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Meghalaya Living Root Bridge: चमत्कार देखना हैं तो आ जाएं मेघालय के लिविंग रूट ब्रिज, यहाँ देखेंगें प्रकृति का कमाल नजारा

Meghalaya Living Root Bridge: भारत के उत्तर-पूर्व में बसा यह छोटा सा राज्य मेघालय में आपको एक अलग जादुई दुनिया नज़र आएगी जो यहाँ की असली शान कहा जाता है वो है लिविंग रूट ब्रिज।

Akshita Pidiha
Published on: 10 Jun 2025 2:16 PM IST
Meghalaya Living Root Bridge Miracle Story
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Meghalaya Living Root Bridge Miracle Story 

Meghalaya's Living Root Bridge: मेघालय का नाम सुनते ही आँखों के सामने हरियाली, बारिश, झरने और बादल छा जाते हैं। भारत के उत्तर-पूर्व में बसा यह छोटा सा राज्य अपने आप में एक जादुई दुनिया है। यहाँ के जंगल, पहाड़ और संस्कृति हर किसी को मंत्रमुग्ध कर देते हैं। पर मेघालय की असली शान हैं इसके लिविंग रूट ब्रिज, यानी जीवित जड़ों के पुल। ये वो पुल हैं जो पेड़ों की जड़ों से बनते हैं, इंसान और प्रकृति के गजब के तालमेल से। यह कोई साधारण पुल नहीं, बल्कि समय के साथ और मजबूत होने वाला प्रकृति का चमत्कार हैं। इस लेख में हम इन पुलों की कहानी, उनके बनने का तरीका, खासी लोगों की जिंदगी में उनकी अहमियत और दुनिया भर में उनकी ख्याति की बात करेंगे।

लिविंग रूट ब्रिज का जादू


सोचिए, एक ऐसा पुल जो न लोहे से बना, न सीमेंट से, बल्कि जिंदा पेड़ों की जड़ों से। मेघालय के चेरापूंजी, सोहारा और मावलिननॉन्ग जैसे इलाकों में ये अनोखे पुल देखने को मिलते हैं। इन्हें बनाया जाता है फिकस इलास्टिका नाम के रबर के पेड़ की जड़ों से, जिनकी जड़ें इतनी मजबूत और लचीली होती हैं कि नदियों-खाइयों को पार करने का रास्ता बन जाती हैं। ये पुल जितने पुराने होते हैं, उतने ही पक्के हो जाते हैं। मेघालय में बारिश इतनी ज्यादा होती है कि लकड़ी या बांस के पुल जल्दी खराब हो जाते हैं। पर ये जड़ों वाले पुल बारिश, बाढ़, सबका डटकर मुकाबला करते हैं। ये सिर्फ रास्ता पार करने का जरिया नहीं, बल्कि खासी लोगों की सूझबूझ और प्रकृति से उनके गहरे रिश्ते का सबूत हैं।

कहाँ से शुरू हुई यह कहानी

कोई नहीं जानता कि इन पुलों की शुरुआत कब हुई। कोई लिखित इतिहास नहीं, बस खासी लोगों की कहानियाँ और उनकी पीढ़ियों से चली आ रही बातें। माना जाता है कि यह सिलसिला कम से कम पाँच सौ साल पुराना है। मेघालय में बारिश का मौसम इतना तगड़ा होता है कि नदियाँ उफान पर रहती हैं। बांस के पुल बनाओ तो कुछ ही महीनों में टूट जाते। खासी लोगों ने इस मुश्किल का हल निकाला फिकस के पेड़ की जड़ों से। उनकी जड़ें न सिर्फ मजबूत होती हैं, बल्कि बढ़ती भी रहती हैं। खासी लोग बताते हैं कि उनके बुजुर्गों ने प्रकृति से सीखा कि उसका साथ देना ही सबसे सही रास्ता है। इसीलिए उन्होंने जड़ों को नदियों के पार ले जाना शुरू किया। यह ज्ञान एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुँचा और आज भी कायम है।

कैसे बनते हैं ये अनोखे पुल


लिविंग रूट ब्रिज बनाना कोई जल्दबाजी का काम नहीं। इसमें वक्त लगता है, धैर्य चाहिए और प्रकृति के साथ तालमेल जरूरी है। चलिए, इसे आसान भाषा में समझते हैं कि ये पुल बनते कैसे हैं।

सबसे पहले फिकस का पेड़ लगाया जाता है नदी या खाई के किनारे। ये पेड़ खास है क्योंकि इसकी जड़ें हवा में भी बढ़ सकती हैं। फिर इन जड़ों को बांस की लंबी टहनियों या खोखली लकड़ियों की मदद से नदी के उस पार ले जाया जाता है। बांस एक तरह से रास्ता दिखाने का काम करता है। जड़ें धीरे-धीरे बढ़ती हैं और उस पार पहुँचती हैं। खासी लोग इन जड़ों को आपस में गूंथते हैं, जैसे कोई चटाई बुन रहा हो। कभी-कभी पत्थर या लकड़ी के टुकड़े डालकर जड़ों को और मजबूती दी जाती है।

यह सब रातोंरात नहीं होता। एक पुल को तैयार होने में 15 से 20 साल तक लग सकते हैं। इस दौरान गाँव के लोग मिलकर जड़ों की देखभाल करते हैं, उन्हें सही दिशा में मोड़ते हैं। जब पुल बन जाता है, तो वो इतना मजबूत होता है कि 50-60 लोग एक साथ उस पर चल सकते हैं। और खास बात, यह पुल कभी खत्म नहीं होता। जड़ें बढ़ती रहती हैं, नई जड़ें जोड़ी जाती हैं, और पुल और पक्का होता जाता है।

खासी जिंदगी का हिस्सा

ये पुल सिर्फ नदी पार करने का रास्ता नहीं, बल्कि खासी लोगों की जिंदगी का अहम हिस्सा हैं। गाँवों को जोड़ने, सामान लाने-ले जाने और एक-दूसरे से मिलने में इनका बड़ा रोल है। खासी लोग प्रकृति को अपना दोस्त मानते हैं और ये पुल उस दोस्ती की मिसाल हैं।


इन पुलों को बनाना और संभालना गाँव वालों का सामूहिक काम है। बच्चे, बूढ़े, जवान, सब मिलकर जड़ों को मोड़ते हैं, उनकी देखभाल करते हैं। यह काम एक तरह से उनकी संस्कृति का हिस्सा है, जो उन्हें एकजुट रखता है। बच्चों को बचपन से ही सिखाया जाता है कि इन जड़ों को कैसे संभालना है, ताकि यह परंपरा जिंदा रहे। ये सिर्फ पुल नहीं, बल्कि खासी लोगों की एकता और प्रकृति से प्यार का प्रतीक हैं।

पर्यावरण का दोस्त

लिविंग रूट ब्रिज पर्यावरण के लिए भी कमाल के हैं। इनके लिए न जंगल काटने पड़ते हैं, न सीमेंट-लोहे का इस्तेमाल होता है। फिकस के पेड़ हवा को साफ करते हैं, कार्बन डाइऑक्साइड सोखते हैं और जंगल की जैव विविधता को बढ़ाते हैं। ये पुल बनते ही जंगल का हिस्सा बन जाते हैं, जैसे वो हमेशा से वहाँ थे।

मेघालय के घने जंगल और भारी बारिश वाले इलाके में ये पुल पर्यावरण के साथ पूरी तरह घुलमिल जाते हैं। इनके बनने से नदियों को नुकसान नहीं होता, न पेड़ कटते हैं। ये वो इंजीनियरिंग है जो प्रकृति को नुकसान पहुँचाए बिना इंसान की जरूरत पूरी करती है। आज जब दुनिया पर्यावरण बचाने की बात कर रही है, ये पुल हमें सिखाते हैं कि प्रकृति के साथ मिलकर काम करना कितना आसान और फायदेमंद हो सकता है।

पर्यटकों की पसंद


मेघालय के ये लिविंग रूट ब्रिज अब दुनिया भर में मशहूर हो चुके हैं। खासकर नोंग्रीआट गाँव का डबल डेकर लिविंग रूट ब्रिज, जो दो मंजिला है, देखने वालों को हैरान कर देता है। हर साल हजारों लोग चेरापूंजी और मावलिननॉन्ग आते हैं, सिर्फ इन पुलों को देखने। यह नजारा ऐसा है कि जंगल के बीच, हरी-भरी वादियों में, पेड़ों की जड़ों से बना एक पुल आपको अचंभा देता है।

पर्यटकों की भीड़ ने इन पुलों को तो मशहूर कर दिया, पर कुछ चुनौतियाँ भी ला दीं। ज्यादा लोग आने से जंगल को नुकसान होने का डर है। कचरा, शोर और बिना सोचे-समझे पुलों पर चढ़ना इन नाजुक संरचनाओं को खराब कर सकता है। इसीलिए अब स्थानीय लोग और सरकार सतत पर्यटन पर जोर दे रहे हैं। वो चाहते हैं कि लोग आएँ, इन पुलों की खूबसूरती देखें, पर प्रकृति का सम्मान भी करें। कुछ जगहों पर पर्यटकों की संख्या सीमित की जा रही है, ताकि जंगल और पुल सुरक्षित रहें।

चुनौतियाँ और भविष्य

इन पुलों को बनाए रखना आसान नहीं। आजकल के युवा आधुनिक जिंदगी की ओर बढ़ रहे हैं। कई को ये पुरानी तकनीक सीखने में रुचि नहीं। ऊपर से कंक्रीट के पुल तेजी से बन जाते हैं, तो लोग उसी की ओर भागते हैं। पर खासी लोग जानते हैं कि उनके जड़ों के पुल कुछ खास हैं।

मेघालय सरकार और कुछ संगठन इन पुलों को बचाने की कोशिश कर रहे हैं। कोशिश है कि इन्हें यूनेस्को की विश्व धरोहर सूची में शामिल किया जाए। इससे न सिर्फ इनकी कीमत बढ़ेगी, बल्कि इन्हें बचाने के लिए और संसाधन मिलेंगे। गाँव वालों को भी प्रोत्साहन दिया जा रहा है कि वो बच्चों को यह कला सिखाएँ। कुछ जगहों पर नए पुल बनाए जा रहे हैं, ताकि यह परंपरा जिंदा रहे।


मेघालय के लिविंग रूट ब्रिज सिर्फ पेड़ों की जड़ों से बने ढाँचे नहीं, बल्कि इंसान और प्रकृति के रिश्ते की मिसाल हैं। ये हमें बताते हैं कि अगर हम प्रकृति का साथ दें, तो वो हमें कितना कुछ दे सकती है। खासी लोगों की यह कला, उनकी सूझबूझ और पर्यावरण से प्यार दुनिया के लिए एक सबक है।

आज जब हम पर्यावरण की समस्याओं से जूझ रहे हैं, ये पुल हमें रास्ता दिखाते हैं। ये सिखाते हैं कि टिकाऊ और सुंदर चीजें बनाने के लिए हमें प्रकृति के साथ दोस्ती करनी होगी। इन पुलों को बचाना सिर्फ मेघालय की विरासत को बचाना नहीं, बल्कि आने वाली पीढ़ियों को यह बताना है कि प्रकृति के साथ मिलकर जिया जा सकता है। तो अगली बार मेघालय जाएँ, तो इन जड़ों के पुलों को जरूर देखें, और उनकी कहानी को दिल से महसूस करें।

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