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फिलहाल संकट से गुजर रही है प्रदेश कांग्रेस
उत्तर प्रदेश के अपने दौरे पर मानव संसाधन विकास मंत्री अर्जुन सिंह आलाकमान के खिलाफ बयानबाजी करने से अभी भी बाज नहीं आ रहे हैं। उन्होंने प्रदेश में कई जगहों पर कांग्रेस की जर्जर स्थिति के लिए आलाकमान को अप्रत्यक्ष रूप से दोषी ठहराया है। वैसे तो प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष को लेकर इस बार खींचातानी का माहौल गर्माया लेकिन महावीर प्रसाद के हटने के ठोस संके त अभी तक नहीं मिल पाये। इससे महावीर विरोधी खेमे में धीरे-धीरे नैराश्य बढ़ता जा रहा है। दूसरी ओर प्रदेश कांग्रेस भी पूरी तरह से अदक्ष और निरीह सी सदन और सदन के बाहर खड़ी पायी जाती है।
गत माह मुख्यमंत्री मुलायम सिंह की गोरखपुर यात्रा के समय उनके मंच पर प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष जिस तरह से चारणगिरी में मशगूल दिखे, उससे तो यही संशय गहराने लगा था कि कहीं महावीर प्रसाद मुख्यमंत्री मुलायम सिंह के साथ दलीय निष्ठा जैसा कोई आंतरिक समझौता तो नहीं कर बैठे हैं। अखबारों में भी यह खबर उछली है कि महावीर प्रसाद कहीं सपा में तो नहीं जा रहे हैं। वैसे इस संके त के मिलने के बाद से जद का एक बड़ा धड़ा मुलायम सिंह के साथ जरूर जुड़ा और सपा के प्रदेश अध्यक्ष ने भाजपाइयों के भी सपा में शामिल होने की बात कही। यह बात दूसरी है कि प्रदेश सपा अध्यक्ष की बात में कोई ठोस प्रमाण उपलब्ध नहीं थे तथा उन्होंने जो कुछ कहा उसके पीछे कोई पृष्ठभूमि नहीं दिखी।
महात्मा गांधी पर मायावती के बयान को लेकर प्रदेश कांग्रेस के लोगों में जो गुटबाजी का माहौल मुखर हुआ था, उसकी कोई सार्थक परिणति नहीं हुई। सदन के अंदर के कांग्रेसी बार-बार यह चाह रहे थे कि सरकार के विरोध में कुछ न किया जाय क्योंकि महात्मा गांधी पर की गयी टिप्पणी के विरोध का मतलब क्या था? बसपा-सपा गठबंधन पर सवाल खड़े करना और यह गठबंधन प्रदेश में अपने बूते पर सरकार बना पाने की स्थिति में नहीं है। इस कांग्रेस के समर्थन की नितांत आवश्यकता है। सुविधाभोगी कांग्रेसियों की सदन में बैठी जमात के इस विवाद में आलाकमान से आंतरिक हस्तक्षेप कराकर विजय जरूर हासिल कर ली लेकिन सदन के बाहर के कांग्रेसी अभी भी क्षुब्ध बैठे हैं। उनका मानना था कि यही एक ऐसा मौका है, जब महात्मा गांधी पर की गयी टिप्पणी को ओट बनाकर प्रदेश सरकार को दबाव में रखते हुए प्रदेश स्तर पर एक व्यापक जन जागरण का कार्यक्रम चलाया जा सकता था।
इससे एक ओर कांग्रेसियों को एकजुट होने का अवसर मिलता। साथ ही साथ महात्मा गांधी के नाम पर एक बार फिर गांधीवाद की मार्केटिंग की संभावनाएं हाथ लगतीं। यह भी सच है कि प्रदेश कांग्रेस को इस मुद्दे पर एक बार खुद को रवा करने का भी अवसर जरूर मिलता। क्योंकि पिछले चुनाव के पूर्व से ही कांग्रेस प्रदेश स्तर पर कोई ठोस कार्यक्रम प्रस्तुत नहीं कर पायी है। इसका एक बहुत बड़ा कारण प्रदेश कांग्रेस की उपेक्षा है। चूंकि प्रधानमंत्री नरसिंह राव यह जानते हैं कि प्रधानमंत्री बनने से पूर्व उप्र में उनके समान कद्दावर नेता मौजूद थे। इस चुनाव में प्रदेश में कांग्रेस के सफाये से उप्र की दावेदारी क्षीण हो गयी और नरसिंह राव के सामने व्यक्तित्व का कोई सवाल नहीं उठ पाया। नरसिंह राव के प्रधानमंत्री बनने के बाद उप्र के लब्ध प्रतिष्ठित इंकाई नेता नारायण दत्त तिवारी ने विकास यात्राओं के माध्यम से प्रदेश में एक बार अलख जगाने की कोशिश जरूर की। परंतु महावीर प्रसाद के प्रदेश अध्यक्ष होने के नाते इस आयोजन को कांग्रेस की ओर से कोई समर्थन नहीं मिल पाया और विकास यात्राओं की चरम परिणति नारायण दत्त तिवारी की छवि स्थापित करने के रूप में सिमट कर रह गयी।
यद्यपि इस छवि की स्थापना में जुटे महावीर प्रसाद समर्थक कामयाब भले ही हो गए परंतु वे कांग्रेस का हित कर पाने में कहीं भी कोई ठोस समानान्तर कार्यक्रम नहीं प्रस्तुत कर सके । विकास यात्राओं की असफलता से ऊबे नारायण दत्त तिवारी ने राजनीति से संन्यास लेने जैसी स्थिति का तानाबाना बुना। परंतु अभी हाल में छपी कुछ खबरांे में प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष बदले जाने की बात में नारायण दत्त तिवारी को बागडोर सौंपने का उल्लेख हुआ। वैसे उप्र में कांग्रेस जिन परिस्थितियों से गुजर रही है, उसमें नारायण दत्त तिवारी सरीखा नेता भी कोई करिश्मा नहीं कर सकता।
उप्र में कांग्रेस ने मुलायम सिंह सरकार को इससे पहले समर्थन देकर अपनी कब्र खोद ली थी। क्योंकि उस समय मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव की छवि एक धर्म विशेषज्ञ के विरोधी के रूप में थी और कांग्रेस के समर्थन के बाद उस कांग्रेस की छवि पर ग्रहण लगने से इंकाई स्वयं को नहीं रोक पाये, जिसका परिणाम यह हुआ कि कांग्रेस ने सीटें खोयी, उसके हाथ में वोट बैंकों का कोई भी अंश नहीं रह गया। राष्ट्रपति शासन के दौरान भी कांग्रेस के नेताओं ने अपने निजी हितों के लिए ही काम किये। कांग्रेस के उत्थान और उसमें प्राण प्रतिष्ठा किये जाने की दिशा में कोई ठोस कार्यक्रम नहीं हो पाया, जिसका खामियाजा प्रदेश में कांग्रेस को वोटों के प्रतिशत और सीटों की संख्या दोनों की कमी के साथ भुगतान पड़ा।
कांग्रेस की इन स्थितियों के लिए प्रदेश कांग्रेस का संगठन पूरी तौर पर जिम्मेदार है। क्योंकि एक ऐसी स्थिति में जब कांग्रेस विपक्ष की भूमिका के लिए संघर्षरत हो, तब उसे एक तेजतर्रार और संसदीय परम्पराओं से समृद्ध एवं जातीय समीकरणों में मजबूत व्यक्ति का चुनाव अध्यक्ष पद के लिए करना चाहिए था लेकिन इन परिस्थितियों में भी महावीर प्रसाद जैसे कमजोर और छविहीन व्यक्ति को कांग्रेस अध्यक्ष बनाये रखने के पीछे आलाकमान की पता नहीं कौन से राजनीतिक विवशता या कूटनीतिक समझ है। एक ऐसे समय जब प्रदेश में दलीय चेतना का उभार अपने चरम पर हो और उसकी भाषा बोलने के लिए एक प्रतिक्रियात्मक दल पूरी तरह से तैयार और सजग खड़ा हो। ऐसे में महावीर प्रसाद को कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में बनाए रखना कांग्रेस की हित चिंता नहीं है। कांग्रेस अध्यक्ष प्रदेश में तो क्या अपने मण्डल में भी किसी भी सीट पर कोई प्रभाव डाल पाने में पूरी तरह अक्षम हैं। इस कारण उनसे पूरे प्रदेश में सांगठनिक तौर पर कोई आशा किया जाना सर्वथा निरर्थक है। वैसे पहले भी श्री प्रसाद किसी भी वोट बैंक के प्रतिनिधि या किसी निजी और सामाजिक छवि के प्रणेता नहीं रहे। उन्हांेने कांग्रेस सरकार में कई बड़े अमले जरूर हासिल किये। परंतु इसके पीछे उनकी कोई निजी हैसियत या उपलब्धि नहीं थी। बाबरी मस्जिद/रामजन्म भूमि मुद्दे पर भी कांग्रेस की दोहरी नीति ने उसे काफी पीछे छोड़ा। एक ओर राम मंदिर का ताला खुलवाया फिर मंदिर का शिलान्यास और उसके बाद शिलान्यास को रुकवाया गया। इतना ही नहीं विवादित ढांचे को गिराते समय कांग्रेस की गहरी चुप्पी से अल्पसंख्यक समुदाय ने कांग्रेस को इस हद तक दोषी माना कि कांग्रेस के हाथ से इस समुदाय का सारा का सारा वोट बैंक पारे सरीखा सरक गया।
छह दिसंबर की घटना के आसपास अपने बुद्धिजीवी प्रधानमंत्री ने भी तमाम तरह की ऊलजलूल बातें करके हिंदू सम्प्रदाय की धार्मिक भावनाओं के साथ खिलवाड़ किया। इस तरह प्रदेश कांग्रेस ने अल्पसंख्यक समुदाय और हिन्दू वाद के नाम पर बने वोट बैंकों के साथ बारी-बारी से ज्यादतियां कीं। परिणामतः कांग्रेस अपनी कोई छवि बना पाने में सफल नहीं हो पायी। बसपा के अभ्युदय के बाद से दलित वोट बैंक कांग्रेस का साथ पहले ही छोड़ गया था और मण्डल कमीशन पर कांग्रेस की वाहवाही लूटने की सारी कोशिशों का परिणाम प्रदेश में यह हुआ कि मुख्यमंत्री मुलायम सिंह के खाते में पिछड़ा वोट बैंक चला गया। इस तरह वोट बैंक के आधार पर कांग्रेस ने प्रदेश कांग्रेस को कोई ऐसी सुविधा और स्थिति मुहैया नहीं करायी, जिससे कांग्रेस किसी वोट बैंक को अपना कह पाती।
अब उप्र के इंकाईयों में भी जंग लगी दिखने लगी है। क्योंकि एक लम्बे समय तक सत्ता सुख जीने के नाते विरोध का स्वर उनका टूट सा गया है। मुलायम सिंह की सरकार को समर्थन देकर कांग्रेस ने अपनी देशव्यापी छवि के विपरीत ही कार्य किया। मुलायम सिंह की सरकार जिस तरह कार्य कर रही है, उससे आगे आने वाले दिनों में कांग्रेस को कोई लाभ होने की सम्भावना नहीं दिख रही है। कांग्रेसी इस बात को लेकर बेहद खौफ और निराश की स्थिति में है। लेकिन मुलायम सिंह का साथ छोड़ने का औचित्य वह अपने सदन के भीतर बैठे नेताओं और दिल्ली के नेताओं को समझा पाने में पूरी तरह असफल हैं। इस समय के न्द्र में कांग्रेस का कोई ऐसा बड़ा नेता नहीं जो उप्र की हित चिंता करता हो। जबकि उप्र हमेशा ऐसी स्थिति में रहा, जिससे कांग्रेस को खासा इजाफा मिलता रहा। इतना ही नहीं विपक्ष की सरकारों को गिराने में उप्र की घटनाओं की ही महत्वपूर्ण भूमिका रही है। प्रदेश कांग्रेस को सांगठनिक तौर पर जिस तरह खड़ा किया गया है या खड़ा किया जा रहा है उससे यह बिल्कुल नहीं लगता कि कांग्रेस अपने वापसी के बारे में कुछ भी सोच रही है। कांग्रेस के फ्रंटल आर्गेनाइजेशन की भी स्थिति कम दयनीय नहीं है। युवक कांग्रेस अध्यक्ष के चुनाव को लेकर उपजे संशय और फिर नियुक्ति की घोषणा से ऐसा लगता है कि कांग्रेस में प्राण प्रतिष्ठा करने की कोशिश युवाओं की ओर से भी की जाने की बात अब संभव नहीं है। कांग्रेस को राष्ट्रीय समस्याओं के समाधान के आधार पर उप्र में अपनी जड़ें मजबूत करनी चाहिए। क्योंकि राष्ट्रीय अस्मिता के प्रश्न सर्वदा और सर्वथा राजनीति समीकरणों से ऊपर हुआ करते हैं।
गत माह मुख्यमंत्री मुलायम सिंह की गोरखपुर यात्रा के समय उनके मंच पर प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष जिस तरह से चारणगिरी में मशगूल दिखे, उससे तो यही संशय गहराने लगा था कि कहीं महावीर प्रसाद मुख्यमंत्री मुलायम सिंह के साथ दलीय निष्ठा जैसा कोई आंतरिक समझौता तो नहीं कर बैठे हैं। अखबारों में भी यह खबर उछली है कि महावीर प्रसाद कहीं सपा में तो नहीं जा रहे हैं। वैसे इस संके त के मिलने के बाद से जद का एक बड़ा धड़ा मुलायम सिंह के साथ जरूर जुड़ा और सपा के प्रदेश अध्यक्ष ने भाजपाइयों के भी सपा में शामिल होने की बात कही। यह बात दूसरी है कि प्रदेश सपा अध्यक्ष की बात में कोई ठोस प्रमाण उपलब्ध नहीं थे तथा उन्होंने जो कुछ कहा उसके पीछे कोई पृष्ठभूमि नहीं दिखी।
महात्मा गांधी पर मायावती के बयान को लेकर प्रदेश कांग्रेस के लोगों में जो गुटबाजी का माहौल मुखर हुआ था, उसकी कोई सार्थक परिणति नहीं हुई। सदन के अंदर के कांग्रेसी बार-बार यह चाह रहे थे कि सरकार के विरोध में कुछ न किया जाय क्योंकि महात्मा गांधी पर की गयी टिप्पणी के विरोध का मतलब क्या था? बसपा-सपा गठबंधन पर सवाल खड़े करना और यह गठबंधन प्रदेश में अपने बूते पर सरकार बना पाने की स्थिति में नहीं है। इस कांग्रेस के समर्थन की नितांत आवश्यकता है। सुविधाभोगी कांग्रेसियों की सदन में बैठी जमात के इस विवाद में आलाकमान से आंतरिक हस्तक्षेप कराकर विजय जरूर हासिल कर ली लेकिन सदन के बाहर के कांग्रेसी अभी भी क्षुब्ध बैठे हैं। उनका मानना था कि यही एक ऐसा मौका है, जब महात्मा गांधी पर की गयी टिप्पणी को ओट बनाकर प्रदेश सरकार को दबाव में रखते हुए प्रदेश स्तर पर एक व्यापक जन जागरण का कार्यक्रम चलाया जा सकता था।
इससे एक ओर कांग्रेसियों को एकजुट होने का अवसर मिलता। साथ ही साथ महात्मा गांधी के नाम पर एक बार फिर गांधीवाद की मार्केटिंग की संभावनाएं हाथ लगतीं। यह भी सच है कि प्रदेश कांग्रेस को इस मुद्दे पर एक बार खुद को रवा करने का भी अवसर जरूर मिलता। क्योंकि पिछले चुनाव के पूर्व से ही कांग्रेस प्रदेश स्तर पर कोई ठोस कार्यक्रम प्रस्तुत नहीं कर पायी है। इसका एक बहुत बड़ा कारण प्रदेश कांग्रेस की उपेक्षा है। चूंकि प्रधानमंत्री नरसिंह राव यह जानते हैं कि प्रधानमंत्री बनने से पूर्व उप्र में उनके समान कद्दावर नेता मौजूद थे। इस चुनाव में प्रदेश में कांग्रेस के सफाये से उप्र की दावेदारी क्षीण हो गयी और नरसिंह राव के सामने व्यक्तित्व का कोई सवाल नहीं उठ पाया। नरसिंह राव के प्रधानमंत्री बनने के बाद उप्र के लब्ध प्रतिष्ठित इंकाई नेता नारायण दत्त तिवारी ने विकास यात्राओं के माध्यम से प्रदेश में एक बार अलख जगाने की कोशिश जरूर की। परंतु महावीर प्रसाद के प्रदेश अध्यक्ष होने के नाते इस आयोजन को कांग्रेस की ओर से कोई समर्थन नहीं मिल पाया और विकास यात्राओं की चरम परिणति नारायण दत्त तिवारी की छवि स्थापित करने के रूप में सिमट कर रह गयी।
यद्यपि इस छवि की स्थापना में जुटे महावीर प्रसाद समर्थक कामयाब भले ही हो गए परंतु वे कांग्रेस का हित कर पाने में कहीं भी कोई ठोस समानान्तर कार्यक्रम नहीं प्रस्तुत कर सके । विकास यात्राओं की असफलता से ऊबे नारायण दत्त तिवारी ने राजनीति से संन्यास लेने जैसी स्थिति का तानाबाना बुना। परंतु अभी हाल में छपी कुछ खबरांे में प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष बदले जाने की बात में नारायण दत्त तिवारी को बागडोर सौंपने का उल्लेख हुआ। वैसे उप्र में कांग्रेस जिन परिस्थितियों से गुजर रही है, उसमें नारायण दत्त तिवारी सरीखा नेता भी कोई करिश्मा नहीं कर सकता।
उप्र में कांग्रेस ने मुलायम सिंह सरकार को इससे पहले समर्थन देकर अपनी कब्र खोद ली थी। क्योंकि उस समय मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव की छवि एक धर्म विशेषज्ञ के विरोधी के रूप में थी और कांग्रेस के समर्थन के बाद उस कांग्रेस की छवि पर ग्रहण लगने से इंकाई स्वयं को नहीं रोक पाये, जिसका परिणाम यह हुआ कि कांग्रेस ने सीटें खोयी, उसके हाथ में वोट बैंकों का कोई भी अंश नहीं रह गया। राष्ट्रपति शासन के दौरान भी कांग्रेस के नेताओं ने अपने निजी हितों के लिए ही काम किये। कांग्रेस के उत्थान और उसमें प्राण प्रतिष्ठा किये जाने की दिशा में कोई ठोस कार्यक्रम नहीं हो पाया, जिसका खामियाजा प्रदेश में कांग्रेस को वोटों के प्रतिशत और सीटों की संख्या दोनों की कमी के साथ भुगतान पड़ा।
कांग्रेस की इन स्थितियों के लिए प्रदेश कांग्रेस का संगठन पूरी तौर पर जिम्मेदार है। क्योंकि एक ऐसी स्थिति में जब कांग्रेस विपक्ष की भूमिका के लिए संघर्षरत हो, तब उसे एक तेजतर्रार और संसदीय परम्पराओं से समृद्ध एवं जातीय समीकरणों में मजबूत व्यक्ति का चुनाव अध्यक्ष पद के लिए करना चाहिए था लेकिन इन परिस्थितियों में भी महावीर प्रसाद जैसे कमजोर और छविहीन व्यक्ति को कांग्रेस अध्यक्ष बनाये रखने के पीछे आलाकमान की पता नहीं कौन से राजनीतिक विवशता या कूटनीतिक समझ है। एक ऐसे समय जब प्रदेश में दलीय चेतना का उभार अपने चरम पर हो और उसकी भाषा बोलने के लिए एक प्रतिक्रियात्मक दल पूरी तरह से तैयार और सजग खड़ा हो। ऐसे में महावीर प्रसाद को कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में बनाए रखना कांग्रेस की हित चिंता नहीं है। कांग्रेस अध्यक्ष प्रदेश में तो क्या अपने मण्डल में भी किसी भी सीट पर कोई प्रभाव डाल पाने में पूरी तरह अक्षम हैं। इस कारण उनसे पूरे प्रदेश में सांगठनिक तौर पर कोई आशा किया जाना सर्वथा निरर्थक है। वैसे पहले भी श्री प्रसाद किसी भी वोट बैंक के प्रतिनिधि या किसी निजी और सामाजिक छवि के प्रणेता नहीं रहे। उन्हांेने कांग्रेस सरकार में कई बड़े अमले जरूर हासिल किये। परंतु इसके पीछे उनकी कोई निजी हैसियत या उपलब्धि नहीं थी। बाबरी मस्जिद/रामजन्म भूमि मुद्दे पर भी कांग्रेस की दोहरी नीति ने उसे काफी पीछे छोड़ा। एक ओर राम मंदिर का ताला खुलवाया फिर मंदिर का शिलान्यास और उसके बाद शिलान्यास को रुकवाया गया। इतना ही नहीं विवादित ढांचे को गिराते समय कांग्रेस की गहरी चुप्पी से अल्पसंख्यक समुदाय ने कांग्रेस को इस हद तक दोषी माना कि कांग्रेस के हाथ से इस समुदाय का सारा का सारा वोट बैंक पारे सरीखा सरक गया।
छह दिसंबर की घटना के आसपास अपने बुद्धिजीवी प्रधानमंत्री ने भी तमाम तरह की ऊलजलूल बातें करके हिंदू सम्प्रदाय की धार्मिक भावनाओं के साथ खिलवाड़ किया। इस तरह प्रदेश कांग्रेस ने अल्पसंख्यक समुदाय और हिन्दू वाद के नाम पर बने वोट बैंकों के साथ बारी-बारी से ज्यादतियां कीं। परिणामतः कांग्रेस अपनी कोई छवि बना पाने में सफल नहीं हो पायी। बसपा के अभ्युदय के बाद से दलित वोट बैंक कांग्रेस का साथ पहले ही छोड़ गया था और मण्डल कमीशन पर कांग्रेस की वाहवाही लूटने की सारी कोशिशों का परिणाम प्रदेश में यह हुआ कि मुख्यमंत्री मुलायम सिंह के खाते में पिछड़ा वोट बैंक चला गया। इस तरह वोट बैंक के आधार पर कांग्रेस ने प्रदेश कांग्रेस को कोई ऐसी सुविधा और स्थिति मुहैया नहीं करायी, जिससे कांग्रेस किसी वोट बैंक को अपना कह पाती।
अब उप्र के इंकाईयों में भी जंग लगी दिखने लगी है। क्योंकि एक लम्बे समय तक सत्ता सुख जीने के नाते विरोध का स्वर उनका टूट सा गया है। मुलायम सिंह की सरकार को समर्थन देकर कांग्रेस ने अपनी देशव्यापी छवि के विपरीत ही कार्य किया। मुलायम सिंह की सरकार जिस तरह कार्य कर रही है, उससे आगे आने वाले दिनों में कांग्रेस को कोई लाभ होने की सम्भावना नहीं दिख रही है। कांग्रेसी इस बात को लेकर बेहद खौफ और निराश की स्थिति में है। लेकिन मुलायम सिंह का साथ छोड़ने का औचित्य वह अपने सदन के भीतर बैठे नेताओं और दिल्ली के नेताओं को समझा पाने में पूरी तरह असफल हैं। इस समय के न्द्र में कांग्रेस का कोई ऐसा बड़ा नेता नहीं जो उप्र की हित चिंता करता हो। जबकि उप्र हमेशा ऐसी स्थिति में रहा, जिससे कांग्रेस को खासा इजाफा मिलता रहा। इतना ही नहीं विपक्ष की सरकारों को गिराने में उप्र की घटनाओं की ही महत्वपूर्ण भूमिका रही है। प्रदेश कांग्रेस को सांगठनिक तौर पर जिस तरह खड़ा किया गया है या खड़ा किया जा रहा है उससे यह बिल्कुल नहीं लगता कि कांग्रेस अपने वापसी के बारे में कुछ भी सोच रही है। कांग्रेस के फ्रंटल आर्गेनाइजेशन की भी स्थिति कम दयनीय नहीं है। युवक कांग्रेस अध्यक्ष के चुनाव को लेकर उपजे संशय और फिर नियुक्ति की घोषणा से ऐसा लगता है कि कांग्रेस में प्राण प्रतिष्ठा करने की कोशिश युवाओं की ओर से भी की जाने की बात अब संभव नहीं है। कांग्रेस को राष्ट्रीय समस्याओं के समाधान के आधार पर उप्र में अपनी जड़ें मजबूत करनी चाहिए। क्योंकि राष्ट्रीय अस्मिता के प्रश्न सर्वदा और सर्वथा राजनीति समीकरणों से ऊपर हुआ करते हैं।
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