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Jharkhand Ajab Gajab Village: झारखंड का वह गांव जहां संविधान भी ठहर जाता है, बेहद रोचक है पथलगड़ी की धरती की अद्भुत कहानी
Jharkhand Ajab Gajab Village: भारत के राज्य झारखंड में एक ऐसा गांव है जहाँ के लोग कहते हैं "यहां संविधान नहीं चलता यहां की सरकार हमारी नहीं है, इतना ही नहीं यहां प्रधानमंत्री भी बिना अनुमति नहीं आ सकते।"
Amazing Story of Jharkhand's Village (Image Credit-Social Media)
Jharkhand Ajab Gajab Village: झारखंड के घने जंगलों और आदिवासी परंपराओं से सजी धरती में कुछ ऐसा अनूठा है जो पहली बार सुनने पर अविश्वसनीय लगता है। ऐसा गांव, जहां के लोग कहते हैं "यहां संविधान नहीं चलता, यहां की सरकार हमारी नहीं है, और यहां प्रधानमंत्री भी बिना अनुमति नहीं आ सकते।" यह सिर्फ विद्रोह नहीं, एक चेतना है, एक परंपरा है, एक गर्जना है अपने अधिकारों की रक्षा के लिए। यह कहानी है पथलगड़ी आंदोलन की, जो झारखंड के खूंटी जिले के गांवों से जन्मा और देशभर में चर्चा का विषय बन गया।
पथलगड़ी: परंपरा नहीं, आत्मसम्मान का प्रतीक
"पथलगड़ी" शब्द का अर्थ है पत्थर खड़ा करना। यह आदिवासी समुदाय की एक प्राचीन परंपरा है जिसमें गांव की सीमाओं पर बड़े पत्थर लगाए जाते हैं, जिन पर ग्रामसभा की सीमाएं, नियम और अधिकार अंकित होते हैं। यह पत्थर सामुदायिक स्वशासन का प्रतीक होते हैं। आदिवासी समाज में ग्रामसभा सर्वोच्च संस्था होती है, और पथलगड़ी इस संस्था की सत्ता और आत्मनिर्भरता का प्रतीक है।
ये हैं इस अनोखे गांव से जुड़ी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
पथलगड़ी की परंपरा कोई नई नहीं है। यह सदियों पुरानी है, जब आदिवासी समाज बाहरी हस्तक्षेप से अपने गांवों को सुरक्षित रखने के लिए इस प्रकार की सीमांकन प्रक्रिया अपनाते थे। ब्रिटिश काल में भी, जब आदिवासी क्षेत्रों में जनजातीय विद्रोह हुए जैसे कि बिरसा मुंडा का आंदोलन, तब भी पथलगड़ी का उपयोग ग्राम अधिकारों की अभिव्यक्ति के रूप में हुआ। यह गांव केवल भौगोलिक सीमांकन नहीं, बल्कि सांस्कृतिक और राजनीतिक स्वराज का प्रतीक था।
आधुनिक आंदोलन संविधान बनाम स्वशासन
2017 से झारखंड के खूंटी, चाईबासा, गुमला जैसे जिलों में पथलगड़ी आंदोलन ने एक नया मोड़ लिया। गांवों में बड़े-बड़े पत्थर खड़े किए गए, जिन पर भारतीय संविधान की धारा 13(3), 19(5), 244 और 5वीं अनुसूची के अंश उकेरे गए। इन पर लिखा गया कि "ग्रामसभा सर्वोपरि है," और बाहरी लोगों – यहां तक कि सरकार, मीडिया और पुलिस – के प्रवेश पर प्रतिबंध लगाया गया।
इसका उद्देश्य था आदिवासी समाज की संवैधानिक स्वायत्तता की घोषणा। हालांकि सरकार ने इसे राज्य विरोधी गतिविधि माना और कई गांवों में पुलिस बल तैनात कर दिया गया। इसके चलते आंदोलन उग्र भी हुआ और कई झड़पें तथा गिरफ्तारियां भी हुईं।
धार्मिक मान्यताएं और आध्यात्मिक आयाम
पथलगड़ी सिर्फ एक राजनीतिक आंदोलन नहीं, बल्कि इसमें धार्मिक और आध्यात्मिक आस्था भी गहराई से जुड़ी हुई है। आदिवासी समाज प्रकृति को ईश्वर मानता है। पेड़, नदी, पत्थर, जंगल सभी उनके देवता हैं। पथलगड़ी का पत्थर उनके लिए केवल सीमांकन नहीं, बल्कि धरती मां का आशीर्वाद होता है। गांवों में पथलगड़ी के समय विशेष अनुष्ठान और पूजा होती है। पारंपरिक परिधान पहनकर, नगाड़ों की गूंज और आदिवासी गीतों के साथ यह आयोजन होता है। कई बार इन पत्थरों को सद्गुरु या पूर्वजों की आत्मा का प्रतीक माना जाता है, और उन्हें नियमित रूप से साफ किया जाता है।
गांव से जुड़े किस्से और लोकगाथाएं
पथलगड़ी से जुड़े कई रोचक किस्से लोकगाथाओं में प्रचलित हैं। एक किस्सा कहता है कि एक बार एक अंग्रेज अधिकारी ने बिना अनुमति गांव में घुसने की कोशिश की, तो गांववालों ने उसे रस्सियों से बांधकर एक पेड़ से लटका दिया और तब तक पानी नहीं दिया जब तक उसने माफी नहीं मांगी। यह किस्सा आज भी गांव के बुजुर्ग सुनाते हैं, ताकि अगली पीढ़ी को अपने अधिकारों का बोध बना रहे। एक अन्य कथा में कहा जाता है कि पथलगड़ी के समय ग्रामसभा में एक सर्प प्रकट हुआ, जिसे लोग पूर्वजों का दूत मानते हैं। उसने तीन बार फुफकारा, और तभी पत्थर स्थापित किया गया। तब से उस पत्थर को "नाग देवता की रक्षा" में माना जाता है।
गांव का जीवन और अनूठी संस्कृति
इन गांवों की खास बात यह है कि यहां का शासन पूरी तरह ग्रामसभा के हाथ में होता है। शिक्षा, चिकित्सा, न्याय और भूमि संबंधी निर्णय स्थानीय पंचायतें स्वयं करती हैं। बाहरी हस्तक्षेप को नकारा जाता है। शादी-ब्याह से लेकर अपराधों की सजा तक, सब कुछ परंपरागत आदिवासी कानूनों के तहत होता है। यहां की महिलाएं भी निर्णय प्रक्रिया में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। उन्हें न सिर्फ समान अधिकार प्राप्त हैं, बल्कि कई बार वे ग्रामसभा की मुखिया भी होती हैं।
सामाजिक चुनौतियां और सरकार की प्रतिक्रिया
सरकार के लिए यह आंदोलन एक चुनौतीपूर्ण स्थिति लेकर आया। संविधान के तहत किसी भी क्षेत्र में शासन व्यवस्था एकरूप होनी चाहिए, लेकिन पथलगड़ी के माध्यम से जो अलगाव की भावना उभर रही थी, उसे संभालना जरूरी था। कई बार आंदोलन में बाहरी तत्वों की घुसपैठ भी देखी गई, जिसने हिंसक गतिविधियों को जन्म दिया। सरकार ने कई नेताओं पर राजद्रोह के मुकदमे चलाए, लेकिन साथ ही यह भी महसूस किया कि आदिवासी समाज की भावनाओं और अधिकारों को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। हाल के वर्षों में संवाद की प्रक्रिया शुरू हुई है और कई स्थानों पर पथलगड़ी को संविधान के साथ सामंजस्य में देखने की पहल हुई है।
पर्यटन और जिज्ञासा का केंद्र
आज के समय में पथलगड़ी गांवों की रहस्यमयता और उनकी संस्कृति की स्वायत्तता देश-विदेश के पर्यटकों और शोधकर्ताओं को आकर्षित कर रही है। खूंटी के कुछ गांवों में अब पर्यटन की संभावनाएं भी बढ़ रही हैं, जहां लोग इन अनोखे पत्थरों को देखने, पारंपरिक जीवनशैली समझने और जनजातीय संस्कृति का अनुभव करने आते हैं।
पथलगड़ी आंदोलन भारत के उस पहलू को उजागर करता है जहां संविधान और परंपरा आमने-सामने नहीं, बल्कि एक संवाद की स्थिति में हैं। आदिवासी समाज का यह आत्मसम्मान और अधिकारों के लिए जागरूकता प्रेरणादायक है। जरूरी यह है कि संविधान की भावना के अनुरूप इन पारंपरिक व्यवस्थाओं को सम्मान दिया जाए और साथ ही सभी नागरिकों के मूल अधिकारों की रक्षा भी सुनिश्चित की जाए। झारखंड के ये गांव सिर्फ विरोध का प्रतीक नहीं, बल्कि एक समृद्ध सांस्कृतिक आत्मा के प्रहरी हैं, जो हमें बताते हैं कि भारत की आत्मा गांवों में बसती है और हर गांव की एक अलग कहानी होती है।
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