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रहिमन पानी राखिए ...
रघुवीर सहाय ने बहुत बरस पहले एक कविता लिखी थी - बच्चा बच्चा हिंदुस्तानी, मांग रहा है पानी। पानी आज भारत ही नहीं विश्व की मूल चिंताओं में एक है। क्या आने वाली नस्लों को यथा आवश्यकता पीने का पानी नसीब होगा। मेरा मन भीषण गर्मी में पानी के न जाने कितने रूपों से टकराता घूम रहा है।
कहते हंै गांव के तालबा में गांव के न जाने कितने रहस्य छिपे रहते हैं। रहस्यों को धारण करने वाला तालाब का पानी गांव के लोगों द्वारा निरंतर इसलिए अपमानित होता है क्यांेकि वह निकट रहता है। निकट निरादर होत है, ज्यों गही कर पानि। ऐसा तो नहीं कि जो मूल्य हमारे अत्यंत निकट रहता है। वे गहरी के पानी की तरह निरंतर निरादर के लिए अभिशप्त है। पानी सिर से पर न हो जाए, इसलिए आइए पानी की थाह लगाते हैं।
क्या सचमुच हमारी आंखों का पानी मर गया है। मरा नहीं तो बीमार जरूर है। वरना सत्ता परिवर्तन के तमाम नीति नियामकों को कर्ज और संकट में डूबा यह देश जरूर दिखायी दिया होता। पूरे विश्व में लोग भारत के लोकतंत्र को गहरी जिज्ञासा के साथ देख रहे हैं। भारत की आंतरिक गतिविधियों पर दुनिया निगाहें गड़ाए है। हम हैं कि समस्याओं का समाधान तलाशने के स्थान पर सत्ता का खेल-खेल रहे हैं। ध्यान रहे कहीं भारत का पानी बेस्वाद न हो जाए। यह चिंता धूमिल को भी थी, तभी उन्होंने यह कहा था:
फटे हुए पालों की
अधूरी जल यात्राओं मंे
मैं खोई आजादी का अर्थ
ढूंढ़ंता रहा।
आजादी का मुकम्मल अर्थ क्या हमें आज तक मिला है। तमाम प्रपंचों में हम भूल गए कि हमारी आदर्श गंगा है। गंगा जो सबका हित करती है। अपनी अमृत जैसी जलाधार से। हमने तो गंगा को भी प्रदूषण की नारकीय प्रक्रिया में डाल दिया है। ब्रहा के कमंडल से निकलकर भारतभूमि में आकर कलिकाल में गंगा पर यह बीतेगी, स्वयं भगीरथ भी नहीं जानते थे। ऐसा न हो कि हमारी तमाम मातृरूपी नदियां, हमारे तमाम जलस्रोत, हमारे सैकों-हजारों जलागार स्वयं पिपासा के प्रतीक बन जाएं। विलुप्त सरस्वती पानी की पीा की ही एक विस्मृत गाथा है। रहीम ने ठीक कहा था -
रहिमन पानी रखिए, बिनु पानी सब सून।
पानी गए न उबरे मोती मानुष चून।।
सचमुच करुणा के सनातन प्रवाह से युक्त मानवीय अस्तित्व के बिना इस धरती पर क्या बचेगा। ऐसे ही अतिचारों का प्रतीकात्मक उल्लेख जयशंकर प्रसाद ने अपने महाकाव्य कामायनी में किया है। देव संस्कृति की असमाप्त अतिचारगाथा को समाप्त करने के लिए प्रकृति को पलायनकालीन मेघों को आवाहन करना पड़ा था। उन भीम भगवान मेघों की भैरव दृष्टि में संपूर्ण सृष्टि विलीन हो गयी थी। कहीं हम ऐसे ही किसी दृश्य के लिए स्वयं को तत्पर तो नहीं कर रहे:
लहरें व्योम चूमती उठतीं
चपलाएं असख्ंय नचतीं।
गरल जलद की खड़ी-खड़ी में
बूंदे निज संसृति रचतीं।।
पानी एक तत्व तो हैं ही, एक प्रतीक है। जीवन की अखंड रसधार का। इस रसधार के भी स्रोत धीरे-धीरे सूख रहे हैं। ऐसा न हो कि जीवन की रसधार क्रमशः सरस्वती की तरह स्मृतियों का विषय बन जाए। जिस तरह जीवन पर यांत्रिक माल निरंतर कब्जा जमाता रहा है। उससे स्पष्ट है कि संवेदनाएं भावनाएं - अर्थत जीवन की नमी एक दिन दम तो देगी। तब बचेगा क्या ? सिर्फ ओर मधरा। सिर्फ भयावत रेतीला परिदृश्य। आज असावधान हैं तो कल विलाप करना ही होगा। इस विलाप से हमें पानी बचा सकता है।
पानी का स्तर निंरतर नीचे जा रहा है। शायद पाताल या उससे भी आगे जहां तक जा सक¢। क्या हम पानी की प्यास को पहचान पाएंगे। पानी हमारी सहानुभूति, हमारी रागात्मकता का प्यासा है। पानी हमारा आदि है। कहीं पानी हमारे अंत का कारण भी न बने।
पानी या जलधाराआंे के तट पर सभ्यताओं ने अपने सौंदर्य लोक बनाए हैं। आज मानवीय संस्कृति की सबसे बड़ी पोषक नदियां भीषण प्रदूषण का शिकार हैं। अपनी जननी का वध हम स्वयं कर रहे हंै। इस अपराध का दंड तो हमें भुगतना ही होगा। नदियों से क्षमा याचना करनी होगी। जलाशयों से मनुहार करनी होगी। आज बादलों में जल की वे लीलाएं नहीं दिखतीं। जो आनंदित करती थीं। आज कहीं जल प्रलय है कहीं जल का अकाल। अति वृष्टि और अनावृष्टि का असंतुलन...। पाकृतिक संतुलन को अक्षुण्ण रखने के उत्तरदायी हम क्या अपने दायित्व का पालन कर रहे हैं। मूल तत्व जल को विकृत कर हम सृष्टि की संरचना से खेल रहे हंै। यह खेल विनाश का सूत्राधार हो सकता है। पानी हमें सावधान कर रहा है कि उतिष्ठत ! जाग्रत ! प्राप्त वरान्निबोध ! पानी कह रहा है कि मुझे विष होने से पहले बचाओ। पानी निवेदन कर रहा कि मुझे बचा लो ... पूंजीवादी प्यास से डूबने से। पानी पुकार रहा है कि इस देश को पेप्सी और कोकाकोला से ज्यादा मेरी जरूरत है। पानी तप रहा है कि मैं हर प्यासे कंठ तक, हर छटपटाती जड़ तक पहुंचना चाहता हूं। पानी कहता है मुझ पर कब्जा करने की सियासी चालें मत चलो। पानी पानी की राजनीति करने वालों से जनता को होशियार कर रहा है:
दिल्ली में कर रहे वे पानी की सियासत।
तुम कह रहे थे लाने जो भागीरथी गए।।
विषमता, द्वेष, ईष्या, स्वार्थ के झुलसाते मौसम में प्यार के एक घूंट ठंडे पानी की हमें सख्त जरूरत है। पानी जो अनमोल है। पानी जो जीवन है। जो जल है - ज से जन्म। ल से लय। दो अक्षरांे में समाया है। सृष्टि का वैभव। संकल्प करें कि भारतीय संस्कृति की उज्जवल जलधार को गंदला न होने देंगे। जीवन में रस तभी रहेगा जब धरती पर पानी रहेगा - पीने योग्य। बिंदु से सिंधु तक फैले पानी के प्रसाद को विषाद में बदलने से रोकना होगा। अन्यथा विश्व संस्कृति का सोने या पानी उतरने में देर नहीं लगेगी।
कहते हंै गांव के तालबा में गांव के न जाने कितने रहस्य छिपे रहते हैं। रहस्यों को धारण करने वाला तालाब का पानी गांव के लोगों द्वारा निरंतर इसलिए अपमानित होता है क्यांेकि वह निकट रहता है। निकट निरादर होत है, ज्यों गही कर पानि। ऐसा तो नहीं कि जो मूल्य हमारे अत्यंत निकट रहता है। वे गहरी के पानी की तरह निरंतर निरादर के लिए अभिशप्त है। पानी सिर से पर न हो जाए, इसलिए आइए पानी की थाह लगाते हैं।
क्या सचमुच हमारी आंखों का पानी मर गया है। मरा नहीं तो बीमार जरूर है। वरना सत्ता परिवर्तन के तमाम नीति नियामकों को कर्ज और संकट में डूबा यह देश जरूर दिखायी दिया होता। पूरे विश्व में लोग भारत के लोकतंत्र को गहरी जिज्ञासा के साथ देख रहे हैं। भारत की आंतरिक गतिविधियों पर दुनिया निगाहें गड़ाए है। हम हैं कि समस्याओं का समाधान तलाशने के स्थान पर सत्ता का खेल-खेल रहे हैं। ध्यान रहे कहीं भारत का पानी बेस्वाद न हो जाए। यह चिंता धूमिल को भी थी, तभी उन्होंने यह कहा था:
फटे हुए पालों की
अधूरी जल यात्राओं मंे
मैं खोई आजादी का अर्थ
ढूंढ़ंता रहा।
आजादी का मुकम्मल अर्थ क्या हमें आज तक मिला है। तमाम प्रपंचों में हम भूल गए कि हमारी आदर्श गंगा है। गंगा जो सबका हित करती है। अपनी अमृत जैसी जलाधार से। हमने तो गंगा को भी प्रदूषण की नारकीय प्रक्रिया में डाल दिया है। ब्रहा के कमंडल से निकलकर भारतभूमि में आकर कलिकाल में गंगा पर यह बीतेगी, स्वयं भगीरथ भी नहीं जानते थे। ऐसा न हो कि हमारी तमाम मातृरूपी नदियां, हमारे तमाम जलस्रोत, हमारे सैकों-हजारों जलागार स्वयं पिपासा के प्रतीक बन जाएं। विलुप्त सरस्वती पानी की पीा की ही एक विस्मृत गाथा है। रहीम ने ठीक कहा था -
रहिमन पानी रखिए, बिनु पानी सब सून।
पानी गए न उबरे मोती मानुष चून।।
सचमुच करुणा के सनातन प्रवाह से युक्त मानवीय अस्तित्व के बिना इस धरती पर क्या बचेगा। ऐसे ही अतिचारों का प्रतीकात्मक उल्लेख जयशंकर प्रसाद ने अपने महाकाव्य कामायनी में किया है। देव संस्कृति की असमाप्त अतिचारगाथा को समाप्त करने के लिए प्रकृति को पलायनकालीन मेघों को आवाहन करना पड़ा था। उन भीम भगवान मेघों की भैरव दृष्टि में संपूर्ण सृष्टि विलीन हो गयी थी। कहीं हम ऐसे ही किसी दृश्य के लिए स्वयं को तत्पर तो नहीं कर रहे:
लहरें व्योम चूमती उठतीं
चपलाएं असख्ंय नचतीं।
गरल जलद की खड़ी-खड़ी में
बूंदे निज संसृति रचतीं।।
पानी एक तत्व तो हैं ही, एक प्रतीक है। जीवन की अखंड रसधार का। इस रसधार के भी स्रोत धीरे-धीरे सूख रहे हैं। ऐसा न हो कि जीवन की रसधार क्रमशः सरस्वती की तरह स्मृतियों का विषय बन जाए। जिस तरह जीवन पर यांत्रिक माल निरंतर कब्जा जमाता रहा है। उससे स्पष्ट है कि संवेदनाएं भावनाएं - अर्थत जीवन की नमी एक दिन दम तो देगी। तब बचेगा क्या ? सिर्फ ओर मधरा। सिर्फ भयावत रेतीला परिदृश्य। आज असावधान हैं तो कल विलाप करना ही होगा। इस विलाप से हमें पानी बचा सकता है।
पानी का स्तर निंरतर नीचे जा रहा है। शायद पाताल या उससे भी आगे जहां तक जा सक¢। क्या हम पानी की प्यास को पहचान पाएंगे। पानी हमारी सहानुभूति, हमारी रागात्मकता का प्यासा है। पानी हमारा आदि है। कहीं पानी हमारे अंत का कारण भी न बने।
पानी या जलधाराआंे के तट पर सभ्यताओं ने अपने सौंदर्य लोक बनाए हैं। आज मानवीय संस्कृति की सबसे बड़ी पोषक नदियां भीषण प्रदूषण का शिकार हैं। अपनी जननी का वध हम स्वयं कर रहे हंै। इस अपराध का दंड तो हमें भुगतना ही होगा। नदियों से क्षमा याचना करनी होगी। जलाशयों से मनुहार करनी होगी। आज बादलों में जल की वे लीलाएं नहीं दिखतीं। जो आनंदित करती थीं। आज कहीं जल प्रलय है कहीं जल का अकाल। अति वृष्टि और अनावृष्टि का असंतुलन...। पाकृतिक संतुलन को अक्षुण्ण रखने के उत्तरदायी हम क्या अपने दायित्व का पालन कर रहे हैं। मूल तत्व जल को विकृत कर हम सृष्टि की संरचना से खेल रहे हंै। यह खेल विनाश का सूत्राधार हो सकता है। पानी हमें सावधान कर रहा है कि उतिष्ठत ! जाग्रत ! प्राप्त वरान्निबोध ! पानी कह रहा है कि मुझे विष होने से पहले बचाओ। पानी निवेदन कर रहा कि मुझे बचा लो ... पूंजीवादी प्यास से डूबने से। पानी पुकार रहा है कि इस देश को पेप्सी और कोकाकोला से ज्यादा मेरी जरूरत है। पानी तप रहा है कि मैं हर प्यासे कंठ तक, हर छटपटाती जड़ तक पहुंचना चाहता हूं। पानी कहता है मुझ पर कब्जा करने की सियासी चालें मत चलो। पानी पानी की राजनीति करने वालों से जनता को होशियार कर रहा है:
दिल्ली में कर रहे वे पानी की सियासत।
तुम कह रहे थे लाने जो भागीरथी गए।।
विषमता, द्वेष, ईष्या, स्वार्थ के झुलसाते मौसम में प्यार के एक घूंट ठंडे पानी की हमें सख्त जरूरत है। पानी जो अनमोल है। पानी जो जीवन है। जो जल है - ज से जन्म। ल से लय। दो अक्षरांे में समाया है। सृष्टि का वैभव। संकल्प करें कि भारतीय संस्कृति की उज्जवल जलधार को गंदला न होने देंगे। जीवन में रस तभी रहेगा जब धरती पर पानी रहेगा - पीने योग्य। बिंदु से सिंधु तक फैले पानी के प्रसाद को विषाद में बदलने से रोकना होगा। अन्यथा विश्व संस्कृति का सोने या पानी उतरने में देर नहीं लगेगी।
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