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सादगी की मूर्ति शास्त्रीजी की 115वीं जयंती पर शत शत नमन
विनीता
देश के एक सपूत की आज से 150वीं जयंती मनायी जा रही है लेकिन एक दूसरे सपूत की भी आज जयंती है वह थे लालबहादुर शास्त्री जिनकी आज 115वीं जयंती है। शास्त्री जी सादगी और दृढ़ता की मिसाल थे। देश के प्रधानमंत्री के रूप में उनका कार्यकाल हालांकि मात्र 18 महीने का था लेकिन वह अद्वितीय रहा।
शास्त्री
शास्त्री जी का जन्म मुगलसराय अब दीनदयाल उपाध्याय नगर में हुआ था। उनके पिता प्राथमिक विद्यालय में शिक्षक थे। सब उन्हें मुंशी जी कहा करते थे। बाद में वह राजस्व विभाग में क्लर्क हो गए थे। लालबहादुर की मां का नाम रामदुलारी था। जब वह मात्र डेढ़ साल के थे तभी उनके पिता का निधन हो गया। ननिहाल में रहकर उन्होंने शुरुआती शिक्षा ग्रहण की। बाद में इससे आगे की पढ़ाई उन्होंने वाराणसी में की। काशी विद्यापीठ से शास्त्री की उपाधि मिलने के बाद उन्होंने जातिसूचक शब्द श्रीवास्तव हमेशा के लिए हटा दिया। संयोग देखिये शास्त्री जी का ननिहाल मिर्जापुर था और ससुराल भी मिर्जापुर में हुई। ललिता शास्त्री से 1928 में उनका विवाह हुआ। उनकी छह संतानें हुईं। दो पुत्रियां कुसुम व सुमन तथा चार पुत्र हरिकृष्ण, अनिल, सुनील व अशोक।
शास्त्री जी सच्चे अर्थों में गांधीवादी थे। शिक्षा की समाप्ति के बाद वह भारत सेवक संघ से जुड़ गए और देश सेवा का व्रत ले लिया। इसी के बाद उन्होंने अपने राजनैतिक जीवन की शुरूआत की। उन्होंने सारा जीवन गरीबों की सेवा में लगाया।
मुगलसराय में पैदा हुए शास्त्री का स्कूल गंगा के दूसरी तरफ वाराणसी में था। बचपन में उनके पास गंगा नदी पार करने के लिए नाव वाले को देने के पैसे नहीं होते थे। इसलिए वह दिन में दो बार अपनी किताबें सिर पर बांधकर तैरकर नदी पार करते थे और स्कूल जाते थे। एक सच यह भी है कि शास्त्री फटे कपड़ों से बाद में रूमाल बनवा लेते थे। फटे कुर्तों को कोट के नीचे पहनते थे। इस पर जब एक बार उनकी पत्नी ने उन्हें टोका। तो उनका कहना था कि देश में बहुत ऐसे लोग हैं, जो इसी तरह गुजारा करते हैं।
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लाल बहादुर शास्त्री, बापू को अपना आदर्श मानते थे। उन्हें खादी से इतना लगाव था कि अपनी शादी में दहेज के तौर पर उन्होंने खादी के कपड़े और चरखा लिया था। लाल बहादुर शास्त्री प्रधानमंत्री बनने से पहले विदेश मंत्री, गृह मंत्री और रेल मंत्री जैसे अहम पदों पर थे। एक बार वे रेल की एसी बोगी में सफर कर रहे थे। इस दौरान वे यात्रियों की समस्या जानने के लिए थर्ड क्लास (जनरल बोगी) में चले गए। वहां उन्होंने यात्रियों की दिक्कतों को देखा। उन्होंने जनरल बोगी में सफर करने वाले यात्रियों के लिए पंखा लगवा दिया। पैंट्री की सुविधा भी शुरू करवाई।
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शास्त्री जी सादा जीवन में विश्वास रखते थे। प्रधानमंत्री होने के बावजूद उन्होंने अपने बेटे के कॉलेज एडमिशन फॉर्म में अपने आपको प्रधानमंत्री न लिखकर सरकारी कर्मचारी लिखा था। उनके बेटे ने एक आम इंसान के बेटे की तरह खुद को रोजगार के लिए खुद को रजिस्टर करवाया था। एक बार जब उनके बेटे को गलत तरह से प्रमोशन दे दिया गया, तो शास्त्री जी ने खुद उस प्रमोशन को रद्द करवा दिया।
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शास्त्री जी इतने र्इमानदार थे कि उन्होंने कभी भी प्रधानमंत्री के तौर पर उन्हें मिली हुई गाड़ी का निजी काम के लिए इस्तेमाल नहीं किया। शास्त्री किसी भी प्रोग्राम में वीवीआईपी की तरह नहीं, बल्कि एक आम इंसान की तरह जाना पसंद करते थे। प्रोग्राम में उनके लिए तरह-तरह के पकवानों का इंतजाम किया जाता था लेकिन, शास्त्री जी कभी नहीं खाते थे। उनका कहना था कि गरीब आदमी भूखा सोया होगा और मै मंत्री होकर पकवान खाऊं, ये अच्छा नहीं लगता। दोपहर के खाने में वे अक्सर सब्जी-रोटी खाते थे। शास्त्री ने युद्ध के दौरान देशवासियों से अपील की थी कि अन्न संकट से उबरने के लिए सभी देशवासी सप्ताह में एक दिन का व्रत रखें। उनके अपील पर देशवासियों ने सोमवार को व्रत रखना शुरू कर दिया था।