हारा लक्ष्य यही है... कौन है जो इसे नियम में शामिल कर नियति से खिलवाड़ करने की इजाजत देता है?

आजादी के इतने वर्षों की यात्रा के बाद भी क्या हमने यही लोक शिक्षण दिया है कि ‘अधिनायकवादी उपनिवेश’ को महिमा मंडित करो, कोई भी राज्य इस महामारी से अछूता नहीं है, हर राज्य में एक वंशबेल पनप चुकी है जो अपने मकडज़ाल से लोक को कुछ सोचने का अवसर ही नहीं देती है।

लोकसभा से लेकर नगर पालिका से होते हुए ग्रामसभा तक इसी उपनिवेशिद अधिनायकत्व का बोलबाला है, जरूरत है नाम गिनाने की??

आजादी के आंदोलन के पुरोधाओं ने इस गीत को जब स्वीकार किया होगा तो सोचा भी नहीं होगा कि इसका विस्तार किस हद तक होगा...जो भाग्य विधाता तक बनने के दु:साहस तक जाएगा।

जो जहां जिस स्थान पर है, हर कीमत पर जय-जयकार कराने पर अमादा है। अब इस बहस से कोई फरक नहीं पड़ता कि ये गीत को किसके सम्मान में लिखा.. इस नए प्रगतिशील, सम्पन्न होते, भारत के चित्त में ये धारणा पूरे गर्व के साथ धारण हो चुकी है..कि या तो पुराने या नए वंशानुगत अधिनायक को अपना भाग्य विधाता मानो अथवा उसके विरोध में एक नया उससे भी अधिक शक्ति सम्पन्न उपनिवेश को जन्म दो जो खुद को इस देश का नया ‘भाग्य विधाता’ घोषित करे और डंके की चोट पर जय-जयकार करने पर मजबूर करें।

tiwarishalini

tiwarishalini

Excellent communication and writing skills on various topics. Presently working as Sub-editor at newstrack.com. Ability to work in team and as well as individual.

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