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साम्यवाद की धरती पर बोया भारतीय अध्यात्म का बीज-स्वामी रंगनाथानन्द जयंती
पूनम नेगी
लखनऊ: राष्ट्र के महामानवों की श्रेणी में शुमार स्वामी रंगनाथानन्द का प्रेरक जीवन चरित समूचे देशवासियों के लिए प्रेरणा की अनुपम मिसाल है। हमारी देवभूमि के वैज्ञानिक ऋषियों के मानवतावादी संदेशों को देश-विदेश में प्रचारित-प्रसारित करने वाले रामकृष्ण मिशन के इस परम मनीषी ने भारतीय अध्यात्म को वैज्ञानिकता का जामा पहनाकर जिस तरह दुनिया को मानव धर्म व धार्मिकता सहिष्णुता का पाठ पढ़ाया; वह अपने आप में बेमिसाल है।
स्वामी रंगनाथानंद से जुड़ा बीसवीं सदी का यह प्रसंग उस समय का है जब भारतभूमि को गुलामी की बेड़ियों को मुक्त हुए मात्र तीन दशक ही बीते थे तथा उस समय दुनिया में साम्यवाद का बोलबाला था। ऐसे समय में एक भारतीय मनीषी का रूस जैसे ईश्वर के अस्तित्व पर संदेह जताने वाले साम्यवादी देश में भारत की आध्यात्मिक ज्ञान सम्पदा का आलोक फैलाना वाकई बड़ी बात है। स्वामी जी मॉस्को विश्वविद्यालय में "धर्म व विज्ञान" विषय पर आयोजित वर्कशॉप में विचार व्यक्त करने के लिए आमंत्रित थे। यह अक्टूबर 1977 की एक शाम थी। मास्को स्टेट यूनिवर्सिटी के आमंत्रण पर स्वामी रंगनाथानंद उस समय के सोवियत रूस के इस विख्यात विश्वविद्यालय में पधारे थे। यह समय का वह दौर था, जब सोवियत रूस में धर्म व धार्मिकता पर खुली परिचर्चा संभव न थी। कुछ विद्वानों के बोलने के बाद उनकी बारी आयी। नाम पुकारे जाने पर वे उठे व मंच पर जाकर सभागार में उपस्थित सभी लोगों का दोनों हाथ जोड़कर भारतीय शैली में अभिवादन किया। सौम्य स्मित के साथ सौहार्दपूर्ण दृष्टि सब पर डाली व कुछ पल मौन के बाद मुखर हुए, ""मैं हिमालय और गंगा के महान देश के दिव्य ऋषियों के ज्ञानकणों के साथ आपके लिए प्रसाद स्वरूप पावन गंगा के जलकण भी लाया हूं आैर आपको देने आया हूं इस युग की महान विभूति श्री रामकृष्ण परमहंस आैर स्वामी विवेकानंद का मानवतावादी संदेश।"" यह कहते हुए स्वामी रंगनाथानंद ने मंच के समीप ही बैठी मॉस्को विश्वविद्यालय की छात्राओं अंतेचिया, वानिलोवा एवं मैक्सिमोवा को संकेत किया; जिस पर उन छात्राओं ने गंगाजल से भरे छोटे-छोटे कलश व आम्रपल्लव उठाकर मंगल अभिसिंचन प्रारंभ कर दिया। इसी के साथ मंच से स्वामी जी का आत्मीयतापूर्ण स्वर उभरा- ""यह गंगा के तटवासी साधु का वोल्गा के तट पर रहने वाले भाई-बहनों के लिए स्नेह-उपहार है।""
स्वामी रंगनाथानंद जी के इस कथन के साथ किये गये गंगाजल के मंगल अभिसिंचन ने मॉस्को विश्वविद्यालय के उस लेक्चर हॉल में बैठे सभी लोगों के तन और मन दोनों ही भिगो दिये। इसके बाद उन्होंने उपस्थित लोगों को सम्बोधित करते हुए कहा, ""प्रयोगों की परख ही तथ्य को प्रामाणिक बनाती है। जब से धर्म क्षेत्र में अन्वेषण व अनुसंधान की कड़ियां टूटीं हैं तभी से धर्मतंत्र पर संशय और शंका के बादल छा गये। मेरी जन्मभूमि व क्रांतिधर्मी ऋषियों की प्रयोगस्थली भारतभूमि में प्राचीनकाल में रिसर्च को ऋषि अर्चन समझा जाता था। विश्व में पहली बार भारत की धरती पर विकासवादी वैज्ञानिकता पर आधारित सांख्यशास्त्र का प्रतिपादन हुआ, गणित के समीकरणों के साथ पदार्थ आैर चेतना के जीवन विज्ञान पर गंभीर अनुसंधान हुए थे; वहां भी अब ये कड़ियां टूटने-बिखरने लगी हैं। इसलिए आधुनिक शोधकर्त्ताओं को अपनी सीमाओं का विस्तार करना चाहिए। यह विस्तार इतना व्यापक हो कि धर्म, धार्मिक जीवन व धार्मिक प्रक्रियाएं भी उनकी परिधि में आ जाएं। जब ऐसा होगा तभी समाज में अवांछनीयता हटेगी और व्यक्ति व समाज, दोनों ही लाभान्वित होंगे।""
अध्यात्म की यह सार्वभौमिकता ही स्वामी जी का विशिष्टता थी। मॉस्को विश्वविद्यालय में 6 से 12 अक्टूबर 1977 को उनके नियमित उद्बोधन थे। स्वामी जी की वाणी ने वहां मौजूद अधिकांश बुद्धिजीवियों में एक नयी चेतना का संचार कर दिया। विश्वविद्यालय की शोध छात्रों स्वेतलाना एवं देलोकरोवा के प्रश्न "धर्म एवं अध्यात्म के पारस्परिक संबंध" पर स्वामी जी का बेहद सुंदर उत्तर था,'धर्म का व्यक्तिगत रूप अध्यात्म है और आध्यात्म का सामाजिक एवं व्यवहारिक रूप धर्म। भौगोलिक परिवेश एवं व्यक्ति के गुण, कर्म, स्वभाव के अनुसार अलग-अलग समाज में व्यवहारिक रीतियां-नीतियां, परिवर्तनीय होती हैं, इसलिए धर्म को भी सामाजिक परिवर्तनों के अनुसार परिवर्तनशील माना जा सकता है किन्तु जहां तक अध्यात्म की बात है तो यह मूलत: साधना प्रधान है। अध्यात्म को मानव जीवन में लागू करने का मूल उद्देश्य है व्यक्तित्व का सम्पूर्ण विकास यानी व्यक्ति की बौद्धिक, भावनात्मक एवं आत्मिक शक्तियों का उच्चतम विकास। भले ही इसकी तकनीकें भिन्न-भिन्न हों। यदि ऐसा हो सका तो धर्म का सार्वभौमिक-सर्वदेशिक स्वरूप प्रकट हो सकेगा। उस आध्यात्मिक मानवतावाद में सभी धर्मों की श्रेष्ठताएं समाविष्ट होंगी जो किसी भी एक देश, एक जाति के लिए नहीं, बल्कि सम्पूर्ण विश्व मानव के लिए हितकारी होगी।' साम्यवाद की धरती पर मुखर हुई स्वामी रंगनाथानंद जी की इस वाणी आैर उनके व्यक्तित्व ने न सिर्फ वहां मौजूद समूचे जनसमूह को अभिभूत ही किया वरन भारत व रूस के बीच एक नयी आध्यात्मिक मैत्री का बीजारोपण भी किया।
15 दिसम्बर 1908 में केरल के त्रिकुर गांव में शंकरन कुट्टी के रूप में जन्मी यह विभूति सत्रह वर्ष की आयु में श्री रामकृष्ण मिशन में सम्मिलित हुई। अपने प्रारम्भिक दौर में इन्होंने संघ में रसोइए का काम भी किया। स्कूली शिक्षा अधिक न होने के बावजूद अनवरत परिश्रम, स्वाध्याय एवं प्रगाढ़ साधना ने उन्हें ज्ञान की अनेकानेक धाराओं में निष्णात बनाकर आध्यात्मिक के शिखर तक पहुंचा दिया। "आध्यात्मिक मानवतावाद" पर लिखित उनकी तकरीबन दो दर्जन पुस्तकें आज भी समाज का समाज का पथ प्रदर्शन कर रही हैं। बड़ी संख्या में आध्यात्मिक जिज्ञासुओं के अलावा पं. जवाहरलाल नेहरू, श्रीमती इंदिरा गांधी, अटल बिहारी वाजपेयी, राजीव गांधी जैसी राजनीतिक हस्तियां भी उनके संपर्क में आकर लाभान्वित हुईं। वर्ष 1998 से 25 अप्रैल 2005 (अपनी मृत्यु के क्षण) तक वे श्री रामकृष्ण मठ एवं मिशन के अध्यक्ष बने रहे। अपने आध्यात्मिक-सांस्कृतिक दायित्वों के सतत निर्वहन के साथ स्वामी रंगनाथानंद ने विश्व के 51 से भी अधिक देशों में भारत देश के सांस्कृतिक दूत की भी सफल भूमिका निभायी। भारत सरकार ने उन्हें पद्मविभूषण देने का प्रस्ताव किया परंतु उन्होंने विनम्रतापूर्ण अस्वीकार करते हुुए कहा-'मैं श्री रामकृष्ण संघ का संन्यासी हूं। जब मेरा कोई निजी जीवन ही नहीं तो निजी पुरस्कार कैसा।'
बीते दिनों स्वामी जी की स्मृति में राजधानी दिल्ली में आयोजित एक श्रद्धांजलि सभा में पूर्व प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह एवं नेता प्रतिपक्ष लालकृष्ण आडवाणी दोनों ने ही कहा था- यों तो हम दोनों में अनेक वैचारिक मतभेद हैं परन्तु स्वामी रंगनाथानंद की शिक्षाओं ने हम दोनों को ही समान रूप से प्रेरित किया है। इस बारे में हम दोनों ही एकमत हैं कि भविष्य में वैज्ञानिक अध्यात्म की आवश्यकता जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में पूरी गहराई से अनुभव की जाएगी।