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कहानीः नगीने वाली अंगूठी
गुरदयाल सिंह
उस रात की तरह आज भी मोहन को नींद नहीं आ रही थी। सिर घुमाकर देखा, पड़ोसी मकानों की छतों पर चारपाइयाँ बिछी हुई थीं, लेकिन किसी चारपाई के नीचे किसी के भी लंबे बाल बिखरे दिखाई नहीं देते थे और न ही किसी का माथा खिली कपास की तरह चमक रहा था। तभी मोहन को कटे खाए बेर जैसा पीले रंग का चाँद जोहड़ के पीछे पीपल के खडख़ड़ाते पत्तों के पीछे उभरता दिखाई दिया। साथ ही छत की मुँड़ेर से श्मशान घाट की समाधि के किनारे चमकते से दिखाई देने लगे। पीपल के पार सूने खेतों में गीदड़ हुँकार रहे थे, जिनकी अपशकुनी आवाजें भयंकर खामोशी को चीरती आकाश में बिखर रही थीं।
रात बहुत उदास थी। तीन साल पहले भी मोहन को इसी तरह रात में नींद नहीं आई थी। ऐसी ही रात थी—पीला चाँद, पीपल के खडख़ड़ाते पत्ते, सूने खेतों में बोलते गीदड़। लेकिन वह रात आज की रात से कहीं भिन्न थी। उस रात साथवाली छत पर सो रही भानो के काले केश तकिए से नीचे हवा में लहलहा रहे थे। उसका माथा भी कपास के फूल सा चमक रहा था और वे दो आँखें। देर रात तक मोहन से खामोश-रहस्यमयी बातें करती रही थी। हवा का झोंका आया, दाईं तरफ की छत की खाट पर बिछी सफेद चादर का पल्ला उडक़र किसी के मुँह पर आ गिरा। मोहन ने देखा, भानो का बड़ा भाई सो रहा था। चादर जोर से मुँह पर आ गिरने से भी वह न हिला, न ही जागा।
मोहन को तभी ठंड सी महसूस हुई और उसने खेस ओढ़ लिया, चाँदनी मद्धम पडऩे लगी थी। तारों की टिमटिमाहट बुझती हुई चिनगारियों सी महसूस हुई। धीरे-धीरे आकाश पर गहरी कालिख बढ़ती गई और उस कालिख में पीला चाँद डूबने लगा। जैसे बरसात में जोहड़ के छोर पर छोड़ी गई उसकी कागज की नाव कुछ दूरी पर जाकर डूब जाया करती थी।
उस दिन शाम को वह घर लौटा तो उसकी भाभी ड्योढ़ी में चरखा कात रही थी। आंख बचाकर वह चुपके से अंदर खिसक गया। भूसेवाली कोठड़ी में छुपाकर रखी गेहूँ की तीलों में से एक निकालकर वह हारे में रखी हाँड़ी के पास चला गया। हाँड़ी का ढक्कन एक तरफ करके उसने तीले का एक सिरा दूध में डुबोया और दूसरा सिरा मुँह में लेकर दूध पीने लगा। मलाई की मोटी परत उसने कहीं से भी हिलने नहीं दी। भरपेट दूध पीकर उसने हाँड़ी को ढका और तीला वहीं भूसे की कोठरी में छिपा दिया। कोठरी से लौटते समय उसने अपनी नई फूट रही मूँछों पर हाथ फेरा, फिर खँखारा। अब उसके होंठ मुसकरा रहे थे।
‘ऐसे चोरी से, किसी की कमाई का दूध पीकर तुम पहलवान नहीं बनोगे।’ भाभी की आवाज सुनकर दीवार थामे वह वहीं रुका रहा। लेकिन भाभी आज नहीं रुकी और उसे चुनौती देते बोली, ‘लाज-शरम हो तो अपनी कमाई का दूध पीकर देखो। तुम पाँच हाथ लंबे जवान हो, चलते हो तो धरती काँपती है, ऐसे हराम का खाते-पीते शर्म नहीं आती।’
भाभी की जली-कटी तो वह रोज सुनता था, लेकिन ‘अपनी कमाई और हराम का खाना-पीना’ जैसे कटु और असहाय शब्द उसने आज ही सुने थे। एक पल के लिए मोहन की आँखें जमीन पर गड़ी रहीं, परंतु अधिक देर तक वह वहां रुक नहीं पाया, ऐसे लगा जैसे किसी ने छाती में भाला चुभो दिया हो। भाभी के कुछ और कहने से पहले वह जल्दी से बाहर निकल गया।
रात गए जब मोहन घर लौटा और चुपके से ड्योढ़ी की दीवार के साथ लगी लकड़ी की सीढ़ी से ऊपर चढऩे लगा, आंगन में बिछी खाटों पर उसके भाभी-भाई तथा भतीजे-भतीजियाँ लेटे हुए थे। भीतर आते समय उसने भाभी की धीमी आवाज भी सुन ली थी। ऐसे लगता था, जैसे सभी गहरी नींद में सो रहे हों और वह ऊपर जाकर खाली चारपाई पर लेट गया।
‘यह झगड़ा तो जल्दी निबटाना पड़ेगा।’ लेटते ही उसने भाभी की आवाज सुनी। ‘ऐसे शहजादों की आंखें तभी खुलती हैं, जब कोई उन्हें सांझी भी नहीं रखता और दर-दर की खाक छाननी पड़ती है। हांड़ी में से चोरी का दूध पीना तब याद आता है। दिन-रात काले बैल की तरह कमाएँ हम और खाए यह, सोढी साहिब। क्यों पाँच सौ बीघे का मालिक है न।’ मोहन के भाई ने आज पहले की तरह उसे कुछ कहने से नहीं रोका। अपना स्वाभाविक वाक्य भी नहीं दोहराया, ‘अरे बचपन से पाला-पोसा है। इसे ब्याहकर अपना भार उतार दें, फिर सब हो जाएगा।’
मोहन के पांवों के तलवे जलने लगे। उसकी आंखों के आगे अंधेरा छा रहा था, लेकिन जब उसने सिर घुमाकर दाईं तरफ कोठे की छत पर देखा, तो भानो का चमकता माथा और तकिए के नीचे लहलहाते बालों की लटें देखकर वह एक पल के लिए सबकुछ भूल गया। न जाने क्यों, भानो सोते समय अपने बाल हर रोज यों ही बिखेर लेती थी। दाईं आँख के ऊपर पड़े चौथ के चाँद जैसे निशान में चमक पडऩे लगी। उसने माथे पर हाथ फेरा और एक लंबी सांस लेकर मुंह दूसरी ओर घुमा लिया। लेकिन कसक बढऩे लगी थी। वह रातभर सो नहीं पाया। सुबह मुरगे ने बांग दी, उसकी पड़ोसन संती चक्की पीसने लगी, तो वह उठकर बैठ गया। शरीर में थकान थी, तभी अधिक देर नहीं बैठ पाया और फिर लेट गया। उसका माथा चकरा रहा था।
जब दिन निकला, आसपास के घरों के बच्चे शोर मचाने लगे तो वह हड़बड़ाकर उठ बैठा। आँखें मलकर इधर-उधर देखा। लोग अपने कामों पर जा रहे थे और भाभी भी। चुपके से वह नीचे उतरा। आँगन में झाड़ू देती भाभी ने उसे चाय के लिए नहीं पुकारा। वह स्वयं भी रसोई में नहीं गया। बाहर गली की ओर चल दिया। गाँव से बाहर आकर देखा तो उपलों की टोकरी उठाए भानो जा रही थी। आसपास कोई नहीं था। वह रुक गया। उसके पास आकर भानो मुसकरा दी। लेकिन मोहन ने उसकी ओर नहीं देखा। सिर झुकाए धीमी आवाज में कहा, ‘मैं जा रहा हूं।’
‘नौकर?’ भानो ने मुसकराकर मजाक किया। आवाज मानो मोहन का गला फाडक़र बाहर निकल पाई थी। ‘अच्छा!’ भानो ने कहा, ‘तो छुट्टी पर आते हुए मेरे लिए नगीनेवाली अंगूठी लेते आना।’ यों मुसकराकर वह निकल गई। मोहन मुडक़र उसकी ओर देख भी नहीं पाया। उसके माथे के निशान में फिर पीड़ा सी होने लगी थी।
इसके बाद वह तीन साल तक घर नहीं आया। प्रत्येक वर्ष उसे आषाढ़ की एकादशी की रात को नींद न आती। एक पल भी सोचे बिना वह सारी रात आँखों में बिता देता। उसी तरह उनींदीं आंखों से अगले दिन वह साहिब को छुट्टी की अरजी देते गिड़गिड़ाता, ‘सर, बस एक सप्ताह, आप कहेंगे तो चार दिन में ही आ जाऊंगा।’ लेकिन जब छुट्टी मिल जाती और वह सामान बांधने लगता तो उसे भाभी की जली-कटी सुनाई देती। तभी बंधा-बंधाया सब खुल जाता।
दो साल बीते। इस तीसरे साल वह नहीं रुक सका। जब वह बिन बुलाए मेहमान की तरह अपना बिस्तर कांधे पर उठाए गांव पहुंचा तो उसे बीसियों गहिरों के बीच उपलों का वह गहीरा (जखीरा) दिखाई नहीं दिया, जिसे अपने दोस्त की तरह वह पहचान सकता था। भाभी के हाथों का पुता हुआ गहीरा! फिर जब वह घर के पास पहुंचा तो पड़ोसियों के दरवाजे के दोनों ओर सरसों का तेल बिखरा देख उसका दिल धडक़ने लगा।
भाभी ने उसे सिर-आंखों पर उठा लिया। गांव का वही पुराना प्रेम जाग उठा। यार-दोस्त उसे मिलने आए तो भी उसे अपने चारों ओर एक उजाड़ सा दिखाई देने लगा। एक महीने की छुट्टी के सात दिन बिताकर लौटने को तैयार हो गया। सब हैरान थे, पर वह रुक नहीं पाया।
आज भी एकादशी की रात थी। फर्क केवल इतना था कि एकादशी श्याम पक्ष की थी। वह सारी रात आंखों में बिताकर मुरगे के बाँग देते ही उठकर बैठ गया। सुबह की गाड़ी से उसे जाना था, स्टेशन गांव से पांच मील दूर था।
नीचे आया तो भाई उसके लिए किसी का ऊंट लेने चला गया था। भाभी उसके लिए मीठी रोटियां पका रही थी। वह धीरे से अंदर चला गया और अपनी वरदी पहनकर जब अपना सामान इकट्ठा कर रहा था तो उसकी भाभी मुसकराते हुए उसके पास आकर बोली, ‘भाभी की यह निशानी भी संभालकर रख ले।’
मोहन ने भाभी की ओर देखा। क्रोशिए से बुना सितारोंवाला रंग-बिरंगा एक रुमाल उसके हाथ में था। रुमाल से नजर हटाकर भाभी की ओर देखा तो उसकी आंखें लालटेन की मद्धम रोशनी में भी नगीनों सी चमकती दिखाई दीं। मोहन के मन में उथल-पुथल हो रही थी। देर तक वह भाभी की आंखों में नहीं देख सका। चुपके से रुमाल पकड़ टंरक में रखा और उसी में से एक हरे रंग का पतंगी कागज निकालकर भाभी को थमा दिया।
यह क्या? भाभी ने पूछा, मोहन बोला नहीं।
यह मेरे लिए लाया था क्या? भाभी ने कागज से अंगूठी निकाल हैरानी से पूछा, ‘अरे यह तो नगीनेवाली है। हाँ। अपने जीवन में यह हां पिछले तीन वर्ष में वह पहली बार बोला था। फिर वह टरक के कपड़े संभालने लगा, जिनपर गिरते आँसू उसकी भाभी नहीं देख सकी। ‘जुग-जुग जीवे मेरा ऐसा देवर।’ मुसकराते हुए भाभी ने अंगूठी बाएं हाथ की छोटी उंगली में पहन ली।