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भारत में बढ़ते पाश्चात्य प्रभाव: फायदे, नुकसान और संस्कृति की सुरक्षा

Growing Western Influence in India: पाश्चात्य प्रभाव हमारे जीवन के कई पहलुओं – खान-पान, पहनावा और रीति-रिवाज पर गंभीर असर डाल रहा है।

Ankit Awasthi
Published on: 9 Jun 2025 4:36 PM IST
Growing Western Influence in India
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Growing Western Influence in India (Image Credit-Social Media)

Growing Western Influence in India: भारत, अपनी अतुलनीय सांस्कृतिक विरासत और विविध परंपराओं के लिए विश्व-विख्यात है। परंतु वैश्वीकरण और डिजिटल युग के इस दौर में, "पाश्चात्य प्रभाव" (Western Influence) हमारे जीवन के कई पहलुओं – खान-पान, पहनावा और रीति-रिवाज – पर गंभीर और बढ़ता असर डाल रहा है। यह एक अत्यंत ज्वलंत और चिंतनीय विषय है। यह प्रभाव कितना उचित है? इसके क्या फायदे-नुकसान हैं? और सबसे बढ़कर, अपनी माटी से जुड़ी अनमोल सांस्कृतिक धरोहर को कैसे सुरक्षित रखा जाए? ययह सवाल आज अत्यंत महत्वपूर्ण हैं।

विभिन्न क्षेत्रों पर प्रभाव:

खान-पान (Food Habits):


बदलाव:- फास्ट फूड (पिज्जा, बर्गर, नूडल्स), पैकेटबंद नमकीन, कोल्ड ड्रिंक्स और कॉफी शॉप्स का तेजी से प्रसार।

० ‘डाइनिंग आउट’ संस्कृति और ‘रेडी-टू-ईट’ खाद्य पदार्थों का बढ़ता चलन।

० घर के पारंपरिक पौष्टिक भोजन की जगह बाहरी खाने की आदत।

फायदे:

० सुविधा और समय की बचत।

० नए स्वादों और अंतर्राष्ट्रीय व्यंजनों का अनुभव।

० खानपान में विविधता।

नुकसान:

० दाल-सब्जी-रोटी जैसे पौष्टिक पारंपरिक आहार में कमी।

० मैदा, चीनी और प्रिजर्वेटिव्स युक्त अस्वास्थ्यकर भोजन का सेवन।

० मोटापा, मधुमेह और हृदय रोगों में वृद्धि।

० परिवार के साथ बैठकर भोजन करने की संस्कृति का क्षरण।

पहनावा (Clothing):

बदलाव:-

० जींस, टी-शर्ट्स, स्कर्ट्स और वेस्टर्न फॉर्मल्स का व्यापक उपयोग।

० पारंपरिक वस्त्रों (साड़ी, कुर्ता-पायजामा, धोती, लहंगा-चोली) का प्रयोग अब मुख्यतः विशेष अवसरों तक सीमित होना।

० युवाओं में पश्चिमी फैशन ट्रेंड्स का तेजी से अनुसरण।

फायदे:

० आरामदायक और कार्यात्मक (विशेषकर कामकाजी महिलाओं के लिए)।

० वैश्विक फैशन से जुड़ाव और अभिव्यक्ति की नई शैलियाँ।

० जलवायु और कार्य के अनुसार व्यावहारिक विकल्प।

नुकसान:-

० स्थानीय कपड़ा उद्योग (जैसे हथकरघा) पर नकारात्मक प्रभाव।

० क्षेत्रीय पहचान और शिल्प कौशल का धीरे-धीरे लोप होना।

० कई पारंपरिक वस्त्रों और उनसे जुड़ी कलाओं के अस्तित्व पर संकट।

रीति-रिवाज और सामाजिक व्यवहार (Customs & Social Practices):


बदलाव:-

० संयुक्त परिवार प्रणाली का टूटना और एकल परिवारों का बढ़ना।

०ःत्योहारों और धार्मिक अनुष्ठानों में पारंपरिक तरीकों की जगह 'मॉडर्न' या संक्षिप्त रीति का प्रचलन।

० विवाह जैसे संस्कारों में पश्चिमी रीति-रिवाजों (जैसे व्हाइट वेडिंग ड्रेस, वेडिंग प्लानर्स) का समावेश।

० व्यक्तिवादिता (Individualism) में वृद्धि, सामूहिकता और पारिवारिक बंधनों में ढील।

फायदे:-

० कुछ रूढ़िवादी प्रथाओं से मुक्ति मिलना।

० जीवनशैली में अधिक लचीलापन और व्यक्तिगत पसंद को महत्व।

० सामाजिक समानता और लैंगिक न्याय को बढ़ावा मिलना (कुछ हद तक)।

नुकसान:-

० सामाजिक एकता और पारिवारिक समर्थन प्रणाली का कमजोर होना।

० सांस्कृतिक पहचान और सामूहिक उत्सवों की भावना का ह्रास।

० गहरे सांस्कृतिक अर्थ वाले रीति-रिवाजों के महत्व का क्षरण।

० बुजुर्गों के ज्ञान और अनुभव की उपेक्षा।

संस्कृति संरक्षण के उपाय (Measures for Cultural Preservation):


शिक्षा और जागरूकता

० स्कूली पाठ्यक्रम में भारतीय कला, संस्कृति, इतिहास और दर्शन को प्रमुखता देना।

० स्थानीय भाषाओं, लोक कथाओं और पारंपरिक ज्ञान को बढ़ावा देना।

० युवाओं को सांस्कृतिक विरासत के महत्व से अवगत कराना।

पारिवारिक भूमिका:-

० परिवार में पारंपरिक त्योहारों, रीति-रिवाजों को उत्साहपूर्वक मनाना।

० बुजुर्गों द्वारा युवा पीढ़ी को कहानियों, लोकगीतों और परंपराओं से जोड़ना।

० पारिवारिक भोजन और सामूहिक गतिविधियों को प्राथमिकता देना।

सरकारी और संस्थागत प्रयास:-

० हस्तशिल्प, हथकरघा, लोक कलाओं और पारंपरिक कारीगरों को वित्तीय सहायता और बाजार उपलब्ध कराना।

० सांस्कृतिक धरोहर स्थलों का संरक्षण और प्रचार।

० ‘ वोकल फॉर लोकल' को बढ़ावा देकर स्वदेशी उत्पादों और कलाओं को प्रोत्साहन।

व्यक्तिगत जिम्मेदारी और संतुलन:-

० ‘अंधानुकरण’से बचते हुए पश्चिमी प्रभावों के सकारात्मक पहलुओं (जैसे वैज्ञानिक दृष्टिकोण, व्यक्तिगत स्वतंत्रता) को ग्रहण करना।

०ःदैनिक जीवन में पारंपरिक मूल्यों (जैसे सम्मान, करुणा, अतिथि सत्कार) को बनाए रखना।

० पारंपरिक वस्त्रों और भोजन को नियमित रूप से अपनाना।

पाश्चात्य प्रभाव को रोक पाना न तो संभव है और न ही पूर्णतः वांछनीय, क्योंकि इसने आधुनिकता, तकनीकी विकास और नए विचारों के द्वार खोले हैं। चुनौती ‘अस्वीकार’ करने की नहीं, बल्कि ‘चयन’ करने की है। हमें पश्चिम की उन बातों को अपनाना चाहिए जो हमारे विकास और जीवन की गुणवत्ता में सुधार करें, परंतु साथ ही अपनी सांस्कृतिक जड़ों को दृढ़ता से पकड़े रहना चाहिए। भारतीय संस्कृति की सच्ची ताकत उसकी समन्वय क्षमता में निहित है। हमें ‘ मकैनिकल अनुकरण’ ( Blind Imitation) के स्थान पर ‘ सृजनात्मक समन्वय’ ( Creative Assimilation) की राह अपनानी होगी। यही संतुलन भारत को एक आधुनिक राष्ट्र बनाते हुए भी उसकी अद्वितीय सांस्कृतिक आत्मा को जीवित रखेगा। जैसा कि महात्मा गांधी ने कहा था - "मैं दुनिया के सभी दरवाजों से होकर आना चाहता हूँ, पर अपनी संस्कृति की जड़ों को मजबूती से थामे रहना चाहता हूँ।" यही भावना हमारा मार्गदर्शन करनी चाहिए।

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