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History of Kashmir: कश्मीर की स्वर्ग से संघर्ष तक की यात्रा, जानिए धरती के स्वर्ग का संपूर्ण इतिहास
Kashmir Ka Itihas: कश्मीर का इतिहास उसकी सुंदरता जितना ही जटिल और संघर्षपूर्ण रहा है। यह धरती स्वर्ग जैसी है, लेकिन समय-समय पर यहां नरक जैसे हालात भी बने हैं।
History Of Kashmir (Photo - Social Media)
History Of Kashmir: भारत के उत्तर में स्थित कश्मीर केवल अपनी अद्वितीय प्राकृतिक सुंदरता के लिए ही नहीं, बल्कि अपने समृद्ध ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और धार्मिक महत्व के लिए भी विश्वभर में प्रसिद्ध रहा है। हिमालय की गोद में बसा यह क्षेत्र ‘धरती का स्वर्ग’ कहलाता है, लेकिन इसके सौंदर्य के पीछे एक लंबा और जटिल इतिहास छिपा है जिसमें आक्रमणों, सांस्कृतिक बदलावों, धार्मिक संक्रमणों और राजनीतिक संघर्षों की अनगिनत परतें मौजूद हैं। कभी यह बौद्ध धर्म की शरणभूमि था, तो कभी सूफी और इस्लामी परंपराओं की जीवंत मिसाल बन गया। बदलते समय के साथ कश्मीर, केवल एक भू-भाग नहीं रहा, बल्कि यह धार्मिक असहमतियों, राजनीतिक टकरावों और अंतरराष्ट्रीय शक्ति-संतुलन का एक संवेदनशील केंद्र बन गया है।
कश्मीर नाम की उत्पत्ति (Origin of the name Kashmir)
कश्मीर शब्द की उत्पत्ति को लेकर कई मान्यताएँ प्रचलित हैं। सबसे प्रसिद्ध मान्यता के अनुसार, 'नीलमत पुराण' में वर्णन मिलता है कि यह क्षेत्र पहले एक विशाल झील हुआ करता था जिसे "सतीसर" कहा जाता था।
ऋषि कश्यप ने इस झील का जल प्रवाहित कर भूमि को शुष्क किया और यहाँ बस्ती बसाई। इसी कारण इस क्षेत्र को “कश्यपमीर” (कश्यप की झील) कहा गया जो कालांतर में "कश्मीर" बन गया।
वैदिक काल और प्राचीन ग्रंथों में कश्मीर का उल्लेख
वैदिक काल और प्राचीन ग्रंथों में कश्मीर का उल्लेख इसके ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्व को दर्शाता है। नीलमत पुराण (4वीं से 8वीं सदी ई.) और कल्हण की राजतरंगिणी (12वीं सदी) जैसे ग्रंथों में कश्मीर की उत्पत्ति, भूगोल, धार्मिक परंपराओं और राजवंशों का विस्तृत विवरण मिलता है। नीलमत पुराण में कश्मीर को 'सतीसर' नामक एक विशाल झील बताया गया है, जिसे ऋषि कश्यप ने नागों की सहायता से सुखाकर बसाया था, और इसी कारण इसका प्राचीन नाम 'काश्यपमीर' पड़ा। महाभारत में भी कश्मीर (कश्मीरा) का उल्लेख है, जहां उल्लेख मिलता है कि युद्ध के समय वहां का राजा अल्पवयस्क था, इसलिए वह युद्ध में शामिल नहीं हो सका।
अर्जुन के दिग्विजय अभियान में भी कश्मीर का ज़िक्र है। रामायण में भी कश्मीर का संदर्भ मिलता है, हालांकि वह तुलनात्मक रूप से कम है। ये सभी उल्लेख दर्शाते हैं कि कश्मीर न केवल भौगोलिक रूप से बल्कि धार्मिक और ऐतिहासिक दृष्टि से भी अत्यंत महत्वपूर्ण रहा है।
प्राचीन सभ्यता और मानव बसावट
कश्मीर घाटी में मानव बसावट के प्रमाण नवपाषाण काल तक पहुँचते हैं, और बुरज़होम नामक पुरातात्विक स्थल की खुदाइयों से यह स्पष्ट होता है कि यहाँ 3000 ईसा पूर्व से 1000 ईसा पूर्व तक मानव निवास था। इस स्थल से प्राप्त पत्थर और हड्डियों के औज़ार, बर्तन, घरों के अवशेष, और कृषि तथा शिकार से जुड़े उपकरण यह दर्शाते हैं कि उस समय के लोग कृषि, पशुपालन, शिकार और मछली पकड़ने पर निर्भर थे। यहाँ गेहूं, जौ और मसूर की खेती के भी प्रमाण मिले हैं।
बुरज़होम की संस्कृति में न केवल स्थानीय परंपराओं की झलक मिलती है, बल्कि मध्य एशिया, दक्षिण-पश्चिम एशिया और सिंधु घाटी सभ्यता से संपर्क के संकेत भी मिलते हैं। इसके बावजूद, बुरज़होम की अपनी विशिष्ट पहचान थी, जैसे भूमिगत घर, हड्डी के औज़ार और विशिष्ट कला-शिल्प। कुछ कंकाल और औज़ार हड़प्पा सभ्यता से मिलते-जुलते हैं, जिससे दोनों सभ्यताओं के बीच संभावित संपर्क का संकेत मिलता है, हालांकि बुरज़होम ने अपनी एक स्वतंत्र सांस्कृतिक पहचान विकसित की थी।
राजाओं का काल और प्रारंभिक राजनीतिक इतिहास
'राजतरंगिणी' कश्मीर के इतिहास का पहला और सबसे विस्तृत राजनीतिक ग्रंथ है, जिसे 12वीं शताब्दी में संस्कृत कवि और इतिहासकार कल्हण ने लिखा था। इस ग्रंथ में आठ 'तरंग' (अध्याय) हैं, जो कश्मीर के प्राचीन काल से लेकर कल्हण के समकालीन युग तक की राजवंशीय और राजनीतिक घटनाओं का वर्णन करते हैं। इसमें ऐतिहासिक तथ्यों के साथ-साथ कई काल्पनिक और अतिरंजित कथाएँ भी शामिल हैं, जिस कारण आधुनिक इतिहासकार इसे पूरी तरह ऐतिहासिक स्रोत नहीं मानते। कल्हण के अनुसार, कश्मीर का पहला प्रमुख राजा गोनंद था, जिससे गोनंद वंश की शुरुआत होती है। इसके बाद कन्नव वंश, कार्कोट वंश आदि जैसे अन्य राजवंशों का भी उल्लेख मिलता है।
कार्कोट वंश (625–855 ई.) में ललितादित्य मुक्तापीड सबसे शक्तिशाली शासक थे, जिनके शासनकाल को कश्मीर का 'स्वर्ण युग' माना जाता है। उन्होंने तिब्बत, पंजाब और मध्य एशिया तक सैन्य अभियान चलाए और कश्मीर को सांस्कृतिक, राजनीतिक व आर्थिक दृष्टि से समृद्ध किया। उनके शासन में मार्तंड सूर्य मंदिर जैसे भव्य स्थापत्य का निर्माण हुआ। 'राजतरंगिणी' में कश्मीर पर मगध साम्राज्य के प्रभाव का भी उल्लेख है, हालांकि यह विवरण ऐतिहासिक रूप से पूर्ण रूप से प्रमाणित नहीं है।
धार्मिक परिवर्तन और बौद्ध प्रभाव
प्राचीन काल से ही कश्मीर धार्मिक विविधता का केंद्र रहा है। वैदिक युग में यह क्षेत्र विशेष रूप से शैव मत का प्रमुख केंद्र था, जहाँ कश्मीरी शैव दर्शन की अद्वितीय और अद्वैतवादी शाखा का विकास हुआ। मौर्य सम्राट अशोक के शासनकाल (268–232 ई.पू.) में कश्मीर में बौद्ध धर्म का तीव्र प्रसार हुआ और उन्होंने श्रीनगर के निकट अनेक स्तूप और विहार बनवाए। उस समय बौद्ध धर्म को राजकीय संरक्षण प्राप्त था और क्षेत्र की आर्थिक स्थिति भी समृद्ध थी। इसके पश्चात कुशाण वंश, विशेषकर सम्राट कनिष्क (78–144 ई.) के काल में बौद्ध धर्म और अधिक सशक्त हुआ।
कश्मीर बौद्ध अध्ययन और शिक्षा का केंद्र बना और गांधार कला की स्पष्ट छाप यहाँ की मूर्तिकला में देखी गई। इसी काल में चौथे बौद्ध महासम्मेलन का आयोजन श्रीनगर के कुंडलवन विहार में हुआ, जिसकी अध्यक्षता वसुमित्र ने की और जिसमें 500 बौद्ध विद्वानों ने भाग लिया। ये घटनाएँ कश्मीर की धार्मिक, सांस्कृतिक और बौद्धिक समृद्धि को दर्शाती हैं।
गुप्त काल और हिन्दू पुनरुत्थान
गुप्त काल (चौथी - छठी शताब्दी ई.) को भारतीय इतिहास का "स्वर्ण युग" माना जाता है, जिसमें कला, साहित्य, धर्म और दर्शन का व्यापक विकास हुआ। इस काल में हिन्दू धर्म, विशेषकर शैव और वैष्णव परंपराओं को नया बल मिला और मंदिर निर्माण व धार्मिक ग्रंथों की रचना को बढ़ावा मिला, जिससे उत्तर भारत सहित कश्मीर पर भी हिन्दू संस्कृति का प्रभाव पड़ा। हालांकि, कश्मीर में सांस्कृतिक पुनरुत्थान और मंदिर निर्माण का मुख्य दौर गुप्त काल के बाद के स्थानीय राजवंशों जैसे कार्कोट और उत्पल वंश के शासन में दिखाई देता है।
कश्मीरी शैव दर्शन का दार्शनिक विकास गुप्त काल के पश्चात, विशेषकर 8वीं से 11वीं शताब्दी के बीच हुआ। इस दर्शन की नींव आचार्य वसुगुप्त द्वारा रचित ‘शिवसूत्र’ से पड़ी, जिसे उनके शिष्यों कल्लट, सोमानंद, उत्पलदेव और बाद में अभिनवगुप्त ने समृद्ध किया। अभिनवगुप्त द्वारा रचित ‘तन्त्रालोक’ जैसे ग्रंथ इस दर्शन की दार्शनिक ऊँचाइयों का प्रतीक हैं। कश्मीरी शैववाद अनुभव, चेतना और अद्वैत को केंद्र में रखता है, जिसने कश्मीर को एक प्रमुख आध्यात्मिक केंद्र बना दिया। वहीं गुप्त काल में वैष्णव परंपरा को भी बढ़ावा मिला, परंतु कश्मीर की विशिष्ट पहचान शैव मत की गहराई में ही रही।
मध्यकालीन कश्मीर और मुस्लिम शासन
कश्मीर में इस्लाम का प्रवेश 14वीं शताब्दी में हुआ जब तिब्बती मूल के राजा रिंचन ने 1320 के आसपास सूफी संत बुलबुल शाह के प्रभाव में इस्लाम स्वीकार किया और 'सदर-उद-दीन' के नाम से कश्मीर के पहले मुस्लिम शासक बने। उनके बाद 1339 में शाह मीर ने शाह मीर वंश की स्थापना की, जिससे कश्मीर में पहला मुस्लिम राजवंश स्थापित हुआ। इस वंश के सबसे प्रसिद्ध शासक सुल्तान ज़ैन-उल-अबिदीन (1423–1474 ई.) थे, जिन्हें 'बुड शाह' यानी महान राजा कहा जाता है। उन्होंने धार्मिक सहिष्णुता, सांस्कृतिक समृद्धि और प्रशासनिक सुधारों को बढ़ावा दिया, जिस कारण उन्हें 'कश्मीर का अकबर' भी कहा जाता है। इसके पश्चात कश्मीर पर विभिन्न बाहरी शक्तियों ने शासन किया। 1586 में मुगल सम्राट अकबर ने कश्मीर को अपने साम्राज्य में शामिल किया। बाद में 1752 से 1819 तक अफगानों का शासन रहा। 1819 में सिख महाराजा रणजीत सिंह के नेतृत्व में कश्मीर सिख साम्राज्य का हिस्सा बना, और 1846 में महाराजा गुलाब सिंह के नेतृत्व में डोगरा वंश का शासन स्थापित हुआ ।
ब्रिटिश काल और डोगरा शासकों का उदय
1846 की लाहौर संधि के बाद, जब सिख साम्राज्य को ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी को 15 लाख रुपये का युद्ध हर्जाना देना पड़ा और वे इसे चुकाने में असमर्थ रहे, तब अंग्रेजों ने 16 मार्च 1846 को अमृतसर की संधि के माध्यम से कश्मीर को जम्मू के राजा गुलाब सिंह को 75 लाख नानकशाही रुपये में बेच दिया। इस प्रकार गुलाब सिंह जम्मू-कश्मीर के पहले डोगरा शासक बने और एक स्वतंत्र रियासत की स्थापना हुई। डोगरा वंश ने 1947 तक जम्मू-कश्मीर पर शासन किया, और अंतिम शासक महाराजा हरि सिंह ने भारत में विलय के दस्तावेज़ पर हस्ताक्षर कर दिए।महाराजा हरि सिंह इस रियासत के अंतिम शासक बने।
भारत-पाकिस्तान बंटवारा और कश्मीर का विलय
1947 में भारत की आजादी और पाकिस्तान के निर्माण के बाद कश्मीर एक स्वतंत्र रियासत थी। पाकिस्तान ने कबायली हमला करवाकर कश्मीर पर कब्जे की कोशिश की। मजबूर होकर महाराजा हरि सिंह ने भारत से सहायता मांगी और 26 अक्टूबर 1947 को कश्मीर का भारत में विलय कर दिया। इसके बाद भारतीय सेना ने पाकिस्तानी कबाइलियों को खदेड़ा, लेकिन तब तक पाकिस्तान कश्मीर के एक बड़े हिस्से (आज का पीओके) पर कब्जा कर चुका था।
संयुक्त राष्ट्र और पहला युद्धविराम
भारत ने मामला संयुक्त राष्ट्र(United Nations) में उठाया और 1 जनवरी 1949 को युद्धविराम लागू हुआ। तब से लेकर आज तक जम्मू-कश्मीर एक विवादास्पद मुद्दा बना हुआ है। संयुक्त राष्ट्र ने जनमत संग्रह का प्रस्ताव रखा था, लेकिन वह कभी लागू नहीं हो सका।
अनुच्छेद 370 और कश्मीर की विशेष स्थिति
1950 में भारतीय संविधान लागू हुआ और जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा देने के लिए अनुच्छेद 370 जोड़ा गया। इसके अंतर्गत राज्य को अपनी अलग संविधान और स्वायत्तता प्राप्त थी। साथ ही, अनुच्छेद 35A के तहत बाहरी लोगों को वहां भूमि खरीदने का अधिकार नहीं था।
कश्मीर में उग्रवाद और आतंकवाद का उदय
1989 से कश्मीर में उग्रवाद की शुरुआत हुई। पाकिस्तान समर्थित आतंकवादी संगठनों ने वहां हिंसा फैलानी शुरू की। इससे न केवल हजारों जानें गईं बल्कि लाखों कश्मीरी पंडितों को घाटी से पलायन करना पड़ा। यह इतिहास का एक दुखद अध्याय है, जो आज भी भारत की राष्ट्रीय चेतना को झकझोरता है।
अनुच्छेद 370 का हटना
5 अगस्त 2019 को भारत सरकार ने अनुच्छेद 370 को निरस्त कर दिया और जम्मू-कश्मीर को दो केंद्र शासित प्रदेशों में विभाजित कर दिया – जम्मू-कश्मीर और लद्दाख। यह निर्णय ऐतिहासिक था और इसका देश-विदेश में व्यापक प्रभाव पड़ा। पाकिस्तान ने इसे अंतरराष्ट्रीय मुद्दा बनाने की कोशिश की, लेकिन भारत ने स्पष्ट किया कि यह उसका आंतरिक मामला है।
संस्कृति, भाषा और साहित्य का उत्कर्ष
कश्मीर की संस्कृति अत्यंत समृद्ध रही है। संस्कृत यहाँ की प्रमुख भाषा रही है और अनेक साहित्यकारों ने यहाँ जन्म लिया। कल्हण (राजतरंगिणी), बिल्हण, सोमदेव, और अभिनवगुप्त जैसे विद्वानों ने न केवल इतिहास बल्कि साहित्य, सौंदर्यशास्त्र और दर्शन में भी अमूल्य योगदान दिया। राजतरंगिणी को भारतीय इतिहास लेखन की एक अनुपम कृति माना जाता है क्योंकि यह कालक्रम और तथ्यों के आधार पर लिखा गया पहला ऐतिहासिक ग्रंथ है।
धार्मिक सहिष्णुता और विविधता
प्रारंभिक काल में कश्मीर धार्मिक सहिष्णुता का उदाहरण रहा है। बौद्ध, शैव, वैष्णव, और बाद में इस्लाम – सभी ने इस धरती पर अपनी जगह पाई। लोगों के बीच आपसी समन्वय और सांस्कृतिक आदान-प्रदान ने कश्मीर को एक जीवंत और समावेशी समाज में रूपांतरित किया।
आज का कश्मीर(Current Situation Of Kashmir)
आज का कश्मीर धीरे-धीरे स्थिरता और सामान्य जीवन की ओर बढ़ रहा है। क्षेत्र में आधारभूत संरचना का विकास हो रहा है, पर्यटन उद्योग को प्रोत्साहन मिल रहा है, और शिक्षा व तकनीकी क्षेत्रों में सकारात्मक बदलाव देखने को मिल रहे हैं। युवा पीढ़ी के लिए रोजगार और नवाचार के नए अवसर सामने आ रहे हैं, साथ ही महिलाएं भी शिक्षा, व्यवसाय और उद्यमिता में सक्रिय भूमिका निभा रही हैं। हालांकि कश्मीर में आतंकवाद अब भी एक चुनौती बना हुआ है।
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