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Yogesh Mishra Special- आखिरी बार आप कब खिलखिलाकर हंसे थे?

Yogesh Mishra
Published on: 13 March 2018 10:24 PM IST
Yogesh Mishra Special- आखिरी बार आप कब खिलखिलाकर हंसे थे?
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Yogesh Mishra Special- आखिरी बार आप कब खिलखिलाकर हंसे थे?

जिंदगी में व्यक्तिगत खुशी के मौके कम हो रहे हैं। सामूहिक खुशी के अवसर टेलीविजन और मोबाइल के भेंट चढ़ गए हैं। जिंदगी निरंतर दुरूह होती जा रही है। साधनों ने जिंदगी को बेहतर तो बनाया है पर जिंदगी की दुश्वारियां बढ़ी हैं। जिंदगी को बेहतर बनाने के लिए इस्तेमाल होने वाली तकनीकी जिंदगी में नशे की तरह घर करने लगी हैं। समाज और परिवार से खुशी कब का गायब हो गई है। आपने भी शायद खिलखिलाकर हंसता हुआ शख्स बहुत दिनों से नहीं देखा होगा! आर्थिक तरक्की के दांवों के बीच हम निरंतर पिछड़ते जा रहे हैं। दुनियाभर में निराशावाद की गूंज बढ़ी है।

ब्रिटेन में सिर्फ पांच फीसदी लोग यह सोचते हैं कि दुनिया बेहतर होती जा रही है। अमेरिका में इस तरह की धारणा रखने वालों की संख्या एक फीसदी अधिक है। शंका, भय, चिंता हमारे अस्तित्व के औजार हो गए हैं। पिछले 30 सालों में दुनिया में जितनी दौलत यानी प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद बढ़ा है उतना बीते ढाई हजार साल में नहीं बढ़ा था। कार्ल माक्र्स की मृत्यु के समय तक औसत यूरोपीय व्यक्ति माक्र्स के जन्म की अपेक्षा तीन गुना अधिक धनी हो चुका था। 100-150 साल पहले यूरोप के बच्चों को जो खाना मिलता था आज एशिया और अफ्रीका के औसत बच्चों को उससे अधिक मिलता है। पहले केवल एक-चैथाई देशों में जनतंत्र था। अब दो-तिहाई देशों में जनतंत्र है।

आज हम अधिक स्वस्थ, अधिक सुरक्षित और अधिक आनंददायक जिंदगी जी रहे हैं। फिर भी आखिर क्या वजह है कि लोग पहले से अधिक शिकायत कर रहे हैं कि जिंदगी दुष्कर हो गई है, दुष्कर होती जा रही है। तरक्की का सीधा मतलब होता है कि लोग खुश रहे पर हो उल्टा रहा है। संयुक्त राष्ट्र संघ की संस्था ‘सस्टेनेबल डवलपमेंट सॉल्यूशंस नेटवर्क‘ विश्व प्रसन्नता सूचकांक जारी करती है। वर्ष 2013 में हम 111वें स्थान पर थे। अब 156वें स्थान पर आ गए हैं। अमेरिका के येल विश्वविद्यालय में खुशी के पाठ्यक्रम के लिए छात्रों का रिकार्ड पंजीकरण हुआ है। लखनऊ विश्वविद्यालय में भी ‘ह्यूमन वैल्यू और हैपीनेस सेंटर‘ खोला जा रहा है। दिल्ली सरकार ने नर्सरी से कक्षा आठ तक के बच्चों को खुशी का पाठ पढ़ाने की जिम्मेदारी ली है। पढ़ाई के जरिये प्रसन्नता की खोज हो रही है। येल विश्वविद्यालय में मनोविज्ञान और अच्छा जीवन (सॉइकलॉजी एंड द गुड लाइफ) की प्रो. लाउरी सैंटोस ने अपने अध्ययन में पाया है कि युवा इतने तनाव में हैं कि व्यक्तिगत खुशी के मौके कम हो रहे हैं। युवा पीढ़ी अजीब सी बेचैनी और छटपटाहट महसूस कर रही है। उसे लग रहा है कि जिंदगी में जो महत्वकांक्षाएं जग गई उसे हासिल करने के लिए साधन ही नहीं है।

प्रसिद्ध अर्थशास्त्री जॉन मायर्ड कींस ने वर्ष 1930 में एक लेख में लिखा था कि जैसे-जैसे हमारे पास उन्नत संसाधन विकसित होते जाएंगे। हम और अमीर होते जाएंगे। हमारा जीवन स्तर और बेहतर होता जाएगा। उन्नति के हर चरण में काम के घंटे कम होते जाएंगे। फुर्सत की अवधि बढ़ती जाएगी। लेकिन बीते 87 सालों में ऐसा नहीं हुआ। हम अपनी जरूरतों को पूरा करने में व्यस्त होते गये। हमारी महत्वकांक्षाएं अधूरी रह गईं। हमारे सपने अपना रंग खोने लगे। अति अर्जन जीवन का हिस्सा बन गया। जमाखोरी संस्कृति का अविभाज्य अंग और लोभ तथा मोह प्राणवायु हो गये हैं। भीतर से जो खुशी आती थी वह खत्म हो गई है। बाहर हमने कृत्रिम प्रसन्नता के माहौल बनाने में जीवन खपाना शुरू कर दिया है। येल विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने बताया है कि खुश रहने वाला दोस्त हमारी खुशी 9 फीसदी बढ़ा देता है। यही नहीं, जब हम दोस्त और परिवार के सदस्यों के बीच होते हैं तो खुशी बढ़ जाती है।

समस्या यह है कि अब हमारे दोस्त ‘एक्चुअल‘ नहीं ‘वर्चुअल‘ हैं। परिवार ‘न्यूकिलियर‘ है। जो हैं उनका सबसे अधिक समय टीवी और स्मार्टफोन में चला जाता है। संगठित होना मन और शरीर दोनों के लिए अच्छा है। लेकिन हम संगठित नहीं, एकत्रित हो रहे हैं। इस इक्कट्ठा होने में जुड़ाव नहीं है। जुड़ाव के साथ ही जरूरी है- ब्रिजिंग। यानी नेटवर्क। साथ ही लिंकेज। यानी एक कड़ी का दूसरी कड़ी के साथ अनुबंधन। ये तीनों हमारी जिंदगी और समाज में नदारद हैं। जिंदगी में आशावाद कुछ जिनेटिक होता है। कुछ सीखा जाता है। यह सीखना दोस्तों से होता है, परिवार से होता है, संगठित होने से होता है।

हमारी दुनिया, समाज, जिंदगी तकनीकी से पस्त हो रही है। सोशल मीडिया आपको ‘ब्रिजिंग,‘ ‘बांडिंग‘ और ‘लिंकेज‘ से अलग ले जा रहा है। समाजशास्त्री जीन ट्यिज मानते हैं कि स्मार्टफोन ने किशोर उम्र के बच्चों में दोस्तों के साथ बाहर जाने या कुछ काम करने की दिलचस्पी कम कर दी है। उनके मुताबिक जो सोशल मीडिया पर हफ्ते में 10 घंटे से ज्यादा समय बिताते हैं, उनके 56 फीसदी ज्यादा नाखुश रहने की संभावना होती है। यही नहीं, जो रोजाना 3 घंटे या उससे ज्यादा समय इन उपकरणों पर देता है उसमें आत्महत्या करने का 35 फीसदी जोखिम ज्यादा होता है। तकनीकी उद्योग पैसा कमाने की लत पैदा करता है। दिमाग में डोपेमीन वह तत्व है जो शरीरिक व मानसिक प्रक्रियाओं में शामिल होकर आनंद उत्पन्न करता है। तकनीकी उद्योग हमें अपनी ओर इस कदर आकर्षित करते हैं कि डोपेमीन से आनंद उत्पन्न करने की प्रक्रिया को बाधित हो जाए। उद्विकास (इवाॅल्यूशन) की विचारधारा दूसरों से मिलने की कोशिश और उनसे निकट संबंध बनाने के लिए आनुवंशिक आधार ढूंढती है। यह जीवन तथा प्रजनन के लिए अनिवार्य है। तकनीकी इनके अवसर निरंतर कम करती है। इसे ‘इमोशनल फोर्स‘ ही बचा पाएगी। सफलता प्रतिभा और परिश्रम के साथ ही साथ भाग्य का भी खेल है। इस समीकरण में निरंतर यह गलती हो रही है कि केंद्र का व्यक्ति अपने सामाजिक दायरे और भाग्य से तब तक विरत रहता है जब तक कि असफलता उसे दबोच कर उसकी जिंदगी से खुशी गैरहाजिर नहीं कर देती है। खुशी को अनुपस्थित नहीं कर देती है। केंद्र का व्यक्ति प्रतिभा और परिश्रम के इतना आश्रित हो जाता है कि दूसरों की सफलता में खुशी के एहसास की जगह उसमें प्रतिस्पर्धा और ईष्या घुस जाती है। खुशी के जो अवसर हमारी जिंदगी, समाज और परिवार में होते हैं वो उसके हाथ से निकलते जाते हैं। वो हर वर्ष इसका स्यापा पीटता है कि जिंदगी बोझ और बदतर होती जा रही है। पर जिम्मेदार तत्व नहीं तलाश पाता। जिम्मेदार तत्वों से अवकाश नहीं ले पाता।

Yogesh Mishra

Yogesh Mishra

Founder & Editor in Chief - Newstrack.com & Apnabharat.org

Journalism for Yogesh Mishra is not a profession but a mission. In his career, spanning over 26 years, he has served just not as journalist but an educationist and literary as well. Looking at journalism as an instrument of change, he has also highlighted corruption and problems faced in various sectors like education, health, water, sanitation and agriculture. The exposes to his credit which deserve mention include largest tax evasion in the country by Hasan Ali and the fraud committed by 25 Indians, while he was working for the Outlook magazine as the UP Bureau Head. The amount involved was whopping Rs 18,000 crores. He was the first to report the PMO’s involvement in the ‘2G Spectrum Scam’, during the UPA regime. Another commendable work by him is exposing the Commonwealth Games Scam along with the video footage of a meeting before the beginning of the tournament. The issue of banning the video is sub judice. His news item, “Uttar Pradesh ke sau gaon bhi Nirmal Gram Pusaraskar ke layak nahi” exposed how the state government wrongly claimed prizes for 1,269 villages. It led to the cancellation of the prizes. Even UNICEF research testified and led to discontinuation of the NIRMAL GRAM AWARDS. He is, presently Member of Fee Review committee set up by the government of Uttar Pradesh to fight menace of arbitrary fee structure in private schools across the state. Many of his suggestions concerning electoral reforms have been adopted and implemented by the Election Commission of India. He was a member of the ‘Navoday Vidyalaya Samiti’, review committee constituted by Govt. of India for the implementation of Sarv Siksha Abhiyaan in UP. Besides writing in national and international newspapers and magazines, he has taken up teaching assignments and served as a visiting faculty in about a dozen universities. Author of ten books, he has also received prestigious Madhu Limaye and Yash Bharti awards. His new goal is to set up a new media house. A beginning has been already made as he has launched a multi-lingual news portal and a weekly magazine, Apna Bharat.

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