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विपक्ष की संयुक्त सेना का 'ममता बम' कितना दमदार
इन दलों के मुकाबले भाजपा की रणनीति दमदार है जिसके पास तीन तलाक और सवर्ण आरक्षण जैसे दो सशक्त हथियार हैं। बहुत संभावना इस बात की है कि किसानों के लिए कर्जमाफी जैसा कोई बम्पर हथियार या आयकर की छूट बढ़ाने का हथियार भाजपा की झोली से बाहर आ जाए।
रामकृष्ण वाजपेयी
प.बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने कोलकाता में विशाल रैली में विपक्षी दलों के तमाम नेताओं को जुटाकर एक बड़ा शक्ति प्रदर्शन किया है। कहा यह भी जा रहा है कि ममता बनर्जी ने यह शो प्रधानमंत्री पद के लिए अपना दावा मजबूत करने के लिए किया है।
गैरभाजपावाद के नाम पर सत्ता पर क्षेत्रीय क्षत्रप एक मंच पर आने की कोशिश कर रहे हैं। लेकिन एक बात तो साफ है कि गैर कांग्रेसवाद या गैर भाजपावाद का नारा टिकाऊ नहीं है। इन दलों के मुकाबले भाजपा की रणनीति दमदार है जिसके पास तीन तलाक और सवर्ण आरक्षण जैसे दो सशक्त हथियार हैं। बहुत संभावना इस बात की है कि किसानों के लिए कर्जमाफी जैसा कोई बम्पर हथियार या आयकर की छूट बढ़ाने का हथियार भाजपा की झोली से बाहर आ जाए।
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ऐसे में ममता की यह गैरभाजपावाद और गैर मोदी गैर शाह वाद कितना टिक पाएगा। कहना मुश्किल है। अगर विपक्ष कांग्रेस को साथ लेकर चलता है तो उसे अपना प्रधानमंत्री लाने की आजादी नहीं मिलेगी। विपक्ष की सबसे बड़ी दिक्कत यही है कि वह भाजपा को हराना चाहता है लेकिन कांग्रेस के साथ खड़ा भी नहीं होना चाहता। इसमें सबसे बड़ी बाधा उसके क्षत्रप हैं जो कि अपने अपने प्रधानमंत्री की ढपली बजा रहे हैं। विपक्षी नेताओं में राहुल गांधी, शरद पवार, ममता बनर्जी, मुलायम सिंह यादव, लालू यादव, मायावती, के. चंद्रशेखर राव सभी कहीं न कहीं मन में प्रधानमंत्री बनने की इच्छा पाले बैठे हैं।
अब इन हालात में जब लोकसभा चुनाव सिर पर हैं जनता विपक्ष को वोट देकर क्या करेगी। कांग्रेस का वजूद फिर भी एक राष्ट्रीय पार्टी का है राहुल गांधी मोदी के बाद देश के एक मात्र ऐसे नेता हैं जिनकी राष्ट्रीय स्तर पर मान्यता है। बाकी किसी की तो वह भी हैसियत नहीं है। ऐसे में जनता विपक्ष की इस खिचड़ी को कैसे हजम करेगी। भीड़ जुट जाना कोई बड़ी बात नहीं है। चुनावी रैलियों में जुटने वाली भीड़ वोट के रूप में निर्णायक नहीं होती यदि ऐसा होता तो विपक्षी उम्मीद्वार और उसकी पार्टी गलतफहमी का शिकार नहीं होती।
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विपक्षी गठबंधनों की कोई राष्ट्रीय नीति न होना भी उनके केंद्र की सत्ता पर दावेदारी को कमजोर कर रही है। ऐसे दलों और उनके प्रत्याशियों पर जनता कैसे विश्वास करेगी जिनकी राष्ट्रीय स्तर पर कोई नीति ही नहीं है।
भाजपा के खिलाफ एक उम्मीद्वार विपक्ष कभी खड़ा नहीं कर सकता क्योंकि अपनी मांद में दूसरे नेता को कोई भी नेता घुसने नहीं देगा। कांग्रेस यदि अलग से लड़ती है तो उसका मुकाबला ये बिखरा विपक्ष कभी नहीं कर सकता। अलबत्ता आपस में ही एक दूसरे के वोट काटेंगे ये प्रत्याशी। हां कांग्रेस यदि अपनी ठोस नीतियों को जनता के सामने रखने में सफल रही तो गैरकांग्रेसी विपक्ष के मुकाबले आसानी से जनता का विश्वास जीत सकती है। लेकिन यहां यह बात नहीं भूलनी चाहिए कि कांग्रेस और शेष विपक्ष आपस में गैरभाजपाई वोटों का शेयर ही बांटेगा।
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भाजपा के वोट बैंक पर इसका कोई असर नहीं पड़ेगा जिसका यह मानना है कि मोदी को अभी एक मौका और मिलना चाहिए। अभी अविश्वास जताना जल्दबाजी होगी। मोदी ने कैसे भी किया हिंदुत्व की धार को चाहे उतना मजबूत न किया हो लेकिन जनता के सर्वांगीण विकास पर उनका सारा ध्यान केंद्रित रहा है। अगर आर्थिक अपराधियों की बात करें तो जितने भी आर्थिक घोटाले हुए उनके सिरे कांग्रेस के शासन के समय के हैं मोदी की सख्त नीतियों से यह ढके छुपे चल नहीं पाए और उजागर हुए।
ममता ने इस रैली से एक बड़ा मुद्दा उठाया है वह है ईवीएम का। हालांकि पिछले विधानसभा चुनावों में भाजपा की हार हुई है। लेकिन विपक्ष को ईवीएम अभी भी खतरा नजर आ रही है। शायद ममता की रैली में जुटे नेताओं को यह लगता है कि मतपत्रों से उनकी जीत आसान हो जाएगी या शायद उन्हें बैलट की जगह मसल पावर पर ज्यादा भरोसा हो।
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खैर इतिहास गवाह है कि जब तक बैलट पेपर पर चुनाव हुए चुनावी हिंसा लगातार बढ़ती गई। ईवीएम के आने के बाद चुनावी हिंसा पर एक तरह से विराम लग चुका है। ऐसे में विपक्ष की फिर से पुराने दिन लौटाने की मंशा उसकी नेकनीयत पर सवाल जरूर लगाता है। चुनाव आयोग को भी यह देखना होगा कि विपक्ष की मंशा क्या है। शायद ममता बनर्जी भी यही संदेश देना चाहती थीं।