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भारतीय राष्ट्रवाद, अमरीका और राजनीतिक दांवपेंच

Dr. Yogesh mishr
Published on: 14 Nov 1993 12:15 PM IST
हजरतबल में आतंकवादियों का घेरा। पूरा एक पक्ष समाप्त। दरगाह की पवित्रता पर बहस मुसाहिबा जारी। दरगाह में फंसे लोगों को उच्च न्यायालय के  निर्देश के  तहत शाकारी, मांसाहारी जो भी भोजन चाहें, मुहैया कराया जाये। मांसाहार और दरगाह, कोई सवाल क्यों नहीं पूछता? उग्रवादियों को सुविधाएं मुहैया कराने का कानून फिर कानेन के  ये निर्देश क्यों? हजरतबल के  वर्तमान प्रकरण के  कारण ही अमरीका भी कश्मीर मसले पर खुलकर खेलने लगा है।
एक ओर अमरीका ने कश्मीर समस्या के  हल के  लिए राज्य के  विभाजन का प्रस्ताव रखा है? अमरीका कौन होता है ऐसे प्रस्ताव देने वाला? अमरीका के  पास पाक की प्रधानमंत्री बेनजीर भुट्टो भले ही सहायता के  लिए गयी हों, भले ही उसकी चैधराहट के  चबूतरे से उन्हें न्याय की नहीं सहयोग की आशा हो परन्तु ऐसी कोई आशा भारत की न तो रही है और न ही रहेगी। फिर भारत के  अंदरूनी मामलों में उसकी दखलंदाजी क्यों? क्यों वह बताना चाहता है कि कश्मीर का विभाजन किया जाये जिसमें कश्मीर घाटी और गिलगिल को स्वतंत्र राज्य बनाकर बाकी हिस्से को नियंत्रण रेखा के  आधार पर भारत और पाक को सौंपने की योजना है। इतना ही नहीं इस समस्या को तीन पक्षों की समस्या कहना कितना उचित है? अमरीका के  राष्ट्रपति बिल क्लिंटन कश्मीर की स्थिति को गृहयुद्ध की संज्ञा क्यों देते हैं? अमरीका अरब-इस्राइल वाली पूरी प्रक्रिया भारत कश्मीर सम्बन्धों के  बीच उगाना चाहता है? वह चाहता है कि कश्मीर में वह अपने व्यापारिक व सामरिक हित सिद्ध करे। भारत-पाक, अफगानिस्तान, चीन-ईरान पर वह नियंत्रण दृष्टि रख सके  और पूर्व सोवियत संघ के  कई गणराज्यांे तक उसकी पहुंच सीधे तौर पर हो जाये।
दूसरी ओर भारत में राष्ट्रवादी पार्टी का दंभ जीने और पसारने वाली भाजपा ने अमरीकी सिनेटरों वाले नौ सदस्यीय प्रतिनिधिमण्डल का स्वागत किया? यह कौन सी देशभक्ति है? क्लिंटन जो भारत के  कश्मीर के  तीन विभाजन देखना और करवाना चाहते हैं, उनके  सिनेटरों का स्वागत, यह कौन सा राष्ट्रबोध है?
तभी तो अमरीकी विदेशी उपमंत्री सुश्री राबिन राफेल ने कश्मीर के  मामले में यहां तक टिप्पणी कर डाली कि विलय पत्र का यह मतलब नहीं है कि कश्मीर हमेशा के  लिए भारत का अखण्ड भाग बन गया है। इस सम्बन्ध में किसी नतीजे पर पहुंचने से पहले वाशिंग्टन में उच्च स्तरों पर सोच-विचार होगा। राफेल के  इस बयान पर भारत की प्रतिक्रिया के  बाद भी अमरीका का यह कहना कि अमरीका कश्मीर को चिन्ता की नजर से देखता है और पूर्व जम्मू-कश्मीर के  पूरे भौगोलिक क्षेत्र को विवादास्पद क्षेत्र मानता है। फिर सिनेटरों की इस बात पर विश्वास कैसे कर लिया जाये कि क्लिंटन प्रशासन की नीति भारत अथवा किसी देश के  आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप करने की नहीं रही है।
यह कैसे स्वीकार किया जाये कि अमरीकी विदेश उपमंत्री राबिन राफेल बयान देने के  लिए अधिकृत नहीं हैं? कैसे माना जाये कि राफेल का यह व्यक्तिगत बयान है? और अगर है तो किसी भी जिम्मेदार पद पर इतने गैर जिम्मेदाराना बयान देने वाले व्यक्ति को बनाये रखना कितना न्याय संगत है।
क्या अमरीका में सुश्री राफेल व विदेश मंत्री को अलग-अलग देखा जा सकता है? अमरीका की इस हरकत से यह निष्कर्ष निकालना चाहिए कि सुश्री राफेल ने भारत के  साथ होने वाली किसी गम्भीर कार्रवाइ की ओर अनजाने में संके त कर दिया है और जअ अमरीका इससे ध्यान हटाने के  लिए ना-नुकुर का स्वांग रच रहा है। राफेल के  बयान के  बाद अमरीका से हुई वार्ता को अमरीका में भारत के  राजदूत सिद्धार्थ शंकर राय ने सार्थक व रचनात्मक के  स्वहितपोषी द्वैत, विशिष्टाद्वैत अर्थ हैं क्योंकि आपरेशन ब्लू स्टार के  पहले संत भिण्डरवाला से सार्थक व रचनात्मक बातचीत कांग्रेस की होती थी। कश्मीर में उग्रवादियों से सार्थक व रचनामक बातचीत का ही परिणाम था हजरतबल दरगाह से उग्रवादियों के  आत्मसमर्पण की सम्भावना। अयोध्या में ढांचा ढहने के  पूर्व भी के न्द्र व राज्य सरकार में सार्थक व रचनात्मक बातचीत जारी थी। कहीं उसी कड़ी में राय और अमरीकी विदेश मंत्रालय के  राजनीतिक मामलों के  अवर सचिव पीटर टार्नआॅफ की वार्ता तो नहीं है?
अमरीकी सिनेटर स्टविन मोर्स का कहना कि पाकिस्तान अगर भारत के  खिलाफ आतंकवादी गतिविधियों में संलग्न है, जैसी शिकायतें होती रहती हैं, तो यह गम्भीर मसला है। मोर्स के  इस अबोधता को क्या कहें कि उन्हें यह भी नहीं पता है कि अमरीका ही वह देश है जिसने पाक को आतंकवादी देश घोषित करने के  लिए धमकी दी थी। अगर मोर्स को यह पता नहीं है तो उन्हें राबिन राफेल के  बयान पर कुछ भी बोलने का हक नहीं रह जाता है और इससे शर्मनाक बात और क्या हो सकती है कि इस तरह की हरकतें करने वाले, भारत को बांटने के  षंड्यंत्र में शरीक देश के  सिनेटर से अयोध्या जैसे महत्वपूर्ण व संवेदनशील मुद्दे पर किसी स्वघोषित राष्ट्रवादी पार्टी का प्रदेश अध्यक्ष बात करे। अयोध्या हमारे सांस्कृतिक व सामाजिक जीवन का एक ऐसा राजनीतिक हथियार हो गया है जिससे हमारी साझी संस्कृति, हमारी भारतीयता, हमारी शान्ति, सौहार्द का संदेश देने में अग्रणी होने की ऐतिहासिकता छिन्न-भिन्न है, होती है और होते रहने की सम्भावना है।
भाजपा ने क्यों और कैसे अयोध्या मुद्दे पर उन्हें वार्ता का अवसर दिया? कहां गया उसका राष्ट्रवादी बोध? लालजी टंडन किस राष्ट्रवाद के  तहत इस शिष्टमण्डल को अयोध्या ले गये? जो अमरीका अपने विदेश उपमंत्री राबिन राफेल के  बयान पर किनारा कर ले उससे भ्रम की स्थितियां दूर करवाने के  लिए चैधराहट करवाना कितना जरूरी है?
भाजपा नेता जिस तरह अमरीकी प्रतिनिधि मण्डल को सफाई पेश कर रहे थे उससे लगा जैसे अमरीका को दी गयी अपनी किसी जवाबदेही से उऋण हो लेना चाहती है-भाजपा। के न्द्र सरकार हजरतबल में कार्रवाई नहीं कर रही है। यह बात बताने, रखने और करवाने का दबाव डालने के  लिए हमारे यहां संसद नाम से एक पंचाट है फिर इन गोरों की चैधराहट क्यों?
भाजपा ने ऐसा पहली बार नहीं किया है, इससे पहले भी जब कल्याण सिंह मुख्यमंत्री थे तो भाजपा के  प्रतिनिधिमण्डल से अमरीकी प्रतिनिधिमण्डल अयोध्या मसले पर वार्ता कर चुका है? क्या इससे यह निष्कर्ष नहीं जुटाया जाना चाहिए कि जिस तरह भारत की वामपंथी पार्टियां साम्यवादी स्तम्भ रूस के  प्रति स्वयं को जवाबदेह मानती थीं उसी तरह दक्षिणपंथी पार्टी भाजपा कहीं पूंजीवाद के  लौह स्तम्भ अमरीका के  प्रति स्वयं को जवाबदेह तो नहीं मानती है? कहीं यह उसी जवाबदेही का एक उदाहरण तो नहीं हैं?
भारत के  खिलाफ कभी अमरीका सुपर 301 दागना चाहता है, कभी डंके ल का डंक धसाना चाहता है, कभी परमाणु अप्रसार संधि के  जाल में भारत को फंसाना चाहता है। इसकी चिन्ता किसी राजनीतिक दल को नहीं है। इसलिए तो इस सरकार के  पूरे कार्यकाल में विदेश नीति पूरी तरह नपुंसक और बांझ बनी रही। ऐसी स्थिति में जब पूरी दुनिया में समाजवादी गढ़ इतिहास में विलीन हो गये और उनका स्थान पूंजीवादी विकल्पों ने ले लिया फिर दिनेश सिंह जैसे व्यक्ति को विदेशी मंत्री बनाना कहां तक न्याय संगत है? इससे पहले जब दिनेश सिंह विदेश मंत्री रहे तब उनकी भूमिका समाजवादी खेमों से अच्छी रिश्तांे के  लिए खासी चर्चित भी रही है फिर उसके  ठीक विपरीत स्थिति में भी वही दिनेश सिंह? क्या यह एक नीति को नपुंसक और बांझ बनाने की तैयारी नहीं है?
हजरतबल में जो भी कुछ हो रहा है उसको कराकर सर्वश्रेष्ठ व सर्वमान्य राजनीतिज्ञ बनने की राज्य गृहमंत्री राजेश पायलट की योजना ही बढ़ते कश्मीर संकट के  लिए दोषी है। यह साफ हो गया। इससे यह बात भी साफ हो ही गयी कि प्रधानमंत्री ने अपने मंत्रिमंडल में किस-किस तरह के  सहयोगी रख छोड़े हैं और वे लोग अपना कद बढ़ाने के  लिए कौन-कौन से तरीके  अख्तियार करने पर अमादा हैं। इन्होंने कश्मीर के  आतंकवादी संगठनों के  प्रमुख लोगों व रहनुमाओं कके  साथ वार्ता के  अवसर का वही प्रयोग किया जो इंदिरा गांधी ने भिण्डरवाला के  साथ किया था? या भिण्डरवाला ने इन्दिरा गांधी के  साथ। फिर भिण्डरवाला के  लिए आपरेशन ब्लू स्टार कराना पड़ा। हजरतबल पर चुप्पी क्यों? खुफिया विभाग का यह कहना कि राजेश पायलेट से बातचीत के  लिए उग्रवादी संगठनों के  कई लोग दिल्ली भी गये ये सारी स्थितियां आपरेशन ब्लू स्टार की ओर ले जा रही हैं।
यह घटना चाहे जैसी भी हो परन्तु राजनीतिज्ञों द्वारा किये जा रहे उन षड्यंत्रों की ओर इशारा तो करती ही हैं जिसमें सत्ता में बने रहने के  लिए कुछ भी कर गुजरना पड़े तो अन्याय, गलत, अस्वीकार्य नहीं है। हमारी राजनीति में राष्ट्रवादी पार्टी का अमरीका जैसे देश के  प्रतिनिधिमण्डल को अपनी सफाई देना फिर भी स्वयं को राष्ट्रवादी कहते रहना तथा हजरतबल में संकट खड़ा करना फिर उसे हल करवाकर कद बढ़ाना जैसा कुछ भी करना सही है।
अब तो साफ होता जा रहा है कि अगर एक ओर कांग्रेस अमरीका के  सामने सत्ता बनाये रखने के  लिए अपनी आर्थिक सम्प्रभुता गिरवीं रखना चाह रही है और कोशिश भी कर रही है तो दूसरी ओर भाजपा अमरीका को हमारे घरेलू मुद्दों के  लिए आमंत्रण दे रही है ये दोनों पथ गलत हैं। क्योंकि बिल्लियों के  झगड़े में बंदर पूरी रोटी चट कर गया और फिर बिल्लियों के  हिस्से में मिला शून्य। वैसे यह भी सम्भव है कि हम शून्य की सार्थक व दार्शनिक व्याख्या कर लें परन्तु जब तक हम ऐसी स्थिति प्राप्त करेंगे तब तक हमारी पंचायत पर बैठे पंच हमें मानसिक औपनिवेशिकता का शिकार बना चुके  होंगे।
Dr. Yogesh mishr

Dr. Yogesh mishr

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