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संत रैदास : समतामूलक समाज के अनुपम प्रेरणा पुरुष
पूनम नेगी
लखनऊ: करुणा, क्षमा, धैर्य और सत्यशीलता जैसे चारित्रिक गुणों और प्रेम, सौहार्द, समानता, विश्वबंधुत्व जैसे सिद्धांतों पर आधारित हमारी लोकतांत्रिक सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्था मूलत: मध्यकालीन भक्ति आंदोलन से उपजे मानव-मूल्यों पर आधारित है। संत तुकाराम, नरसी, दादू, गुरुनानक, कबीर, सूर, तुलसी, रविदास, चोखा मेला, पीपादास आदि भक्तिकालीन संतों ने अपनी अनुपम शिक्षाओं के द्वारा जीवन जीने का जो मार्ग दिखाया, उसी पर चलते हुए हमने अपनी आधुनिक संवैधानिक व्यवस्थाओं को कायम किया है। जीवन को उचित दिशा देने वाले इन महापुरुषों में संत रविदास का नाम अति महत्वपूर्ण है। इस महान संत का जीवन तमाम ऐसे अद्भुत एवं अविस्मरणीय प्रसंगों से भरा हुआ है, जो मनुष्य को सच्चा जीवन-मार्ग अपनाने को प्रेरित करते हैं। अपने संदेशों और काव्य रचनाओं के जरिये उन्होंने मानव को जीवनयापन की जो युक्तियां-विधियां सिखायीं वे आज भी उतनी ही सामयिक व प्रासंगिक हैं जितनी तद्युग में थीं। जिस तरह उनका जीवन अनुपम आदर्शों की जीती-जागती मिसाल था, उसी तरह उनकी वाणी भी सामाजिक समरसता से ओतप्रोत रही।
माघी पूर्णिमा के दिन काशी के मडुआडीह गांव में रविवार के दिन रघु व करमाबाई के पुत्ररूप में जन्मी इस विभूति ने जीवनयापन के लिए अपने पैतृक व्यवसाय चर्मकारी को चुना मगर अपनी अनूठी रचनाधर्मिता के आधार पर उन्होंने जिस समतामूलक समाज की परिकल्पना की, वह अपने आप में क्रान्तिकारी है। संत रैदास सामाजिक सुधार के लिए जीवनपर्यन्त जूझते तथा रचनात्मक प्रयत्न करते रहे। सामाजिक समानता, समरसता लाने के लिए वे अपनी वाणी से तत्कालीन शासकों को सचेत करते रहे। घृणा और सामाजिक प्रताड़ना के बीच संत रैदास ने टकराहट और भेदभाव मिटाकर प्रेम तथा एकता का संदेश दिया। उन्होंने जो उपदेश दिये समूचे मानव समाज के कल्याण व भलाई के लिए दिये। उनकी चाहत एक ऐसे समाज की थी जिसमें राग, द्वेष, ईर्ष्या, दुख व कुटिलता का कोई स्थान न हो। उनका कहना था कि -
वर्णाश्रम अभिमान तजि, पद रज बंदहि जासु की।
सन्देह-ग्रन्थि खण्डन-निपन, बानि विमलु रैदास की।।
संत रैदास ने ऐसे समाज की परिकल्पना की थी जिसमें कोई ऊंच-नीच, भेदभाव, राग-द्वेष न हो। सभी बराबर हो सामाजिक कुरीतियों न हों। भारतीय संविधान निर्माता बाबा भीमराव अम्बेडकर पर उनकी विचारधारा का गहरा प्रभाव था। अपने जीवन में संघर्ष करने की प्रेरणा उन्होंने संत रैदास से ही पायी थी तथा उनके आदर्श सामाजिक समता तथा प्रजातान्त्रिक समाजवाद की कल्पना को भारतीय संविधान में साकार करने की कोशिश भी की। रैदास ऐसे आदर्श समाज की परिकल्पना करते हैं जिसमें धर्म के नाम पर बाह्माडम्बर व धार्मिक कुरीतियां न हों, जहां जाति-पाति का भेदभाव न हो, सभी बराबर हो ऊंच- नीच की प्रथा समाप्त हो जाये-
जात पात के फेर महि, उरिझ गई सब लोग
मनुुषता को खात है, रविदास जात का रोग।।
संत रैदास के समय देश में मुस्लिम शासन था। हिन्दू पराजित जाति थी। दोनों धर्मों के कुलीन वर्ग एक दूसरे से नफरत करते थे। जहां मुल्ला अपने धर्म को श्रेष्ठ बता कर सभी को इस्लाम धर्म मानने को मजबूर कर रहे थे, वहीं पंडित पुरोहित अपने को श्रेष्ठ सिद्ध कर रहे थे। इस खींचतान से समाज निरन्तर पतन की ओर बढ़ रहा था। ऐसे विषम समय में उन्होंने सर्वधर्म समभाव का स्वर मुखर किया। वह कहते हैं-
रविदास हमारो राम सोई, सोई है रहमान।
काबा काशी जानी यहीं, दोनों एक समान।।
जातिवादी व्यवस्था के पोषकों के कुटिल कुचक्र को पहचानकर उन्हांेने मानव एकता की स्थापना पर बल दिया. उनका मानना था कि जातिवादी व्यवस्था को बगैर दूर किये देश व समाज की उन्नति असम्भव है। ओछे कर्म और परम्परागत जाति व्यवस्था को धिक्कारते हुए वह कहते थे कि मानव एक जाति है, सभी मनुष्य एक ही तरह से पैदा होते हैं, मानव को पशुवत जीवन जीने के लिए बाध्य करना कुकर्म की श्रेणी में आता है जबकि सत्कर्म से मनुष्य श्रेष्ठ बनता है। जन्म आधारित वर्ण व्यवस्था को नकारते हुए उन्होंने कर्म प्रधान संविधान को अपने जीवन में सार्थक किया। सामाजिक परम्परागत ढांचे को ध्वस्त करते हुए रैदास कहते हैं-
रविदास ब्राह्मण मत पूजिए, जेऊ होवे गुणहीन।
पूजहिं चरण चंडाल के जेऊ होवें गुण परवीन।।
वे यह बात अच्छे से जानते थे कि जब तक हिन्दू और मुसलमान एक नहीं होंगे तब तक समाज में शांति एवं स्थिरता नहीं आएगी, इसीलिए उन्होंने कहा-
मुसलमान ले कर दोस्ती, हिंदूअन से कर प्रीत।
रविदास ज्योति सब राम की, सभी है अपने मीत।।
संत रैदास के समय में समाज में आर्थिक विषमता काफी बढ़ी हुई थी। इस समस्या के निवारण के लिए उन्होंने जिस तरह श्रम को महत्व देकर आत्मनिर्भरता की बात कही, वह उनकी दूरदर्शी दृष्टि का परिचायक है। गरीबी, बेकारी और बदहाली से मुक्ति के लिए उनका श्रम व स्वावलंबन का दर्शन आज भी अत्यन्त कारगर है। उनको इस बात का बखूबी मालूम था की सामाजिक एकता तभी आ सकती है जब सभी के पास अपना घर हो, पहनने के लिये कपड़े हो तथा खाने के लिए पर्याप्त अन्न होगा -
ऐसा चाहूँ राज मैं, जहां मिलै सबन को अन्न।
छोट बड़ो सब सम बसे, रविदास रहै प्रसन्न।।
रैदास जी के इसी श्रम के दर्शन को समझकर महात्मा गांधी ने अपने "रामराज्य" लिए पारम्परिक हथकरधा तथा कुटीर उद्योगों को महत्व दिया था। संत रैदास ने एक ऐसे राज्य की परिकल्पना की थी, जिसमें ऊंच नीच और भेदभाव न हो, जहां कोई लगान न हो, श्रम की अहमियत हो, सभी आर्थिक रूप से सुखी हों।
वैचारिक क्रान्ति के प्रणेता संत रैदास की जीवन दृष्टि पूर्ण वैज्ञानिक है। वे सभी की प्रसन्नता में अपनी प्रसन्नता देखते हैं। उनके अनुसार स्वराज ऐसा होना चाहिए जिसमें किसी को किसी भी प्रकार का कोई कष्ट न हो। संत रैदास साम्यवादी, समाजवादी व्यवस्था के प्रबल समर्थक थे। उनका मानना था कि पराधीनता से देश, समाज और व्यक्ति की सोच संकुचित हो जाती है और संकुचित विचारधारा वाला व्यक्ति बहुजन हिताय- बहुजन सुखाय की अवधारणा को व्यवहारिक रूप प्रदान नहीं कर सकता। उनके मन में समाज में व्याप्त कुरीतियों के प्रति गहरा आक्रोश था। इसीलिए वे आजीवन सामाजिक कुरीतियों, वाह्य आडम्बर एवं रूढ़ियों से लड़ते रहे। संत रैदास की वाणी भक्ति की सच्ची भावना, समाज के व्यापक हित की कामना तथा मानव प्रेम से ओत-प्रोत थी। उनके भजनों तथा उपदेशों से लोगों की शंकाओं का सन्तोषजनक समाधान सहज ही हो जाता था। उनकी वाणी का प्रभाव इतना व्यापक था कि समाज के सभी वर्गों के लोग उनके अनुयायी हो गये थे।
संत रैदास अपने समय से बहुत आगे थे। क्रान्तिकारी वैचारिक अवधारणा, सामाजिक और सांस्कृतिक चेतना तथा युगबोध की सार्थक अभिव्यक्ति के कारण उनका विचार दर्शन लगभग 600 वर्ष बाद आज भी प्रासंगिक है।