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मनमोहनी अर्थतंत्र का सच
जनप्रिय बजट बनाने की फिराक में जुटे वित्त मंत्री ने सभी अप्रिय घोषणाएं करके आम उपभोक्ता वस्तुओं चीनी, चावल, गेहूं, डीजल, पेट्रोल सभी की कीमतों में बढ़ोत्तरी कर दी है। ठीक बजट की पूर्व कीमतों मंे बढ़ोत्तरी ने बजट के औचित्य पर सवाल तो खड़ा किया ही साथ ही साथ नई आर्थिक नीति से किसी भी सुधार की संभावना को ठेस पहुंचती है।
आम उपभोक्ता वस्तुओं की कीमतें बढ़ाकर उन पर दिये जाने वाले सारे अनुदान को विश्व बैंक के दबाव के तहत समाप्त कर दिया गया है। अपने चुनावी घोषणा पत्र में कीमतों को सौ दिनों के अंदर पुरानी स्थिति पर लाने का दावा करने वाली पार्टी को नयी आर्थिक नीति के नाम पर देश के तुगलकी संसोधन करने की खुली छूट मिल गयी है। फिर भी वित्त मंत्री मनमोहन सिंह अभी तक जनता के भले के लिए कुछ भी नहीं कर पाए हैं। सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी को छोड़कर मनमोहन सिंह के आर्थिक सुधारों से कोई भी वर्ग संतुष्ट नहीं है। प्रधानमंत्री नरसिंह राव ने वित्त मंत्री की बौद्धिकता और आर्थिक समझ के जो दावे किये थे, उसके कोई अच्छे परिणाम अभी तक देखने को नहीं मिले हैं। प्रतिभूति घोटाले में कम से कम पचास अरब रूपए मध्यवर्गीय बचत के डूब गये। ढाई वर्ष के सुधार कार्यक्रम के बाद आज अर्थव्यवस्था में बदलाव के कोई लक्षण नहीं दिख रहे हैं। देशी उद्यमशीलता को पनपने के लिए कोई अवसर नहीं मिल पा रहा है।
नई आर्थिक नीति का कोई विकल्प नहीं है। संसाधनों की कमी के कारण विदेशों से कर्ज लेने के अलावा कोई रास्ता नहीं है। दुनिया से अलग-थलग न पड़ जाए इसके लिए गैट में शामिल होने के सिवाय कोई अन्य विकल्प नहीं है। पिछले ढाई वर्ष से इस तरह के दावों की आड़ में मनमोहन सिंह जो भी करते हैं, उन्हें चुनौतियां मिलने लगी हैं। एक चुनौती तो उनके सुधारांे को तब मिली थी, जब शेयर घोटालों का पर्दाफाश हुआ था। वित्तमंत्री के आर्थिक सुधारों के बाद भी मूडीज तथा स्टैण्डर्ड एण्ड पूअर्स नामक एजेंसियों ने भारत की विश्वसनीयता का ग्राफ अभी अभिमुख नहीं किया है।
वित्त मंत्री के सुधारों के कुप्रभाव से चिंतित लोगों ने वैकल्पिक अर्थनीति तैयार समिति (पीसीएईपी) गठित कर ली। इस समिति का जो विकल्पहीनता के दुष्प्रचार का खंडन करना है। यह समिति 13 फरवरी, 94 को गांधी शांति प्रतिष्ठान में बजट पेश करेगी। जिसका एकमात्र उद्देश्य यह बताना है कि देश के पास अपने संकट हल करने के लिए पर्याप्त संसाधन मौजूद हैं।
वित्तमंत्री आर्थिक नीतियों पर फ£ करते हुए बताते हैं कि उन्होंने मुद्रास्फीति को नियंत्रित किया। विदेशी मुद्रा भंडार बढ़ाया। विदेशी व्यापार में वृद्धि की एवं विदेशी निवेशकों से प्रस्ताव प्राप्त किये। भुगतान संतुलन की प्रतिकूलता कम की। जबकि भारत के भुगतान संतुलन के अनुकूल होने के पीछे वित्त मंत्री के किसी करिश्मे का प्रभाव नहीं है। वरन कच्चा तेल एवं उसके उत्पादों के मूल्यांे में अठारह डालर प्रति बैरल से 13 डालर प्रति बैरल कमी एक मात्र कारण है, जिसका लाभ भारत को मिला। क्योंकि भारत के प्रतिकूल भुगतान संतुलन का यह एक ठोस कारण था।
पेट्रोल उत्पादक देशों के मूल्य वृद्धि हेतु तमाम असफल प्रयासों के बाद भी हमारे यहां पेट्रोल एवं डीजल के मूल्यों में बढोत्तरी कर दी जाती है और वह भी इस तर्क के साथ कि इस कीमत पर सरकार को परता नहीं खा रहा है। जबकि इस तर्क की आड़ लेकर सितम्बर 1992 में भी पेट्रोल एवं डीजल के मूल्यों में बढोत्तरी की गयी थी। चालू वित्तीय वर्ष में कोयले व इस्पात के दाम बढ़े। इसके पीछे यह तर्क दिये गये कि इनका लागत खर्च बढ़ गया है। इसी तर्क के तहत रेल के किराये एवं माल भाड़े में भी वृद्धि की गयी। बिजली की दरें बढ़ा दी गयीं। ईंधन के भाव बढ़े, अनाज के समर्थन मूल्य बढ़ाये गये। अनाज में 8.8 प्रतिशत की ब्याज की कीमतों में 400 प्रतिशत की, दाल में लगभग में 40 प्रतिशत की, बिजली की दरों में 37 प्रतिशत से अधिक, तिलहनों में 0.5 प्रतिशत, चीनी के भाव में 30 प्रतिशत, कपड़े की कीमतों में 10 प्रतिशत, इस्पात 9 प्रतिशत, रासायनिक पदार्थ लगभग 5 प्रतिशत महंगे हुए। जिसके परिणामस्वरूप रहन-सहन का व्यय 10.7 प्रतिशत बढ़ा। फिर भी वित्तमंत्री का दावा है कि मुद्रास्फीति की दर पर अंकुश है। खाद्यान्नों के मूल्यों में यह वृद्धि तब है जबकि पिछले पांच वर्षों से लगातार अच्छी वर्षा के कारण फसल अच्छी हो रही है और अनाज का उत्पादन अठारह करोड़ टन बढ़ा है। पिछला बजट पेश करते हुए वित्तमंत्री ने कहा था कि मुद्रास्फीति की दर जो अगस्त, 1991 में 16.5 प्रतिशत थी, वह 8.5 प्रतिशत आ गयी है। विदेशी मुद्रा कोष 1.6 बिलियन डाल से 6 बिलियन डालर पहुंच गया है। 1991 के बजट में बजट घाटा सकल घरेलू उत्पाद के 8.5 प्रतिशत था जो घटकर 5.6 प्रतिशत आ गया, लेकिन आज यह बजट घाटा सकल घरेलू उत्पाद के लगभग 7 प्रतिशत तक हो गया है। इसके बाद भी हमारे वित्त मंत्री यह दावा करते नहीं थक रहे हैं कि बजट में आम आदमी की जरूरतों को ध्यान में रखकर अर्थनीति को दिशा दी जा रही है। इस सरकार के कार्यकाल में थोक मूल्य सूचकांक में 20 प्रतिशत एवं उपभोक्ता मूल्य सूचकांक में 25 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। पिछले बजट में मुद्रास्फीति की दर जो 7.3 प्रतिशत थी, वह 8.5 प्रतिशत हो गयी है। अर्थशास्त्र के सिद्धांतों के सकल घरेलू उत्पाद में वृद्धि की दर को ही विकास का पैमाना माना जाता है, जिसमें पिछले वर्ष की तुलना में इस वर्ष 92-93 में 3.5 प्रतिशत की वृद्धि जरूर हुई है परंतु इसका श्रेय वित्तमंत्री को दिया जाना उचित नहीं है। क्योंकि 1980 में यह वृद्धि 6 प्रतिशत के आसपास थी और 1988 में सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि दर 10 प्रतिशत थी और 80 के दशक में सरकार ने यह दावा किया था कि भारत में आर्थिक सुधारों के परिणाम संतोषजनक हैं और हमें विश्वबैंक से कर्ज लेेने की जरूरत नहीं हैं। इसके बाद भी 1981 में अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष से पांच बिलियन डालर (एसडीआर)ऋण लिया गया। यह ऋण इतना अनौचित्पूर्ण था कि भारत सरकार को सारी कार्रवाई गोपनीय ढंग से करनी पड़ी थी। उसी तर्ज पर पुनः अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष से ऋण की आशा जारी है।
गैट समझौता स्वीकार करने की विवशता हमारे वित्तमंत्री ने देश के सामने खड़ी कर दी है। गैट समझौता स्वीकार करने से बौद्धिक सम्पदा अधिकारों के पेटेंटीकरण ट्रीप्स अनुबंध की धारा-65 के तहत आगामी दस वर्षों में प्रक्रिया पेटेंट के साथ-साथ उत्पाद पेटेंट भी स्वीकार करना पड़ेगा, जिससे औषधियों एवं बीजों के मूल्यों में बेतहाशा वृद्धि होगी। अर्थशास्त्र या
पश्चिम से निकले किसी भी शास्त्र से हमारे वित्त मंत्री इतने अभिभूत हैं कि उन्हें यह भूल गया है कि भारतीय पराधीनता के मूल में आर्थिक कारण ही थे।
भारतीय बाजार अर्थव्यवस्था को तेज और विस्तारित किया जा रहा है जबकि बाजार अर्थव्यवस्था का मौलिक सूत्र है कि कोई भी पूंजीपति वहीं पूंजी लगाएगा जहां उसे अधिक लाभ की गारंटी होगी। अतः इस व्यवस्था से भारत का संकट कम होने वाला नहीं है। फिर भी हमारे वित्तमंत्री और प्रधानमंत्री दोनों बाजार अर्थव्यवस्था की संकल्पना पर जोर दे रहे हैं। अपने हाल की विदेशी यात्रा के दौरान प्रधानमंत्री ने हम्बोट विश्वविद्यालय में दिये गये अभिभाषण में मैक्समूलर की आड़ लेकर बाजार अर्थव्यवस्था की वकालत करने का कमजोर तर्क जरूर जुटाया है। लेकिन इससे भारतीय सामाजिक पिरामिड का निचला हिस्सा हमेशा अछूता रह जाएगा।
आर्थर लुइस ने अपनी पुस्तक ‘लेबर सरप्लस इकोनाॅमी’ में कहा है कि देश के विकास के साथ-साथ कृषि पर उसकी निर्भरता कम होती जाती है। यही विकास का सूचक है। परंतु हमारे यहां राष्ट्रीय आय में कृषि का हिस्सा 40 प्रतिशत बरकरार है। इतना ही नहीं, इस देश में बेरोजगारी की संख्या में लगातार 18 लाख वार्षिक की वृद्धि हो रही हो, वहां सार्वजनिक उपक्रमों में छंटनी जारी हो। आठवीं योजना के प्रस्ताव पत्र में यह लिखा हो कि कृषि में ही रोजगार के अवसर तलाशने होंगे। औद्योगिक क्षेत्र में तो छंटनी की ही संभावना दिखती है। ऐसे में किन लक्षणों के आधार पर स्वीकार किया जाय कि देश का विकास हो रहा है।
वित्तमंत्री की बौद्धिक विकल्पहीनता को अमरीकी प्रवक्ता के इस बयान के तहत देखा जाय तो काफी कुछ स्पष्ट हो जाता है। डाॅ. सिंह का इस्तीफा मंजूर करने का अर्थ है भारतीय प्रधानमंत्री का अपने सर्वाधिक सक्षम सेनापति को अलग करना। पश्चिमी शास्त्रों से अभिभूत लोग भारतीय समस्याओं का निराकरण नहीं कर सकते हंै। यह बात पिछले ढाई वर्षों से अर्थव्यवस्था के साथ लगातार हो रहे प्रयोगों से साफ हो उठी है। इंकाई नेताओं के दिमाग से मनमोहन सिंह की बौद्धिकता का भूत भले ही न उतरा हो परंतु आम जनता उनके प्रयोगों के परिणामों से सशंकित है। तभी तो नागरिक बजट बनाकर देश के बौद्धिक एवं सचेतक नागरिकों ने मनमोहन सिंह और के न्द्र सरकार के सामने खड़े होने का साहस किया। मनमोहन सिंह बजट बनाने की प्रक्रिया में जुटे हैं और चाहते हैं कि आगामी बजट को जनता पर बोझ डालने वाला न कहा जाय। इसीलिए तो उन्होंने उपभोक्ता वस्तुओं पर बजट पूर्व बेतहाशा मूल्य वृद्धि की है। मनमोहन सिंह चाहते हैं कि साफ सुथरा बजट पेश करके अंतर्राष्ट्रीय सम्मान जीतें तथा श्रेष्ठ वित्तमंत्री होने की उनकी उपलब्धि पर इंकाई नेतृत्व इतराता रहे। परंतु नागरिक बजट ने मनमोहन सिंह की इन सारी इच्छाओं और कथित सफलताओं के सामने एक सवालिया निशान खड़ा कर दिया है। फिर भी मनमोहन सिंह इस बार आगामी 28 फरवरी को एक सफल, साफ-सुथरा और जनप्रिय बजट मनाने में सफल होते दिखेंगे, जिससे गरीबी हटाओ के नारे पर चुनाव जीतकर शासन कर चुकी पार्टी इतराएगी। गर्वोक्ति करेगी।
आम उपभोक्ता वस्तुओं की कीमतें बढ़ाकर उन पर दिये जाने वाले सारे अनुदान को विश्व बैंक के दबाव के तहत समाप्त कर दिया गया है। अपने चुनावी घोषणा पत्र में कीमतों को सौ दिनों के अंदर पुरानी स्थिति पर लाने का दावा करने वाली पार्टी को नयी आर्थिक नीति के नाम पर देश के तुगलकी संसोधन करने की खुली छूट मिल गयी है। फिर भी वित्त मंत्री मनमोहन सिंह अभी तक जनता के भले के लिए कुछ भी नहीं कर पाए हैं। सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी को छोड़कर मनमोहन सिंह के आर्थिक सुधारों से कोई भी वर्ग संतुष्ट नहीं है। प्रधानमंत्री नरसिंह राव ने वित्त मंत्री की बौद्धिकता और आर्थिक समझ के जो दावे किये थे, उसके कोई अच्छे परिणाम अभी तक देखने को नहीं मिले हैं। प्रतिभूति घोटाले में कम से कम पचास अरब रूपए मध्यवर्गीय बचत के डूब गये। ढाई वर्ष के सुधार कार्यक्रम के बाद आज अर्थव्यवस्था में बदलाव के कोई लक्षण नहीं दिख रहे हैं। देशी उद्यमशीलता को पनपने के लिए कोई अवसर नहीं मिल पा रहा है।
नई आर्थिक नीति का कोई विकल्प नहीं है। संसाधनों की कमी के कारण विदेशों से कर्ज लेने के अलावा कोई रास्ता नहीं है। दुनिया से अलग-थलग न पड़ जाए इसके लिए गैट में शामिल होने के सिवाय कोई अन्य विकल्प नहीं है। पिछले ढाई वर्ष से इस तरह के दावों की आड़ में मनमोहन सिंह जो भी करते हैं, उन्हें चुनौतियां मिलने लगी हैं। एक चुनौती तो उनके सुधारांे को तब मिली थी, जब शेयर घोटालों का पर्दाफाश हुआ था। वित्तमंत्री के आर्थिक सुधारों के बाद भी मूडीज तथा स्टैण्डर्ड एण्ड पूअर्स नामक एजेंसियों ने भारत की विश्वसनीयता का ग्राफ अभी अभिमुख नहीं किया है।
वित्त मंत्री के सुधारों के कुप्रभाव से चिंतित लोगों ने वैकल्पिक अर्थनीति तैयार समिति (पीसीएईपी) गठित कर ली। इस समिति का जो विकल्पहीनता के दुष्प्रचार का खंडन करना है। यह समिति 13 फरवरी, 94 को गांधी शांति प्रतिष्ठान में बजट पेश करेगी। जिसका एकमात्र उद्देश्य यह बताना है कि देश के पास अपने संकट हल करने के लिए पर्याप्त संसाधन मौजूद हैं।
वित्तमंत्री आर्थिक नीतियों पर फ£ करते हुए बताते हैं कि उन्होंने मुद्रास्फीति को नियंत्रित किया। विदेशी मुद्रा भंडार बढ़ाया। विदेशी व्यापार में वृद्धि की एवं विदेशी निवेशकों से प्रस्ताव प्राप्त किये। भुगतान संतुलन की प्रतिकूलता कम की। जबकि भारत के भुगतान संतुलन के अनुकूल होने के पीछे वित्त मंत्री के किसी करिश्मे का प्रभाव नहीं है। वरन कच्चा तेल एवं उसके उत्पादों के मूल्यांे में अठारह डालर प्रति बैरल से 13 डालर प्रति बैरल कमी एक मात्र कारण है, जिसका लाभ भारत को मिला। क्योंकि भारत के प्रतिकूल भुगतान संतुलन का यह एक ठोस कारण था।
पेट्रोल उत्पादक देशों के मूल्य वृद्धि हेतु तमाम असफल प्रयासों के बाद भी हमारे यहां पेट्रोल एवं डीजल के मूल्यों में बढोत्तरी कर दी जाती है और वह भी इस तर्क के साथ कि इस कीमत पर सरकार को परता नहीं खा रहा है। जबकि इस तर्क की आड़ लेकर सितम्बर 1992 में भी पेट्रोल एवं डीजल के मूल्यों में बढोत्तरी की गयी थी। चालू वित्तीय वर्ष में कोयले व इस्पात के दाम बढ़े। इसके पीछे यह तर्क दिये गये कि इनका लागत खर्च बढ़ गया है। इसी तर्क के तहत रेल के किराये एवं माल भाड़े में भी वृद्धि की गयी। बिजली की दरें बढ़ा दी गयीं। ईंधन के भाव बढ़े, अनाज के समर्थन मूल्य बढ़ाये गये। अनाज में 8.8 प्रतिशत की ब्याज की कीमतों में 400 प्रतिशत की, दाल में लगभग में 40 प्रतिशत की, बिजली की दरों में 37 प्रतिशत से अधिक, तिलहनों में 0.5 प्रतिशत, चीनी के भाव में 30 प्रतिशत, कपड़े की कीमतों में 10 प्रतिशत, इस्पात 9 प्रतिशत, रासायनिक पदार्थ लगभग 5 प्रतिशत महंगे हुए। जिसके परिणामस्वरूप रहन-सहन का व्यय 10.7 प्रतिशत बढ़ा। फिर भी वित्तमंत्री का दावा है कि मुद्रास्फीति की दर पर अंकुश है। खाद्यान्नों के मूल्यों में यह वृद्धि तब है जबकि पिछले पांच वर्षों से लगातार अच्छी वर्षा के कारण फसल अच्छी हो रही है और अनाज का उत्पादन अठारह करोड़ टन बढ़ा है। पिछला बजट पेश करते हुए वित्तमंत्री ने कहा था कि मुद्रास्फीति की दर जो अगस्त, 1991 में 16.5 प्रतिशत थी, वह 8.5 प्रतिशत आ गयी है। विदेशी मुद्रा कोष 1.6 बिलियन डाल से 6 बिलियन डालर पहुंच गया है। 1991 के बजट में बजट घाटा सकल घरेलू उत्पाद के 8.5 प्रतिशत था जो घटकर 5.6 प्रतिशत आ गया, लेकिन आज यह बजट घाटा सकल घरेलू उत्पाद के लगभग 7 प्रतिशत तक हो गया है। इसके बाद भी हमारे वित्त मंत्री यह दावा करते नहीं थक रहे हैं कि बजट में आम आदमी की जरूरतों को ध्यान में रखकर अर्थनीति को दिशा दी जा रही है। इस सरकार के कार्यकाल में थोक मूल्य सूचकांक में 20 प्रतिशत एवं उपभोक्ता मूल्य सूचकांक में 25 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। पिछले बजट में मुद्रास्फीति की दर जो 7.3 प्रतिशत थी, वह 8.5 प्रतिशत हो गयी है। अर्थशास्त्र के सिद्धांतों के सकल घरेलू उत्पाद में वृद्धि की दर को ही विकास का पैमाना माना जाता है, जिसमें पिछले वर्ष की तुलना में इस वर्ष 92-93 में 3.5 प्रतिशत की वृद्धि जरूर हुई है परंतु इसका श्रेय वित्तमंत्री को दिया जाना उचित नहीं है। क्योंकि 1980 में यह वृद्धि 6 प्रतिशत के आसपास थी और 1988 में सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि दर 10 प्रतिशत थी और 80 के दशक में सरकार ने यह दावा किया था कि भारत में आर्थिक सुधारों के परिणाम संतोषजनक हैं और हमें विश्वबैंक से कर्ज लेेने की जरूरत नहीं हैं। इसके बाद भी 1981 में अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष से पांच बिलियन डालर (एसडीआर)ऋण लिया गया। यह ऋण इतना अनौचित्पूर्ण था कि भारत सरकार को सारी कार्रवाई गोपनीय ढंग से करनी पड़ी थी। उसी तर्ज पर पुनः अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष से ऋण की आशा जारी है।
गैट समझौता स्वीकार करने की विवशता हमारे वित्तमंत्री ने देश के सामने खड़ी कर दी है। गैट समझौता स्वीकार करने से बौद्धिक सम्पदा अधिकारों के पेटेंटीकरण ट्रीप्स अनुबंध की धारा-65 के तहत आगामी दस वर्षों में प्रक्रिया पेटेंट के साथ-साथ उत्पाद पेटेंट भी स्वीकार करना पड़ेगा, जिससे औषधियों एवं बीजों के मूल्यों में बेतहाशा वृद्धि होगी। अर्थशास्त्र या
पश्चिम से निकले किसी भी शास्त्र से हमारे वित्त मंत्री इतने अभिभूत हैं कि उन्हें यह भूल गया है कि भारतीय पराधीनता के मूल में आर्थिक कारण ही थे।
भारतीय बाजार अर्थव्यवस्था को तेज और विस्तारित किया जा रहा है जबकि बाजार अर्थव्यवस्था का मौलिक सूत्र है कि कोई भी पूंजीपति वहीं पूंजी लगाएगा जहां उसे अधिक लाभ की गारंटी होगी। अतः इस व्यवस्था से भारत का संकट कम होने वाला नहीं है। फिर भी हमारे वित्तमंत्री और प्रधानमंत्री दोनों बाजार अर्थव्यवस्था की संकल्पना पर जोर दे रहे हैं। अपने हाल की विदेशी यात्रा के दौरान प्रधानमंत्री ने हम्बोट विश्वविद्यालय में दिये गये अभिभाषण में मैक्समूलर की आड़ लेकर बाजार अर्थव्यवस्था की वकालत करने का कमजोर तर्क जरूर जुटाया है। लेकिन इससे भारतीय सामाजिक पिरामिड का निचला हिस्सा हमेशा अछूता रह जाएगा।
आर्थर लुइस ने अपनी पुस्तक ‘लेबर सरप्लस इकोनाॅमी’ में कहा है कि देश के विकास के साथ-साथ कृषि पर उसकी निर्भरता कम होती जाती है। यही विकास का सूचक है। परंतु हमारे यहां राष्ट्रीय आय में कृषि का हिस्सा 40 प्रतिशत बरकरार है। इतना ही नहीं, इस देश में बेरोजगारी की संख्या में लगातार 18 लाख वार्षिक की वृद्धि हो रही हो, वहां सार्वजनिक उपक्रमों में छंटनी जारी हो। आठवीं योजना के प्रस्ताव पत्र में यह लिखा हो कि कृषि में ही रोजगार के अवसर तलाशने होंगे। औद्योगिक क्षेत्र में तो छंटनी की ही संभावना दिखती है। ऐसे में किन लक्षणों के आधार पर स्वीकार किया जाय कि देश का विकास हो रहा है।
वित्तमंत्री की बौद्धिक विकल्पहीनता को अमरीकी प्रवक्ता के इस बयान के तहत देखा जाय तो काफी कुछ स्पष्ट हो जाता है। डाॅ. सिंह का इस्तीफा मंजूर करने का अर्थ है भारतीय प्रधानमंत्री का अपने सर्वाधिक सक्षम सेनापति को अलग करना। पश्चिमी शास्त्रों से अभिभूत लोग भारतीय समस्याओं का निराकरण नहीं कर सकते हंै। यह बात पिछले ढाई वर्षों से अर्थव्यवस्था के साथ लगातार हो रहे प्रयोगों से साफ हो उठी है। इंकाई नेताओं के दिमाग से मनमोहन सिंह की बौद्धिकता का भूत भले ही न उतरा हो परंतु आम जनता उनके प्रयोगों के परिणामों से सशंकित है। तभी तो नागरिक बजट बनाकर देश के बौद्धिक एवं सचेतक नागरिकों ने मनमोहन सिंह और के न्द्र सरकार के सामने खड़े होने का साहस किया। मनमोहन सिंह बजट बनाने की प्रक्रिया में जुटे हैं और चाहते हैं कि आगामी बजट को जनता पर बोझ डालने वाला न कहा जाय। इसीलिए तो उन्होंने उपभोक्ता वस्तुओं पर बजट पूर्व बेतहाशा मूल्य वृद्धि की है। मनमोहन सिंह चाहते हैं कि साफ सुथरा बजट पेश करके अंतर्राष्ट्रीय सम्मान जीतें तथा श्रेष्ठ वित्तमंत्री होने की उनकी उपलब्धि पर इंकाई नेतृत्व इतराता रहे। परंतु नागरिक बजट ने मनमोहन सिंह की इन सारी इच्छाओं और कथित सफलताओं के सामने एक सवालिया निशान खड़ा कर दिया है। फिर भी मनमोहन सिंह इस बार आगामी 28 फरवरी को एक सफल, साफ-सुथरा और जनप्रिय बजट मनाने में सफल होते दिखेंगे, जिससे गरीबी हटाओ के नारे पर चुनाव जीतकर शासन कर चुकी पार्टी इतराएगी। गर्वोक्ति करेगी।
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