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Yogesh Mishra Special- "ये कहां जा रहे हैं हम"
‘सिलसिला’ फिल्म के एक दृश्य में अमिताभ बच्चन और रेखा एक गाने में यह कहते हुए आगे बढ़ रहे होते हैं कि ‘ये कहां आ गये हम यूं ही साथ-साथ चलते।’ लेकिन आज हम अगर अपना मूल्यांकन करें तो लगता है कि हम जहां भी आए हैं, वह ठीक नहीं है, मुकम्मल नहीं है। आदर्श नहीं है, हकीकत नहीं, जरुरत नहीं है। हम जिधर जा रहे हैं उधर खाई है, पतन है। स्वजनों और सुजनों के लिए दुख है, वेदना है, अभाव है। हम अपने होने का कोई सार्थक मतलब नहीं जता पा रहे हैं। नहीं बता पा रहे हैं। यही वजह है कि कहीं मदरसे में असमत महफूज़ नहीं है, तो विश्वविद्यालयों के परिसर में आबरू बचाने के लिए अराजक तत्वों से जंग करनी पड़ रही है।
किसी भी वस्तु के स्वाभाविक गुण ही उसके धर्म होते हैं। जैसे आग का जलाना, पानी का बुझाना। लेकिन आदमी के लिए हमेशा जो भी गुणधर्म स्वीकार किए गये अथवा करवाए गये, वे सिर्फ सकारात्मक रहे, क्योंकि उसकी जिम्मेदारी सिर्फ अपनी नहीं अपने आसपास के ईको-सिस्टम को भी बनाए रखने की है। उसे इसीलिए नैसर्गिक गुणों के रुप में बुद्धि मिली, वाणी मिली। ये दोनों जगत के किसी चर-अचर प्राणी में नहीं है। धर्म और विज्ञान अनोन्याश्रित हैं। ज्ञान में सहनशीलता होती है, विज्ञान में अधिक सहनशीलता होती है।
मनुष्य़ एक शिष्ट प्राणी है, शिष्ट में एक अंतर्निहित भाव यह है कि वह अपने और सबके अनुभवों से दीक्षित होता है। लेकिन हम निरंतर इससे दूर होते जा रहे हैं। जो विज्ञान की कसौटी पर खरे नहीं उतरते उसे धर्म नहीं कहते। हमारे धर्म और विज्ञान ने हमारी हर जरुरत को पूरी करने का एक पथ सुझाया है। एक रास्ता बनाया है। हम हैं कि उस रास्ते से इतर चल रहे हैं। इस गति और वेग में हम रास्ते से उतरकर पगडंडियों पर आ गये हैं। पगडंडियों से खाई में समा रहे हैं। पर हमें समझ में नहीं आ रहा है महज इसलिए क्योंकि हम ही धर्म और विज्ञान के मेल और सामांजस्य में बाधक है। धर्म को विज्ञान से और विज्ञान को धर्म से अलग लाकर खड़ा कर दिया है।
भाषा विज्ञान की दृष्टि से धर्म से दन्त्य, स्पर्श, घोष तथा महाप्राण ध्वनि निकलती है। धर्म का गुणवाचक होना अनिवार्य है। हम यह भी कह सकते हैं कि गुण ही धर्म है। हम इन सबको तार-तार कर रहे हैं। जो दिख रहा है उसे गहराई तक देखने का प्रयास दर्शन है। हमने जो दिख रहा है उसे देखते रहने को दर्शन बना लिया है। हम सुविधा के लिए संसार बनाने लगे हैं। उस संसार में नैतिक-अनैतिक, धर्म-विज्ञान, दर्शन-अध्यात्म के किसी रुपगुण अथवा मानदंड का पालन नहीं करते हैं। हमें लगता है कि हमारी दुनिया जायज़ है, वाजिब है जिसे हमने रचा बसा है। पर, हमने जो दुनिया बनाई है, वह जीवन नहीं देती। वह काम चलाती है। जीवन देने के अनिवार्य तत्व हमें हमारी दुनिया से नहीं मिलते। उस दुनिया से मिलते हैं जिसे उसने बनाया है जो हमें बनाता है।
जीवन जीने के अनिवार्य तत्व हैं- पंच महाभूत। ये पंच महाभूत क्षिति, जल, पावक, गगन और समीर हैं। इनमें से किसी को हमने नहीं बनाया। हम वायु बिना पल भर भी नहीं रह सकते। पानी बिना दिन भर नहीं रह सकते। जमीन हमारा अस्तित्व है। गगन हमारी आकांक्षाओं का पर्याय है। आग हमारे आधुनिक होने का उदाहरण। इनके अलावा जो भी चीजें हमने बनाई हैं वे इन पंच महाभूतों के बिना अनर्थ हैं, व्यर्थ हैं। हमने काल्पनिक स्वादर्श बना रहे हैं। जब समाज हमसे संबंध, स्नेह, समझ और दायित्व की मांग कर रहा है, तब हम आभासी आत्ममुग्धता का शिकार होकर आत्मीयता जनने ही नहीं दे रहे हैं।
जो काम हमें खुद के लिए अरुचिकर लग रहा है वह हम निरंतर कर रहे हैं। हम इतने बेचैन और हताश हैं कि सब कुछ तुरत-फुरत पा लेना चाहते हैं। हमारी स्थिति कुछ ऐसी है जैसी किसी क्षेत्रीय राजनीतिक दल के सुप्रीमो की होती है। उसे अपनी ही जिंदगी में विधायक, सांसद बनना होता है, मंत्री मुख्यमंत्री बनना होता है। प्रधानमंत्री के सपने बुनना होता है, अपने परिवार और जाति को खड़ा करना होता है, जिंदगी के सारे ख्वाब पूरे करने होते है। अपने बेटे को स्थापित करना होता है और अकूत धन कमाना होता है।
सन् 1950 में जनसंघ की स्थापना हुई थी। जनसंघ ने अपने स्थापना के समय सन् 2010 में सरकार बनाने का लक्ष्य रखा था। इस बैठक में श्यामा प्रसाद मुखर्जी, पंडित दीनदयाल उपाध्याय, बलराज मधोक, नानाजी देशमुख, अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, मौलीचंद्र शर्मा, प्रेमचंद्र डोगरा आदि लोग शरीक थे। किसी की उम्र 20 से कम नहीं रही होगी पर 60 साल बाद का लक्ष्य निर्धारित हो रहा था। हमें अपनी जिंदगी में भी बड़े लक्ष्य और बड़े समय के लक्ष्य निर्धारित करने होंगे। ‘शार्टकट’ आज को तो संतृप्त कर सकता है पर दोनों कल उसकी पहुंच से बहुत दूर होते हैं।
यही वजह है कि हमें साथ साथ चलते हुए कहीं ऐसी जगह नहीं जाना होगा जहां पहुंचने की न तो उपलब्धि जी सकें न ही पहुंच जाने के दावे का उद्घोष कर सकें। इसके लिए हमें ज्ञान को विज्ञान से संवाद करना होगा। धर्म और विज्ञान के बीच के अनोन्याश्रित रिश्तों को बनाए रखना होगा। चेतना का अध्ययन आध्यात्म का विषय है इसे स्वीकार करना होगा। विज्ञान को अपनी भौतिकवादी सीमाओं का अतिक्रमण करना होगा। उसे अपार्थिव चिन्मय सत्ता का स्पर्श करना होगा। यह हठ छोड़ना होगा कि जड़ पदार्थ से ही चेतना का अविर्भाव होता है। उसे मानना होगा कि चेतना ही जड़ पदार्थ को आविष्कृत करती है। जब तक पारस्परिक और अनोन्याश्रित रिश्तों को नहीं कुबूल करेंगे, धर्म को विज्ञान के साथ नहीं स्वीकार करेंगे, तब तक जाने, पहुंचने, हासिल करने और पा लेने का कोई अर्थ नहीं होगा।