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India Last Telegraph Office: उन टिक-टिक की गूँज बाकी है, जो कभी लाखों दिलों की धड़कन थी, भारत के आखिरी टेलीग्राफ ऑफिस की कहानी
India Last Telegraph Office History: टेलीग्राफ की दुनिया धीरे-धीरे इतिहास की किताबों में सिमट गई है आइये जानते हैं भारत में टेलीग्राफ की कहानी का आखिरी पड़ाव।
India Last Telegraph Office
India Last Telegraph Office History: सोचो, एक वो दौर था जब मोबाइल फोन, व्हाट्सएप या ईमेल नहीं थे। फिर भी लोग दूर-दराज के शहरों, गाँवों तक अपनी बात पलक झपकते पहुँचा देते थे। कैसे? टेलीग्राफ के जरिए। छोटे-छोटे संदेश, जिन्हें मोर्स कोड में तारों के जरिए भेजा जाता था, लोगों की जिंदगी का अहम हिस्सा थे। जन्म की खबर हो, शादी का न्योता हो, या कोई जरूरी सूचना, टेलीग्राफ सब कुछ चुटकियों में पहुँचा देता था। लेकिन वक्त बदला, तकनीक बदली, और टेलीग्राफ की दुनिया धीरे-धीरे इतिहास की किताबों में सिमट गई। भारत में टेलीग्राफ की कहानी का आखिरी पड़ाव था दिल्ली का सेंट्रल टेलीग्राफ ऑफिस, जहाँ 14 जुलाई, 2013 को आखिरी टेलीग्राफ भेजा गया।
टेलीग्राफ का जादू: शुरुआत कैसे हुई
टेलीग्राफ की कहानी शुरू होती है 19वीं सदी से, जब सैमुअल मोर्स ने 1844 में अमेरिका में पहली बार टेलीग्राफ का जादू दिखाया। उन्होंने वाशिंगटन से बाल्टीमोर तक तारों के जरिए संदेश भेजा। भारत में यह तकनीक 1850 के आसपास आई, जब ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने कोलकाता और डायमंड हार्बर के बीच पहला टेलीग्राफ भेजा। यह दूरी थी करीब 50 किलोमीटर। उस वक्त यह किसी चमत्कार से कम नहीं था। लोग हैरान थे कि बिना कागज, बिना डाकिए, कैसे एक शहर से दूसरे शहर तक बात पल में पहुँच रही है।
1857 की क्रांति के दौरान टेलीग्राफ ने बड़ा रोल निभाया। अंग्रेजों ने इसके जरिए अपनी सेनाओं को खबरें भेजीं और हालात पर नजर रखी। लेकिन यह सिर्फ अंग्रेजों का हथियार नहीं था। धीरे-धीरे यह आम लोगों की जिंदगी में शामिल हो गया। गाँवों में टेलीग्राफ ऑफिस खुले, और लोग अपने संदेश भेजने लगे। छोटे-छोटे कागज पर लिखे संदेश, जिनमें शब्द गिने जाते थे, क्योंकि हर शब्द के पैसे लगते थे। लोग अपनी बात को जितना हो सके, उतना छोटा करके लिखते। “बेटा हुआ, सब ठीक” या “शादी तय, जल्दी आओ” जैसे संदेश आम थे।
सेंट्रल टेलीग्राफ ऑफिस: दिल्ली का दिल
दिल्ली का सेंट्रल टेलीग्राफ ऑफिस, जिसे CTO कहते हैं, भारत के टेलीग्राफ सिस्टम का दिल था। यह इमारत दिल्ली के कश्मीरी गेट में खड़ी थी, जहाँ से देश भर के लिए संदेश भेजे और प्राप्त किए जाते थे। यह वो जगह थी जहाँ दिन-रात टेलीग्राफ मशीनों की टिक-टिक चलती थी, और कर्मचारी मोर्स कोड में संदेशों को डीकोड करते थे। इस ऑफिस की दीवारों ने न जाने कितनी कहानियाँ सुनी-खुशी की, गम की, प्यार की, और इमरजेंसी की।
CTO में काम करने वाले कर्मचारी बताते हैं कि 20वीं सदी में यह ऑफिस हमेशा गुलजार रहता था। लोग लाइन में लगकर अपने टेलीग्राफ लिखवाने आते। कोई अपने बेटे को विदेश से वापस बुला रहा होता, तो कोई अपने रिश्तेदार को बीमारी की खबर दे रहा होता। यहाँ तक कि शादी-ब्याह के न्योते भी टेलीग्राफ से जाते थे। उस वक्त टेलीग्राफ सबसे तेज़ और भरोसेमंद तरीका था। डाक में हफ्तों लगते, लेकिन टेलीग्राफ कुछ घंटों में ही अपनी मंजिल तक पहुँच जाता।
टेलीग्राफ की चमक और उसका धीमा पड़ना
70-80 के दशक तक टेलीग्राफ अपनी चरम सीमा पर था। भारत में करीब 45,000 टेलीग्राफ ऑफिस थे, और लाखों लोग इस सेवा का इस्तेमाल करते थे। लेकिन फिर टेलीफोन आया और धीरे-धीरे मोबाइल फोन और इंटरनेट ने दुनिया बदल दी। 90 के दशक में लोग टेलीग्राफ की जगह फोन कॉल करने लगे। फिर ईमेल और एसएमएस ने टेलीग्राफ की जरूरत को और कम कर दिया।
2000 के दशक तक टेलीग्राफ ऑफिसों की रौनक कम होने लगी। दिल्ली का CTO, जो कभी हज़ारों संदेशों का ठिकाना था, अब सिर्फ कुछ सौ टेलीग्राफ ही भेजता था। ज्यादातर संदेश सरकारी कामों के लिए थे, जैसे कोर्ट की नोटिस या बैंक की सूचनाएँ। आम लोग अब व्हाट्सएप और ईमेल की दुनिया में खो चुके थे। टेलीग्राफ की लागत भी बढ़ रही थी। एक साल में इस सेवा से सिर्फ 75 लाख रुपये की कमाई हो रही थी, जबकि इसे चलाने में 100 करोड़ रुपये खर्च हो रहे थे। बीएसएनएल, जो टेलीग्राफ सेवा चलाता था, को यह घाटे का सौदा लगने लगा।
आखिरी टेलीग्राफ : एक युग का अंत
14 जुलाई, 2013 का दिन भारत के संचार इतिहास में एक खास दिन बन गया। इसी दिन दिल्ली के सेंट्रल टेलीग्राफ ऑफिस से आखिरी टेलीग्राफ भेजा गया। यह संदेश था अश्विनी मिश्रा नाम के एक शख्स का, जो उन्होंने राहुल गांधी को भेजा था। संदेश का मजमून क्या था, ये ज्यादा मायने नहीं रखता, लेकिन ये पल एक युग के खत्म होने का प्रतीक था। 163 साल तक भारत की जिंदगी का हिस्सा रही टेलीग्राफ सेवा उस दिन हमेशा के लिए बंद हो गई।
उस दिन CTO में काम करने वाले कर्मचारियों का मूड भी अजीब था। कुछ उदास थे, कुछ नॉस्टैल्जिक। कई कर्मचारी, जो सालों से यहाँ काम कर रहे थे, अपनी पुरानी यादें ताज़ा कर रहे थे। एक कर्मचारी ने बताया कि कैसे उनके दादाजी भी इसी ऑफिस में काम करते थे और कैसे वो बचपन में मशीनों की टिक-टिक सुनने आया करते थे। उस दिन ऑफिस में कुछ पत्रकार और नॉस्टैल्जिया के शौकीन लोग भी आए, जो इस आखिरी पल का हिस्सा बनना चाहते थे। कुछ ने आखिरी टेलीग्राफ भेजकर इसे यादगार बनाया।
टेलीग्राफ ऑफिस की जिंदगी
CTO में काम करने वालों की जिंदगी भी अपने आप में एक कहानी थी। यहाँ काम करने वाले लोग मोर्स कोड के जादूगर थे। वो बिना कागज देखे, सिर्फ टिक-टिक की आवाज़ से समझ लेते थे कि संदेश क्या है। उनके लिए यह सिर्फ नौकरी नहीं, बल्कि एक कला थी। दिन-रात शिफ्टों में काम होता। रात को भी अगर कोई इमरजेंसी टेलीग्राफ आता, तो कर्मचारी उसे तुरंत डीकोड करके सही जगह पहुँचाते।
कई बार टेलीग्राफ में गलतियाँ भी हो जाती थीं। मसलन, एक बार किसी ने “पिताजी बीमार” लिखा, लेकिन गलती से “पिताजी मर गए” पहुँच गया। ऐसे किस्से हँसी-मजाक का हिस्सा बन जाते थे, लेकिन उस वक्त ये गलतियाँ किसी की जिंदगी बदल देती थीं। कर्मचारी बताते हैं कि टेलीग्राफ लिखते वक्त लोग अपनी पूरी भावनाएँ कुछ शब्दों में समेटने की कोशिश करते थे। हर शब्द की कीमत थी, तो लोग सोच-समझकर लिखते।
टेलीग्राफ का सांस्कृतिक रंग
टेलीग्राफ सिर्फ संदेश भेजने का जरिया नहीं था, यह भारत की संस्कृति का हिस्सा था। बॉलीवुड की पुरानी फिल्मों में टेलीग्राफ का जिक्र खूब मिलता है। कोई डाकिया टेलीग्राफ लेकर आता था, और पूरा गाँव इकट्ठा हो जाता था। खुशी की खबर हो या दुख की, टेलीग्राफ हमेशा एक ड्रामा लेकर आता था। लोग डाकिए का इंतज़ार करते और जब वो कागज का टुकड़ा लेकर आता, तो सबकी साँसें थम जातीं।
गाँवों में टेलीग्राफ ऑफिस एक तरह का सामाजिक केंद्र था। लोग वहाँ इकट्ठा होते, अपनी बातें शेयर करते। कई बार टेलीग्राफ पढ़ने-लिखने में मदद करने वाले क्लर्क गाँव वालों के लिए दोस्त जैसे बन जाते थे। ये ऑफिस सिर्फ संदेश भेजने की जगह नहीं, बल्कि एक कम्युनिटी का हिस्सा थे।
टेलीग्राफ के बाद का दौर
टेलीग्राफ सेवा बंद होने के बाद सेंट्रल टेलीग्राफ ऑफिस की रौनक भी कम हो गई। वो इमारत, जो कभी दिन-रात गुलजार रहती थी, अब खामोश है। बीएसएनएल ने इसे अब दूसरे कामों के लिए इस्तेमाल करना शुरू किया। लेकिन उसकी दीवारों में अभी भी पुरानी कहानियाँ गूँजती हैं। कुछ लोग कहते हैं कि टेलीग्राफ की जगह आज का टेक्स्ट मैसेज या व्हाट्सएप है, लेकिन उस दौर का जादू कुछ और था।
टेलीग्राफ की खासियत थी उसकी सादगी और उसका इमोशन। आज के डिजिटल मैसेज में वो बात नहीं। टेलीग्राफ में हर शब्द कीमती था, और लोग उसे दिल से लिखते थे। आज के व्हाट्सएप पर लोग बिना सोचे मैसेज भेज देते हैं, लेकिन टेलीग्राफ में हर शब्द का वजन होता था।
टेलीग्राफ भले ही बंद हो गया, लेकिन इसने भारत के संचार इतिहास में एक अमिट छाप छोड़ी। यह वो दौर था जब तकनीक ने पहली बार लोगों को इतनी तेजी से जोड़ा। टेलीग्राफ ऑफिस ने गाँव-शहर, अमीर-गरीब, सबको एक धागे में पिरोया। दिल्ली का CTO उस दौर का साक्षी है, जब भारत आधुनिक संचार की दुनिया में कदम रख रहा था।
आज भी कुछ लोग टेलीग्राफ को याद करते हैं। कुछ संग्रहालयों में पुरानी टेलीग्राफ मशीनें रखी हैं, जो उस दौर की कहानी सुनाती हैं। कुछ लोग अपने पुराने टेलीग्राफ संदेशों को सहेजकर रखते हैं, जैसे वो कोई खजाना हों। ये संदेश सिर्फ कागज के टुकड़े नहीं, बल्कि उन पलों की यादें हैं, जो कभी जिंदगी का हिस्सा थे।
दिल्ली के सेंट्रल टेलीग्राफ ऑफिस की कहानी सिर्फ एक इमारत या एक तकनीक की कहानी नहीं है। यह उन लोगों की कहानी है, जिन्होंने अपने संदेशों को पंख दिए। ये उन कर्मचारियों की कहानी है, जिन्होंने रात-दिन मोर्स कोड की भाषा में जिंदगियाँ जोड़ीं। और ये उस भारत की कहानी है, जो पुराने और नए के बीच का पुल बन रहा था।
अगर कभी कश्मीरी गेट से गुजरना हो, तो उस पुरानी इमारत को एक नजर देखना। शायद वो खामोश है, लेकिन उसकी दीवारों में अभी भी उन टिक-टिक की गूँज बाकी है, जो कभी लाखों दिलों की धड़कन थी। टेलीग्राफ का दौर भले ही खत्म हो गया, लेकिन उसकी कहानी हमेशा जिंदा रहेगी।
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