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गुजराती अस्मिता और क्षेत्रीय उग्रवाद
प्रमोद भार्गव
गुजरात में जिस तरह से उत्तर भारतीय कामगरों को धमकाकर बाहर निकाला गया, वह बेहद शर्मनाक है। यह पहलू तब और दुर्भाग्यपूर्ण हो जाता है, जब अपनी राजनीति चमकाने के लिए इलाकाई नेता क्षेत्रीय अस्मिता को भडक़ाते हैं। इस क्षेत्रीय उग्रवाद को भडक़ाने का आरोप ‘क्षत्रिय ठाकोर सेना’ के कार्यकर्ता और उसके अध्यक्ष व कांग्रेस विधायक अल्पेश ठाकोर पर है। याद रहे, गुजरात चुनाव में अल्पेश, हार्दिक पटेल और जिग्नेश मेवानी ही भाजपा को बड़ी चुनौती के रूप में पेश आए थे। क्या किसी भी उभरते उग्रवाद को बरदाश्त किया जाना चाहिए? पंजाब में पुख्ता हुआ उग्रवाद और कश्मीर में आतंकवाद का विस्तार ऐसी ही ढिलाई के नतीजे रहे हैं।
गुजरात के साबरकांठा जिले में बिहार के एक मजदूर ने 14 माह की बच्ची से 28 सितंबर को दुष्कर्म किया था, जिसके नतीजतन उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, मध्य प्रदेश और राजस्थान के मजदूरों पर हिंसक हमले शुरू हो गए और उन्हें तत्काल गुजरात छोडऩे की धमकियां दी जाने लगीं। महज एक व्यक्ति की दुष्प्रवृत्ति को गुजरात में रह रहे सभी प्रवासियों की प्रकृति मान लिया गया। देखते-देखते गुजरात के बड़ौदा, पाटन, गांधीनगर, अहमदाबाद, साबरकांठा और मेहसाणा जिलों में उग्र प्रदर्शनों के चलते लोग पलायन को मजबूर हो गए। इन पर जानलेवा हमले हुए और धन-संपदा भी छीनी गई। गुजरात में अनेक संगठित व असंगठित उद्योगों में सेवारत लोगों का यह पलायन उस भीड़-तंत्र का न्याय है, जो देश में कुछ सालों से लगातार सक्रिय रहते हुए धर्म, जाति, भाषा और क्षेत्रीयता के आधार पर अलगाव की भूमिका रचने में लगी है।
देश की उपराष्ट्रीयताओं के बहाने इन्हें वैधता देने की कोशिशें भी टीवी चैनलों की बहसों में साफ-साफ सुनाई देती है। कुछ साल पहले मुंबई में ऐसे ही उपराष्ट्रीयता को मराठी अस्मिता के बहाने शिव सेना और महाराष्ट्र नव-निर्माण सेना ने उकसाया था। बंगलुरु में पूर्वोत्तर के युवाओं के साथ भी ऐसा ही बर्ताव पेश आया था। इन मूल भारतीयों को कर्नाटकवासियों ने चीनी नागरिक मान लेने की भूल की थी। नतीजतन इन्हें अपने मूल निवास स्थलों पर पहुंचाने के लिए भारत सरकार को विषेश ट्रेनें चलानी पड़ी थीं। हालांकि बाद में शांति होने पर यथास्थिति बहाल हो गई थी। किंतु इसी क्षेत्रीय अस्मिता के चलते कश्मीर से विस्थापित किए गए चार लाख पंडित, जैन, बौद्घ और सिख 30 साल बाद भी बद्हाली की जिंदगी जी रहे हैं। गोया इन विघटनकारी शाक्तियों पर सख्ती से अंकुश नहीं लगाया गया तो मुश्किलों का समाधान स्थाई रूप से होने वाला नहीं है। अल्पेश हों या कोई और, ऐसे लोगों पर देशद्रोह का मामला चलाने की जरूरत है।
बिहार और उत्तर प्रदेश में गरीबी है, यह अपनी जगह हकीकत है। लेकिन इसी गरीबी की वजह से इन प्रांतों के जो मजदूर गुजरात, हरियाणा, पंजाब और दिल्ली में अपना पसीना बहाकर विकास की सरंचनाओं को सींचते है, उसी के परिणामस्वरूप इन राज्यों ने विकसित होने के तमगे हासिल किए हुए हैं। भवन निर्माण से लेकर खेती-किसानी तक में इनकी अहम् भूमिका है। जिन कारखानों में आग में तपाकर लोहे के सामान और औजार बनाए जाते हैं, उद्योगों में जहरीली गैसें और रसायन बनते हैं और जिस सड़ांध भरे कचरे से प्लास्टिक व लोहा बटोरकर फैक्ट्रियों की भट्टी में झोंका जाता है, ये सब जोखिम भरे काम यही मजदूर करते हैं। अब तो जानकारियां ये भी आ रही हैं कि जिन समृद्घशाली और उच्च शिक्षित पंजाब व हरियाणा में गर्भ में ही स्त्री भ्रूण हत्या के चलते पुरुष के अनुपात में स्त्री का जो औसत गड़बड़ाया है, उन पुरुषों की गृहणियां भी इसी बिहार की गरीब महिलाएं बन रही हैं।
मसलन बिहार के ये अशिक्षित विकास के हर क्षेत्र में समृद्घि के साथ खुशहाली फैलाने का काम कर रहे हैं। इसे दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि गरीबी, अशिक्षा और पिछड़ेपन के धब्बों से बिहार और उत्तर-प्रदेश मुक्त नहीं हो पा रहे हैं। इन्हें पिछड़ा बनाए रखने के बारे में कहा तो यहां तक जाता है कि देश के नीति-नियंता, राजनेता, नौकरशाह और उद्यमियों की सांठगांठ के चलते बिहार का योजनाबद्घ विकास इसलिए नहीं किया जा रहा है, जिससे बिहार से सस्ते श्रम का उत्पाद होता रहे। यह कुटिलता बिहार में असमानता बनाए रखने के अलावा श्रमिकों के साथ किया जा रहा सनातन अन्याय भी है। हालांकि किसी भी देश और राज्य के लिए श्रमिकों के लिए सम्मानजनक स्थिति का निर्माण तभी संभव है, जब हर मजदूर को काम उसी के राज्य में मिले। लेकिन दुर्भाग्यवश समूचे देश में विकास के मानदण्ड कुछ इस तरह के बनाए जा रहे हैं, जिनके चलते लघु व कुटीर उद्योग और खेती-किसानी का अस्तित्व सिमट रहा है, नतीजतन स्थानीय रोजगार खत्म हो रहे हैं।
गुजरात में नफरत की इस आग के फैलने और पलायन का सिलसिला उस दौर में हुआ, जब गुजरात, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और राजस्थान में भाजपा की सरकारें हैं और बिहार में नीतीश कुमार भाजपा के समर्थन से मुख्यमंत्री हैं। केंद्र में भी भाजपा की सरकार होने के साथ वही नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री हैं, जिन्होंने इन्हीं प्रवासी मजदूरों की कड़ी मेहनत के बूते गुजरात के औद्योगिक एवं प्रौद्योगिकी विकास को शिखर पर पहुंचाया। इसलिए स्वाभाविक है कोई भी कठोर निर्णय लेने में मतभेद उभरने की आशंका नहीं रह जाती है। फिर भी समय रहते सोशल मीडिया पर उस भडक़ाऊ संदेश पर अंकुश नहीं लगाया जा सका, जो हिंसा और पलायन का सबब बना।
संदेश की मामूली चिंगारी से भडक़ी आग पर पानी डालने की बजाय अल्पेश ठाकोर द्वारा हिंसक बोल, बोलने के इलेक्ट्रोनिक प्रमाण सामने आने के बाद भी वह कह रहे हैं कि इस मामले से उनका और उनके समर्थकों का कोई लेना-देना नहीं है। जबकि भाजपा पूरा दोष अल्पेश पर थोप रही है। इससे जाहिर होता है कि दोनों प्रमुख दल इस मुद्दे को पांच राज्यों में होने वाले चुनाव में भुनाना चाहते हैं। उन्हें इसे ठंडा कर सद्भाव पैदा करने से कोई वास्ता नहीं है। जबकि यह मुद्दा गुजरात के उद्योग-धंधों के लाभ-हानि से जुड़ा होने के साथ हजारों लोगों की आजीविका से भी जुड़ा है। इसलिए जो ईष्र्या व वैमनस्यता कायम हुई है उसे खत्म किया जाना लाजमी है। आक्रोषित क्षेत्रीय हमलावरों को यह भी समझाइश देने की जरूरत है कि यदि गुजराती मजदूर उद्योगों की जरूरत की संख्या में होते तो इन लाचारों को रोजगार मिलता ही क्यों? बहरहाल इस मामले में सामंजस्य नहीं बनाया गया तो आखिर में नुकसान गुजरात को ही उठाना होगा। फिलहाल जो प्रवासी लौट गए हैं, उनकी वापसी छठ पूजा के बाद ही संभव होगी। इस वापसी पर गुजरातियों ने अतिरिक्त उदारता व संवेदना प्रवासियों के प्रति नहीं दिखाई तो समाज में समरसता व आदर्श स्थिति का स्थाई निर्माण असंभव है।
(लेखक, वरिष्ठ साहित्यकार और पत्रकार हैं)