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वन ही बचाएंगे घुटनभरी आत्महत्या से, मध्यप्रदेश देश का सर्वाधिक संरक्षित वन क्षेत्र
पूनम नेगी
हवा के झोंकों से झूमते घने छायादार वृक्ष, उनसे गले मिलती लताएं प्रकृति का श्रृंगार ही नहीं, जीवन का अजस्र स्रोत भी हैं। यही वजह है कि वनों के प्रति प्यार व श्रद्धा भारतीय संस्कृति की संवेदनशील परंपरा रही है। विश्व के प्राचीनतम ग्रंथ माने जाने वाले ऋग्वेद में उल्लेख है कि प्राचीन भारत के लोग वनदेवी की उपासना किया करते थे। ऋग्वैदिक महर्षियों से लेकर शास्त्र, पुराण, उपनिषद्, रामायण आदि के प्रणेता ऋषिगणों ने आरण्यकों में प्रकृति माता की गोद में बैठकर अमूल्य ज्ञान सम्पदा को लिपिबद्ध किया था। अथर्ववेद में वनों को समस्त सुख-संपदा का स्रोत कहा गया है। मानवीय जीवन को सबसे पहली व्यवस्था देने वाले मनु महाराज ने अपनी स्मृति में वन संपदा को नष्ट करने वालों के लिए कठोर दंड विधान बनाया था। मत्स्यपुराण में वनों की महत्ता प्रतिपादित करते हुए कहा गया है- दषकूपसमावापी, दषवापीसमोह्रद:, दषह्रद सम:पुत्रो दषपुत्रसमो द्रुम:। यानि दस कुएं खोदने का पुण्य एक तालाब बनवाने के बराबर, दस तालाबों के निर्माण का पुण्य एक झील बनवाने के बराबर और दस झीलों के बनवाने में उतना ही पुण्य प्राप्त होता है, जितना कि एक गुणवान् पुत्र प्राप्त करने में तथा दस गुणवान् पुत्रों का यश उतना ही होता है, जितना कि एक वृक्ष लगाने का।
लेकिन, आज परिस्थितियां सर्वथा विपरीत हैं। चहुंओर तेजी से फैलते जा रहे कंक्रीट के जंगल इस बात की तस्दीक करते हैं कि वनों के प्रति प्यार व श्रद्धा चिह्न-पूजा मात्र होकर रह गई है। इस बात के लिए गंभीरतापूर्वक प्रयास नहीं किया कि चाहे प्रगति कुछ कम कर लें, पर हमारी अमूल्य वन संपदा नष्ट होने से बच जाए। संरक्षण-नियम लागू तो हुए, पर वनों का नाश दुगुना-तिगुना होता गया। सर्वाधिक चिंता तब होती है, जब वन विनाश के समाचार उन संवेदनशील क्षेत्रों से मिलते हैं, जहाँ वनों के संरक्षण पर विशेष जोर देना चाहिए था। इस जरूरत को सरकारी रिपोर्ट भी स्वीकार करती है। कर्नाटक, केरल, तमिलनाडु, महाराष्ट्र, गोवा व गुजरात में फैले पश्चिमी घाट क्षेत्र को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर विश्व की 18 जैव विविधता की दृष्टि से सबसे महत्वपूर्ण क्षेत्रों में चुना गया है। पर पिछले कुछ सालों के वन विनाश को देखते हुए पर्यावरण विशेषज्ञ कहते हैं, वनों की तबाही के कारण पश्चिमी घाट का जीवन छिन गया है या छीना जा रहा है। इस क्षेत्र में स्थित कर्नाटक का कोडारु जिला जो किसी जमाने में अपनी वन संपदा के लिए दूर दूर तक विख्यात था; बीते कुछ दशकों में यहां के वन विनाश के चर्चे आम हो गए हैं। एक सरकारी समिति के अनुसार 90 के दशक में यहां हुई लकड़ी की अवैध बिक्री से सरकार को अरबों रुपये की हानि हुई थी। यह जिला अब घोर पर्यावरणीय संकट झेल रहा है। इसी तरह एक जांच आयोग ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि वर्ष 1991 के बाद के वर्षों में गारो हिल्स जिले में अवैध कटान से मेघालय सरकार को लगभग 228 करोड़ की क्षति उठानी पड़ी थी।
मध्यप्रदेश देश का एकमात्र ऐसा राज्य है जहां सर्वाधिक संरक्षित वन क्षेत्र है। देश के संपूर्ण वन क्षेत्र का 23 प्रतिशत भाग मध्यप्रदेश में है। लगभग 4 लाख 42 हजार वर्ग किमी क्षेत्रफल में फैले इस प्रदेश का 15 हजार 6 सौ वर्ग किमी का इलाका घने जंगलों से आच्छादित है। इन जंगलों में बेशकीमती 60 करोड़ घनमीटर लकड़ी और 50 लाख टन बांस हैं। तेंदू पत्ता, कत्था, गोंद, हर्रा, चिरौंजी इत्यादि प्रचुर मात्रा में प्राप्त होते हैं, लेकिन विगत कुछ सालों में इन जंगलों पर वन विनाशकों की ऐसी कुदृष्टि पड़ी कि अब प्रदेश में कुल वन क्षेत्रफल सिमट कर 20 प्रतिशत के करीब आ गया है।
यही हाल देवभूमि उत्तराखंड का है। उत्तराखंड की प्राकृतिक वन संपदा में चीड़ के वनों का अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है। शंकुधारी प्रजाति की श्रृंखला के ये वन उत्तराखंड के मध्य हिमालय क्षेत्र में लगभग 5,000 वर्ग किमी में मध्य हिमालय क्षेत्र में 1000 मीटर से लगभग 1700 मीटर की ऊंचाई तक फैले हैं। ये चीड़वन अपने अलौकिक प्राकृतिक सौंदर्य के कारण विश्वविख्यात तो हैं ही; अपनी बहुआयामी उपयोगिता के कारण उत्तराखंड की आर्थिकी को भी एक सुदृढ़ आधार प्रदान करते हैं। जानकार बताते हैं कि बीती सदी में बीती सदी में इन वनों से प्रतिवर्ष अनुमानित 407988 घनमीटर काष्ठ व 316473 घनमीटर जलाऊ लकड़ी प्राप्त होती थी; इस संपूर्ण उत्पादन का ज्यादातर भाग चीड़वनों से ही प्राप्त होता है। हर साल इन्हीं चीड़वनों से 1 लाख क्लिंटन लीसा निकाला जाता है, जो तारपीन तेल, बूट पालिश, धूप, रबर, कपूर, मुहर लगाने की लाख, कीटनाशक दवाओं, अनेक प्रकार की स्याही बनाने तथा कागज व कपड़ा चमकीला करने में प्रयोग की जाती है। इन चीड़वनों को उत्तराखंड की रीढ़ कहा जाए, तो कोई अतिशयोक्ति न होगी, परंतु ये वन भी अब मानवीय लिप्सा की भेंट चढ़ते जा रहे हैं।
सनद रहे कि समुद्रतटीय वन विशेषकर मैनग्रोव, समुद्रीय तूफानों के वेग को कम करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। तट का कटाव रोकने व तटीय भूमि की क्षारीयता नियंत्रित करने में भी इनका विशेष महत्व है। इसके बावजूद इन वनों का विनाश रोज नए-नए बहाने बनाकर किया जा रहा है। वन विनाश का एक बड़ा कारण जहां अवैध कटाव या तस्करी है, वहीं इसके लिए बड़े बांध बांध खनन जैसी परियोजनाएं भी कम जिम्मेदार नहीं हैं।
ऐसी परियोजनाएं बहुमूल्य प्राकृतिक वन–संपदा को नष्ट करने वाली साबित हुई हैं। शीशम और सखुआ के विशाल वृक्षों की श्रंखलाएं विनाश के कगार पर हैं। टिहरी, औरंगा, नर्मदा, बाणसागर, रिहंद आदि परियोजनाओं के कारण सागौन, शीशम, महुआ व बांस के जंगल नष्ट हो रहे हैं। खनन परियोजनाओं से भी वन विनाश होता है। वन संरक्षण के प्रति उपेक्षा के कारण उन वन क्षेत्रों की व्यर्थ क्षति हो जाती है, जिन्हें खनन करते हुए भी बचाया जा सकता है। कई बार अल्पकालीन आर्थिक लाभ के लिए इस तथ्य को सर्वथा अनदेखा कर दिया जाता है कि ये प्राकृतिक वन कितने विविध तरह के और स्थायी लाभ देते हैं।
समझना होगा कि कृषि और पशुपालन अपने देश की मुख्य आजीविका है। वन उत्तम चरागाहों का काम करते हैं। सूखे और बाढ़ का भी दीर्घकालिक समाधान इन्हीं से मिलता है। वन-विभाग द्वारा किए गए सर्वेक्षणों से यह बात पूरी तरह से सिद्ध हो चुकी है कि वृक्षों की अधिकता के कारण जलप्रवाह धीमा हो जाता है, जिससे बाढ़ आने की संभावना कम हो जाती है। इसी प्रकार सघन वन वर्षा को आकर्षित करते हैं, जिससे सूखा पडऩे की संभावना क्षीण हो जाती है।
सामयिक जरूरत वनों की महत्ता को सही ढंग से पहचानने की है। इसके अभाव के कारण ही आकर्षक नारे, आंदोलनकारी, पर्यावरणविद् और सरकारी नीतियां मिल-जुलकर भी जनमानस को यह समझाने में असफल हैं कि वन हम सबके जीवन के मूलाधार हैं। इनको काटने का अर्थ है- अपनी जीवन रेखा को काटना । जरूरत इस बात की है कि स्थानीय लोगों के सहयोग से वनसंरक्षण के काम को प्रभावी ढंग से किया जाए; क्योंकि प्रदूषित वायु का शोषण व प्राणवायु प्रदान करने वाले ये वन ही प्रदूषण से जर्जर विश्व में एकमात्र आशा की किरण हैं।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)