×

आत्मसंयम का संस्कार गढ़ता है श्रावणी पर्व

उत्सवधर्मी भारतीय संस्कृति के पर्व -त्योहार सिर्फ मौजमस्ती के लिए नहीं हैं, इनके पीछे निहित शिक्षण सर्वकालिक व सर्वोपयोगी हैं। श्रावणी रक्षाबंधन ऐसा ही एक वैदिक पर्व है जिसका दिव्य तत्वदर्शन आज के संदर्भ में पहले से अधिक प्रासंगिक है। यह पर्व शिक्षा,

tiwarishalini
Published on: 6 Aug 2017 5:45 AM GMT
आत्मसंयम का संस्कार गढ़ता है श्रावणी पर्व
X

पूनम नेगी

लखनऊ: उत्सवधर्मी भारतीय संस्कृति के पर्व -त्योहार सिर्फ मौजमस्ती के लिए नहीं हैं, इनके पीछे निहित शिक्षण सर्वकालिक व सर्वोपयोगी हैं। श्रावणी रक्षाबंधन ऐसा ही एक वैदिक पर्व है जिसका दिव्य तत्वदर्शन आज के संदर्भ में पहले से अधिक प्रासंगिक है। यह पर्व शिक्षा, स्वास्थ्य तथा सांस्कृतिक मूल्यों की स्थापना का अनूठा शिक्षण देता है। इसे जीवन मूल्यों की रक्षा के संकल्प पर्व के रूप में इसलिए मनाया जाता है क्योंकि उन्नत जीवन मूल्य ही सुखी एवं समृद्ध जीवन की आधारशिला रख सकते हैं।

वैदिक भारत का समाज यदि आज की अपेक्षा अधिक व्यवस्थित एवं अनुशासित था तो इसका मूल कारण था कि श्रावणी जैसे पर्वों के द्वारा समाज का ब्राह्मण वर्ग तप व साधनात्मक पुरुषार्थों के द्वारा राष्ट्र की आध्यात्मिक शक्ति को पूंजीभूत करने को संकल्पित रहता था। राष्ट्र की आध्यात्मिक, सैन्य व अर्थशक्ति को राष्ट्र को सुदृढ़ करने के लिए समन्वयात्मक प्रयास ही इस पर्व का मूल उद्देश्य था। यही कारण रहा कि विदेशी आक्रान्ताओं द्वारा देश को छिन्न-भिन्न करने के अनेक क्रूर प्रयास हमें विचलित न कर सके।

श्रावणी पर्व

- श्रावणी पर्व पर ब्रह्म का "एकोहं बहुस्यामं" का संकल्प फलित हुआ था।

- पौराणिक आख्यान है कि जगत पालक श्रीहरि की नाभि से कमलनाल निकली और उसमें से कमल पुष्प विकसित हुआ।

- फिर उस पर सृष्टि के रचनाकार ब्रह्मा प्रकट हुए जिन्होंने विश्व ब्रह्माण्ड का सृजन किया।

- ज्ञान व कर्म के संयोग से सूक्ष्म चेतना व संकल्प शक्ति स्थूल वैभव में परिणत हुई और संसार का विशाल कलेवर निर्मित हुआ। वैदिक मनीषियों के अनुसार इस आख्यान के पीछे श्रावणी पर्व का मूल तत्वदर्शन यह है कि जब संकल्प शक्ति क्रिया में परिणित होती है तो उसका स्थूल रूप वैभव एवं घटनाक्रम बनकर सामने आता है।

श्रावणी उपाकर्म के तीन मूल पक्ष हैं- प्रायश्चित्त संकल्प, संस्कार और स्वाध्याय। सर्वप्रथम प्रायश्चित्त रूप में गोदुग्ध, दही, घृत, गोबर और गोमूत्र व कुशा आदि शुभ व गुणकारी वस्तुओं से हेमाद्रि स्नान व यज्ञोपवीत धारण कर साधक संकल्पपूर्वक बीते वर्षभर में जाने-अनजाने में हुए पापकर्मों का प्रायश्चित्त करता है।भारतीय संस्कृति में यज्ञोपवीत धारण को आत्मसंयम का संस्कार माना गया है। इस संस्कार का तात्पर्य यह है कि जो व्यक्ति आत्मसंयमी है, वही संस्कार से दूसरा जन्म लेकर "द्विज" कहला सकता है।

उपाकर्म का तीसरा पक्ष स्वाध्याय का है जिसकी शुरुआत वैदिक मंत्रों की यज्ञाहुतियों के साथ होती है और साधक को स्वाध्याय और सुसंस्कारों के विकास के लिए प्रेरित करती है। इस दिन गुरु अपने शिष्य की उज्ज्वल भविष्य एवं संकट से रक्षा हेतु रक्षा सूत्र बांधते हैं। श्रावणी उपाकर्म के इस विधान को जीवनशोधन की एक अति महत्वपूर्ण मनोवैज्ञानिक-आध्यात्मिक प्रक्रिया माना जा सकता है। श्रावणी पर्व पर शिवलिंग पर गंगाजल अर्पित करना अत्यंत शुभफलदायी माना जाता है। वेदमंत्र है, "तन्मे मन: शिव संकल्पमस्तु ।" यानी हम शिव (कल्याण) संकल्प मन वाले बनें। शिव संकल्प ही अशिव बुराइयों को खत्म कर सकता है।

वैदिक मनीषा कहती है कि लोग सही मायने में शिवपूजा का अर्थ समझें और अपने अंदर शिवत्व का भाव जागृत करें तभी समाज में शिवत्व यानी कल्याण की दिशा में अग्रसर हुआ जा सकता है, यही श्रावणी पर शिवार्चन का मूल मर्म है। इस पर्व पर की जाने वाली इन शुभ क्रियाओं का यह मूल भाव बीते समय में मनुष्य से हुए ज्ञात-अज्ञात बुरे कर्म का प्रायश्चित करना और भविष्य में अच्छे कार्य करने की प्रेरणा देना है।

हमारे तत्वदर्शी ऋषियों ने अंतस के परिमार्जन व मनुष्य की महान गरिमा के अनुरूप जीवन जीने के अभ्यास को "द्विजत्व की साधना" कहा तथा इस साधना के लिए संकल्पित होने के लिए श्रावणी पूर्णिमा को सर्वाधिक शुभ दिन के रूप में चुना। यह दिन "द्विजत्व" की साधना को जीवन्त व प्रखर बनाने का पर्व है। वैदिक चिंतकों के मुताबिक "द्विजत्व" धारण करने का अधिकार सिर्फ ब्राह्मण कुल में जन्म लेने तक सीमित नहीं है; अपितु ज्ञान और कर्म के संकल्पित समन्वय से प्रत्येक मनुष्य अपने भीतर यह पात्रता विकसित कर सकता है। इसीलिए वैदिक संस्कृति में श्रावणी पर्व को अत्यधिक महत्वपूर्ण माना गया है।

दूसरे शब्दों में कहें तो मनुष्य जब इस पर्व के प्राण-प्रवाह के साथ पूरी अंतरंगता से जुड़ता है तो उसकी मानवीय गरिमा ससीम से असीम तक विकसित हो सकती है। आमतौर पर सांसारिक मायाजाल में मन की कमजोरियों और विषम परिस्थितियों में कई बार लोगों से भूलें हो जाती हैं। मनुष्य की गलतियां उसे कचोटती हैं, अपराध बोध देती हैं। मगर निराश होने की जरूरत नहीं; श्रावणी उपाकर्म की यह दिव्य पर्व आत्मपथ के जिज्ञासु को अपनी भूल-चूकों को चिन्हित कर आत्म समीक्षा द्वारा अंतस के सुधार व संशोधन का अवसर देता है।

प्राचीन काल में इसी दिन से वेदों का अध्ययन आरम्भ करने की प्रथा थी। इस दिन विद्यार्थी पवित्र नदी में स्नान कर वेदाध्ययन के प्रारम्भ से पूर्व नवीन यज्ञोपवीत धारण करते थे। भारत में जिस समय गुरुकुल शिक्षा प्रणाली पूर्ण उत्कर्ष पर थी और शिष्य गुरु के आश्रम में ही रहकर विद्याध्ययन करते थे, उस समय विद्या ग्रहण के उपरान्त शिष्य गुरु से आशीर्वाद लेने के लिए उनसे अपनी कलाई पर रक्षा सूत्र बंधवाते थे और संकल्प लेते थे कि उन्होंने गुरु से जो ज्ञान प्राप्त किया है, सामाजिक जीवन में उस ज्ञान का सदुपयोग कर अपने गुरुओं का मस्तक गर्व से ऊंचा करेंगे। आज भी यह परम्परा किन्हीं अंशों में वैदिक परम्परा के आधार पर चल रहे गुरुकुलों में देखी जा सकती है।

श्रावण शुक्ल की पूर्णिमा को भारतवर्ष में भाई-बहन के प्रेम व रक्षा का पवित्र त्योहार "रक्षा बन्धन" का पर्व मनाया जाता हैं। सावन में मनाए जाने के कारण इसे सावनी या सलूनी भी कहते हैं। इस दिन बहनें अपने भाई के दाहिने हाथ पर रक्षा सूत्र बांधकर उसकी दीर्घायु की कामना करती हैं और बदले में भाई उनकी रक्षा का वचन देता है। भाई-बहन के अतिरिक्त अन्य भी अनेक सम्बन्ध इस भावनात्मक सूत्र के साथ बंधे होते हैं। कहने का अभिप्राय यह है कि यह पर्व केवल भाई बहन के ही रिश्तों को मज़बूती नहीं प्रदान करता, वरन जिसे भी यह सूत्र बांध दिया जाता है, उसके साथ एक भावनात्मक सम्बन्ध जुड़ जाता है।

भारतीय समाज में इस पर्व पर रक्षासूत्र ग्रहण करने और प्रतिदान में रक्षा करने संकल्प लेने की सुदीर्ध परंपरा रही है। भारतीय संस्कृति का प्रमुख पर्व रक्षाबंधन प्राचीन काल में देश, राष्ट्र, जीवों व वृक्ष-वनस्पतियों की रक्षा से भी जुड़ा है। इस दिन लोग वृक्षों को राखी बांधकर पर्यावरण रक्षा का संकल्प लेते हैं। रक्षा करने का यह भाव मनुष्य जीवन को ऊर्जस्वित करता है। रक्षा का संकल्प लेने वाला व्यक्ति भले ही शारीरिक रूप से कमजोर हो, लेकिन इस संकल्पबल के चलते वह अंतस की ऊर्जा से ओत-प्रोत हो जाता है। इस पर्व से तमाम रोचक पौराणिक कथानक जुड़े हैं। कहा जाता है कि देवराज इन्द्र को परास्त कर जब विष्णु भक्त दानवराज बलि को सत्ता का अहंकार हो गया तो उनका सत्तामद तोड़ने के लिए श्री हरि विष्णु जी ने वामन वेष में इसी श्रावणी पर्व के दिन दान में तीन पग भूमि मांग कर उनको निराश्रित कर दिया मगर उनकी याचना पर जगतपालक विष्णु ने उन्हें पाताल का अधिपति बना दिया।

रक्षाबन्धन का पर्व वर्तमान स्वरूप में कब आरम्भ हुआ यह तो स्पष्टतौर पर बताना मुश्किल है किन्तु इस पर्व से सम्बद्ध कई पौराणिक कथाएं समाज में प्रचलित हैं। भविष्य पुराण की एक कथा कहती है कि देव-दानव युद्ध में जब देवराज इंद्र पराजित हो गए तो इंद्राणी ने रेशम का एक धागा अभिमंत्रित कर इन्द्र की कलाई पर बांध दिया। उस दिन श्रावण पूर्णिमा थी। इन्द्र विजयी हुए और इन्द्राणी द्वारा बांधे गए धागे को इस विजय का कारण माना गया। एक अन्य प्रसंग कहता है कि देवगुरु बृहस्पति ने भी श्रावणी के दिन इन्द्र को रक्षा सूत्र बांधा था। इस पर्व की महत्ता से जुड़ी मध्यकालीन इतिहास की एक घटना भी काफी प्रसिद्ध है।

चित्तौड़ की हिन्दू रानी कर्णावती ने दिल्ली के मुग़ल बादशाह हुमायूं को भाई मानकर उसके पास राखी भेजी और हुमायूं ने उस राखी के सम्मान में गुजरात के बादशाह बहादुर शाह से युद्ध किया। साक्ष्य बताते हैं कि मध्ययुग में राजपूत क्षत्राणियां भी युद्धभूमि में जाते समय पति की विजय की कामना से उनकी कलाई में रक्षासूत्र बांधा करती थीं।

इस पर्व पर जिन धागों के जरिए बहन भाई की रक्षासूत्र बांधकर उससे अपनी रक्षा करने का वचन लेती है, वह देखने में भले ही साधारण लगता हो लेकिन इसमें आत्मरक्षा और राष्ट्ररक्षा के साथ ही समग्र मानवता की रक्षा का गहरा संकल्प भी निहित है। आज की परिस्थितियों में रक्षाबंधन के इसी वृहत संकल्प को समझाने की जरूरत है। रक्षाबंधन का पर्व हमें यह याद दिलाता है कि जिस तरह से बहन-भाई से अपनी रक्षा का वचन लेती है, उसी तरह से हर देशवासी को आत्मरक्षा, धर्म व राष्ट्ररक्षा के लिए इस पावन पर्व के अवसर पर संकल्प लेने चाहिए। प्रथम संकल्प देशधर्म के लिए, दूसरा वैयक्तिक धर्म और तीसरा आत्मरक्षा के निमित्त लेना चाहिए। जब तक इसके गूढ़ार्थ को नहीं समझा जाएगा तब तक रक्षा बंधन बहन द्वारा भाई को रक्षा सूत्र पहनाने और एवज में नेग देने वाला साधारण त्योहार मात्र बनकर रह जाएगा। इस दिन हर देशभक्त व्यक्ति को यह संकल्प लेने की जरूरत है कि वे देश धर्म व स्त्री जाति की रक्षा के लिए अपने कर्तव्यों का निरंतर पालन करेंगे।

tiwarishalini

tiwarishalini

Excellent communication and writing skills on various topics. Presently working as Sub-editor at newstrack.com. Ability to work in team and as well as individual.

Next Story