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इन्हे नहीं पता ,क्या होती है रेलगाड़ी और क्या होता है मोबाइल

sudhanshu
Published on: 25 July 2018 1:54 PM GMT
इन्हे नहीं पता ,क्या होती है रेलगाड़ी और क्या होता है मोबाइल
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लखनऊ: आपको आश्चर्य होगा। लेकिन है बिलकुल सच। अपने ही देश यानी भारत वर्ष के ही ये गांव हैं। इन गावो के लोगो ने न तो कभी रेलगाड़ी जैसी कोई चीज देखी है और न ही मोबाइल के बारे में इनको कुछ पता है।

प्रधानमंत्री के डिजिटल इंडिया जैसे सपनो के साथ यह हैरान कर देने वाली बात है। हर गांव को आधुनिक भारत का हिस्सा बनाने की दिशा में यहाँ आते आते विकास के कदम ठिठक से गए हैं। इनमे से आठ गांव उत्तराखंड में हैं और एक गांव झारखण्ड में मिला है।

उत्तराखंड के सर बड़ियार पट्टी क्षेत्र के आठ गांव

पहले बात करते हैं उत्तराखंड के सर बड़ियार पट्टी क्षेत्र के आठ गावो की। ये आठ गांव भारत-चीन सीमा से लगे उत्तराखंड के उत्तरकाशी जिले की सर-बडियार पट्टी के हैं। सच तो यह है कि यहाँ तक पहुंचने के लिए सड़क भी नहीं है। इन गांवों तक पहुंचने वाले पैदल रास्ते भी चलने लायक नहीं हैं। करीब 12,500 की आबादी वाले सर-बाडियार क्षेत्र के बाशिंदों के लिए तो मोबाइल भी अजूबा है। गांव के किसी व्यक्ति ने न तो कभी कोई रेलगाड़ी देखी है और न ही ये मोबाइल के बारे में कुछ जानते हैं।

गावो तक पहुंचने के लिए रास्ता तक नहीं

पुरोला तहसील की सर-बडियार पट्टी में सर, पौंटी, डिंगाड़ी, लेवटाड़ी, छानिका, गोल, किमडार व कस्लौं गांव पड़ते हैं। तहसील मुख्यालय पुरोला से इन गांवों तक पहुंचने के लिए 18 किमी से अधिक पैदल चलना पड़ता है। डिंगाड़ी और सर गांव में आठवीं के बाद बच्चों की शिक्षा पर विराम लग जाता है। सर-बडियार का सबसे नजदीकी इंटर कॉलेज 12 किमी दूर सरनौल में है। डिंगाड़ी में स्थित आयुर्वेदिक चिकित्सालय भी चिकित्सक विहीन है। जब इस बारे में जानकारी प्राप्त करने की कोशिश की गयी तो जिलाधिकारी डॉ. आशीष चौहान का कहना था कि सर-बडियार में सड़क और संचार की सुविधा उपलब्ध कराना प्राथमिकता में शामिल है।

झारखंड का जरकी गांव

इसी तरह झारखंड प्रदेश का एक गांव है जरकी। यहां के लोग प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री तक का नाम नहीं जानते हैं। करीब डेढ़ सौ की आबादी वाले इस जरकी गांव में आपको पहुंचने के लिए पथरीली सड़क पर पैदल सफर करना होगा। गांव में एक भी पक्का घर नहीं है। लोगों का मुख्य पेशा लकड़ी काटना और बेचना है। जंगल पर निर्भर ग्रामीण पड़ोस के पटमदा बाजार में लकड़ी बेचकर पैसे हासिल करते हैं। ग्रामीण नारायण टुडू कहते हैं, अधिकतर ग्रामीण पटमदा से आगे नहीं गए हैं। उन्हें ऐसी जरूरत ही नहीं पड़ी। यही कारण है कि गांववाले कभी ट्रेन पर नहीं चढ़े और न ही ट्रेन देख पाए।

यही जन्म और जीवन यही ख़त्म

जरकी गांव बेलडीह पंचायत में पड़ता है। इस पंचायत के मुखिया शिवचरण सिंह सरदार बताते हैं कि यहाँ विकास की बात बेकार है। यहां विकास की रोशनी तक नहीं पहुंच पाई है। आदिवासी बहुल इस गांव के लोग आसपास के गांवों तक ही सिमट कर रह गए हैं। हिंदी नहीं जानते हैं। संथाली में ही बातचीत करते हैं। इस कारण देश-दुनिया से कटे हुए हैं। रेलगाड़ी पर भी नहीं चढ़े हैं। जब कोई यहाँ से निकल कर बहार की दुनिया में जायेगा तब तो कुछ नया देखेगा। यहाँ से निकलने की कोई नौबत ही आयी। जो यहाँ जन्म लेता है , इन्ही जंगलो में गुजर बसर कर ख़त्म भी हो जाता है।

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