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Jharkhand Election Results: ये हैं प्रमुख मायने, जिस कारण भाजपा हो रही पीछे

झारखंड विधानसभा की 81 सीटों पर वोटों की गिनती जारी है। रुझानों में ये साफ हो गया है बीजेपी इस बार 2014 विधानसभा चुनाव जैसा प्रदर्शन करने में असफल दिख रही है। सत्तारूढ़ दल बीजेपी को पहले जितनी सीटें नहीं मिल पाएगी।

Harsh Pandey
Published on: 23 Dec 2019 9:19 AM GMT
Jharkhand Election Results: ये हैं प्रमुख मायने, जिस कारण भाजपा हो रही पीछे
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रांची: झारखंड विधानसभा की 81 सीटों पर वोटों की गिनती जारी है। रुझानों में ये साफ हो गया है बीजेपी इस बार 2014 विधानसभा चुनाव जैसा प्रदर्शन करने में असफल दिख रही है। सत्तारूढ़ दल बीजेपी को पहले जितनी सीटें नहीं मिल पाएगी। पिछली बार उसका आजसू से चुनाव पूर्व गठबंधन था लेकिन इस बार वह अकेले चुनावी अखाड़े में उतरी।

आपको बता दें कि झारखंड राज्य के 19 साल के राजनीतिक इतिहास में आज तक ऐसा कोई सीएम नहीं रहा, जो चुनाव जीतकर फिर सत्ता पर काबिज हो गया हो। चुनावों में सत्तारूढ़ पार्टी कभी अपनी सरकार नहीं बचा पाई।

झारखंड विधानसभा में बीजेपी के पिछड़ने और पहले से खराब प्रदर्शन के पीछे कई वजह बताई जा रही है जैसे चुनाव प्रचार के दौरान स्थानीय मुद्दों की बजाय राष्ट्रीय मुद्दों को उछालना, गैर आदिवासी सीएम चेहरा, आदिवासियों को नाराज करना, सरयू राय जैसे कद्दावर नेताओं की बगावत वगैरह वगैरह। यहां जानें बीजेपी के खराब प्रदर्शन की 15 बड़ी वजह....

1- महाराष्ट्र वाली गलती झारखंड में कर गई बीजेपी...

2019 लोकसभा चुनाव में झारखंड की कुल 14 में 12 सीटें बीजेपी ने जीती थी। लेकिन पिछले कुछ चुनावों में विधानसभा चुनाव और लोकसभा चुनाव में वोट देने का पैटर्न अलग-अलग रहा है। इसलिए रघुवर दास की राह आसान नहीं थी।

इस पैटर्न को हरियाणा और महाराष्ट्र से भी समझा जा सकता है जहां बीजेपी 2014 के नतीजे दोहराने में नाकाम रही। बीजेपी ने जो गलती महाराष्ट्र में की थी वो झारखंड में भी कर दी। राष्ट्रीय स्तर पर बीजेपी की कामयाबी को राज्य बीजेपी ईकाई राज्य में नहीं भुना पाई। केंद्रीय स्तर पर मोदी का करिश्माई नेतृत्व का फायदा राज्य के नेता नहीं उठा सके।

2- एनआरसी और सीएए के खिलाफ बवाल भारी पड़ा...

आखिरी तीन चरण में सीएए और एनआरसी के खिलाफ हुए विरोध प्रदर्शन का नुकसान उठाना पड़ा। जब सीएए एनआरसी का मुद्दा देश में प्रकाश में आया तो तीन चरण के चुनाव होना बाकी थे। अंतिम चरण में सबसे ज्यादा 72 फीसदी वोट पड़े थे।

3- अपनों से भी पहुंचा नुकसान...

इस चुनाव में भाजपा को अपनों से भी ज्यादा नुकसान उठाना पड़ा है। रघुवर दास के सहयोगी रहे मंत्री सरयू राय ने सीएम के खिलाफ ही ताल ठोक दी। सरयू राय ने भाजपा के खिलाफ जमकर प्रचार किया। पार्टी ने सरयू राय, बड़कुवार गागराई, महेश सिंह, दुष्यंत पटेल, अमित यादव समेत 20 नेताओं को 6 साल के प्रतिबंधित कर दिया था।

4- गठबंधन के फैसले में देरी...

बीजेपी चुनावी मैदान में आजसू या अन्य किसी दल के साथ गठबंधन में उतर रही है या नहीं, इस फैसले में काफी देरी हो गई। प्रत्याशियों के चुनाव में देरी से रणनीति उतनी मजबूत नहीं बन पाई जितनी एकजुट विपक्ष को हराने के लिए बननी चाहिए। चुनाव प्रचार के लिए प्रत्याशियों को कम समय मिला। दूसरी तरफ महागठबंधन शुरू से एकजुट नजर आया।

5- जमीन अधिग्रहण और काश्तकारी कानून में बदलाव का मुद्दा...

जंगलों के आस-पास की जमीन के अधिग्रहण का मामला राज्य में लंबे समय से बड़ा विवादित मुद्दा रहा है। 2016 राज्य सरकार ने राज्य के काश्तकारी कानून में बदलाव की कोशिश की और 2017 में जमीन अधिग्रहण से जुड़े नियमों में नरमी लाई। इन बदलावों से जमीन अधिग्रहण करना आसान हो गया। लेकिन इन फैसलों से दक्षिणी झारखंड के संथाल परगना और चोटागापुर आदिवासी बहुल इलाकों में सरकार के खिलाफ रोष पैदा हुआ।

काश्तकारी कानून में बदलाव पर भले सरकार विवाद के बाद रुक गई लेकिन आदिवासियों के मन में यह बात घर कर गई है कि रघुबर दास आदिवासियों की जमीन गैर-आदिवासियों को देना चाहती है।

6- गैर-आदिवासी सीएम चेहरे के साथ उतरना पड़ा भारी...

81 सीटों वाली झारखंड विधानसभा में 28 सीटें आदिवासियों के लिए रिजर्व हैं। महागठबंधन (झामुमो, कांग्रेस, आरजेडी) ने मुख्यमंत्री का उम्मीदवार (हेमंत सोरेन) आदिवासी को ही बनाया। दूसरी तरफ बीजेपी के रघुवर दास गैर-आदिवासी हैं।

ऐसे में आदिवासी वोट बीजेपी के खिलाफ गोलबंद हुआ। 2014 में बीजेपी ने AJSU के साथ चुनाव पूर्व गठबंधन में 30 फीसदी आदिवासी वोट (एसटी) और 13 एसटी आरक्षित सीटें हासिल की थी। 2014 में जब बीजेपी चुनाव में उतरी थी तब रघुवर दास चुनाव में सीएम पद के लिए बीजेपी का चेहरा नहीं थे।

7- आजसू से 20 साल पुरानी दोस्ती टूटी...

आजसू के साथ पिछले चुनाव में भाजपा का फूलप्रूफ गठबंधन बना था। भाजपा 72, आजसू आठ और एक सीट पर लोजपा लड़ी थी। भाजपा को 37 सीटें मिलीं। आजसू ने 5 सीटों पर जीत दर्ज की थी। भाजपा और आजसू गठबंधन की सरकार बनी। लेकिन झाविमो के छह विधायकों को तोड़कर भाजपा ने संख्या बढ़ा ली।

पांच साल में झारखंड की राजनीति में काफी उठा-पटक हुई। आजसू जिन सीटों पर 2014 में दूसरे स्थान पर या जीती हुई थी, उन्हीं सीटों पर उसने दावेदारी की। लेकिन बातचीत के बाद भी कोई हल नहीं निकला। भाजपा आजसू के दावे को खारिज करती रही और आजसू अड़ी रही।

इसके बाद भाजपा प्रदेश नेतृत्व ने आजसू के साथ सीटों के तालमेल को लेकर रणनीति नहीं बनाई। दोनों के बीच समन्वय का अभाव दिखा। सब कुछ दिल्ली के भरोसे छोड़ दिया गया। दिल्ली ने झारखंड की जमीनी हकीकत को नजरअंदाज कर तालमेल के लिए आजसू को कोई तवज्जो नहीं दी।

एक ऐसा राज्य जहां आज तक कोई दल अपने दम पर बहुत हासिल नहीं पाया, वहां अकेले चुनावी मैदान में उतरना काफी रिस्की था। कई सीटों पर आजसू ने बीजेपी को नुकसान पहुंचाया।

8- 2014 के वादों पर लोगों ने दिया वोट से जवाब...

झारखंड विधानसभा 2014 में बीजेपी रोजगार, विकास और स्थाई सरकार के वादे के साथ सत्ता में आई थी। इस चुनाव में विपक्षियों ने आरोप लगाया कि आर्थिक मंदी ने झारखंड के पहले से पिछड़े राज्य होने के चलते अन्य राज्यों की अपेक्षा इसे ज्यादा नुकसान पहुंचाया।

यूनिवर्सिटी ऑफ ऑक्सफोर्ड के शोधकर्ताओं द्वारा तैयार किए गए मल्टीडाइमेंशनल पॉवर्टी इनडेक्स में झारखंड 2015-2016 में भारत का दूसरा सबसे गरीब राज्य था।

जहां राष्ट्रीय स्तर पर गरीबी रेखा के नीचे रहने वाले लोगों का प्रतिशत 28 है वहीं यह झारखंड में 46 फीसदी था। औद्योगिक और सेवा क्षेत्र के आउटपुट में कमी आई। खनन क्षेत्र में गिरावट नजर आई। 2014 में बीजेपी राज्य में ज्यादा से ज्यादा निवेश खींचकर रोजगार पैदा करने के इरादे से सत्ता में आई थी।

पिछले पांच सालों में निजी निवेश में कमी आई। सेंटर ऑफ मॉनिटरिंग इंडियन इकॉनामी (सीएमआईई) के प्रोजेक्ट ट्रेकिंग डेटाबेस के मुताबिक 2018-19 में झारखंड में 44 फीसदी निवेश परियोजनाएं रुक गईं।

9- महागठबंधन एकजुट, बीजेपी अकेली...

2014 के विधानसभा चुनाव विपक्ष एकजुट नहीं था लेकिन इस बार एकुजट था। चुनाव से काफी पहले झामुमो, कांग्रेस और आरजेडी ने महागठबंधन बना लिया था। बेहतर तालमेल से महागठबंधन मतदान से काफी पहले सीटों का बेहतर ढंग से बंटवारा कर पाया। सही दिशा, सटीक रणनीति के साथ चुनाव प्रचार कर पाया। उन्हें चुनाव प्रचार का अच्छा समय मिला। वहीं दूसरी ओर बीजेपी अंतिम समय तक आजसू से गठबंधन को लेकर कंफ्यूज रही।

आजसू से गठबंधन को लेकर वह अंतिम समय तक फैसला नहीं कर पाई। फिर आखिर में तय हुआ कि आजसू से गठबंधन नहीं होगा। सीट बंटवारे और चुनाव प्रचार में देरी ने बीजेपी की प्रदर्शन पर असर डाला। कई सीटों पर आजसू ने बीजेपी को नुकसान पहुंचाया।

10- स्थानीय मुद्दों की अनदेखी...

भाजपा के बड़े नेताओं ने पूरे झारखंड के विधानसभा चुनाव में राष्ट्रीय मुद्दों पर ही बात की। परिणाम बताते हैं कि यह मतदाताओं को पसंद नहीं आया। इस बार चुनाव पिछले बार से 1.3 प्रतिशत कम मतदान दर्ज किया गया था। तीसरे चरण के बाद हुए चुनावी प्रचार में एनआरसी जैसे मुद्दे भी छाए रहे।

राम मंदिर पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले और जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 निष्प्रभावी होने की भी बातें अधिकांश रैली में हुई। वहीं दूसरी तरफ एकजुट महागठबंधन चुनाव प्रचार के दौरान लगातार स्थानीय मुद्दों और आदिवासी हितों को उछालता रहा।

11- सहयोगियों को नजरंदाज करना पड़ा भारी...

वर्ष 2014 में हुए विधानसभा में बीजेपी ने अपनी सहयोगी ऑल झारखंड स्‍टूडेंट यूनियन (एजेएसयू) के साथ मिलकर चुनाव लड़ा था। बीजेपी को 37 और एजेएसयू को 5 सीटें मिली थीं। इस बार के विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने अपने सहयोगी दल को नजरंदाज किया और अकेले ही चुनावी मैदान में उतरने का फैसला किया। बीजेपी का यह फैसला उस पर भारी पड़ गया।

ताजा रुझानों में एजेएसयू अच्‍छा प्रदर्शन कर रही है। बता दें कि वर्ष 2000 में झारखंड का गठन होने के बाद से दोनों दल साथ मिलकर चुनाव लड़ रहे थे लेकिन इस बार बीजेपी ने नाता तोड़ लिया। यही नहीं बीजेपी की एक अन्‍य सहयोगी पार्टी एलजेपी ने भी साथ मिलकर चुनाव लड़ने का प्रस्‍ताव दिया लेकिन बीजेपी ने उसे ठुकरा दिया था। बाद में एलजेपी को अकेले चुनाव लड़ना पड़ा।

12- विपक्ष ने बनाया महागठबंधन...

झारखंड में एक तरफ जहां बीजेपी ने अपने सहयोगी दलों को नजरंदाज किया वहीं विपक्ष ने एकजुट होकर चुनाव लड़ा और बीजेपी के इस किले को ध्‍वस्‍त कर दिया। झारखंड मुक्ति मोर्चा, आरजेडी और कांग्रेस के महागठबंधन ने सीटों का बंटवारा कर चुनाव लड़ा और बीजेपी के अकेले सरकार बनाने के मंसूबों पर पानी फेर दिया। चुनाव परिणामों में अब विपक्ष राज्‍य में पूर्ण बहुमत हासिल करता दिख रहा है।

वर्ष 2014 के चुनाव में तीनों ही दल अलग-अलग चुनाव लड़े थे लेकिन इस बार कांग्रेस ने महाराष्‍ट्र और हरियाणा से सबक सीखते हुए जेएमएम और आरजेडी के साथ महागठबंधन बनाया।

13- अपनों ने बीजेपी को दिया झटका...

झारखंड चुनाव से ठीक पहले बीजेपी को अपने ही नेताओं से काफी बड़े झटके लगे। भगवा पार्टी के बड़े नेता राधाकृष्‍ण किशोर ने बीजेपी का दामन छोड़कर एजेएसयू के साथ हाथ मिला लिया। किशोर का एजेएसयू में जाना बीजेपी के लिए बड़ा झटका रहा। टिकट बंटवारे के दौरान बीजेपी ने अपने वरिष्‍ठ नेता सरयू राय को टिकट नहीं दिया।

सरयू राय ने मुख्‍यमंत्री रघुबर दास के खिलाफ जमशेदपुर ईस्‍ट सीट से चुनाव लड़ा। ताजा रुझानों में सरयू राय सीएम को कड़ी टक्‍कर देते दिख रहे हैं।

14- 'महाराष्‍ट्र' से डरी बीजेपी का दांव पड़ा उल्‍टा...

झारखंड विधानसभा चुनाव के दौरान बीजेपी ने दावा किया था कि उसे 81 में से 65 सीटें मिलेंगी और वह अकेले दम पर राज्‍य में सरकार बनाएगी। बीजेपी को उम्‍मीद थी कि वह पीएम मोदी के चेहरे को आगे कर चुनाव लड़ेगी तो उसे सफलता मिलेगी।

अपनी इसी रणनीति के तहत बीजेपी ने पीएम मोदी, अमित शाह की कई रैलियां झारखंड में कराई। यही नहीं बीजेपी ने अपने हिंदू पोस्‍ट बॉय यूपी के सीएम योगी आदित्‍यनाथ को भी झारखंड के चुनावी समर में प्रचार के लिए उतारा। बीजेपी की यह रणनीति बुरी तरह से फ्लॉप रही।

सूत्रों के मुताबिक महाराष्‍ट्र की घटना से डरी बीजेपी ने झारखंड में फूंक-फूंककर चुनाव लड़ा और किसी दल के साथ गठबंधन नहीं किया। गौरतलब है कि महाराष्‍ट्र में बीजेपी ने शिवसेना के साथ मिलकर चुनाव लड़ा था लेकिन शिवसेना ने कांग्रेस और एनसीपी के साथ मिलकर सरकार बना ली थी।

15- आदिवासी चेहरा न होना...

झारखंड में 26.3 प्रतिशत आबादी आदिवासियों की है और 28 सीटें आदिवासियों के लिए आरक्षित हैं। महागठबंधन ने जेएमएम के आदिवासी नेता हेमंत सोरेन को सीएम पद का उम्‍मीदवार बनाया वहीं बीजेपी की ओर से गैर आदिवासी समुदाय से आने वाले रघुबर दास दोबारा सीएम पद के उम्‍मीदवार रहे।

झारखंड के आदिवासी समुदाय में रघुबर दास की नीतियों को लेकर आदिवासियों में काफी गुस्‍सा था। आदिवासियों का मानना था कि रघुबर दास ने अपने 5 साल के कार्यकाल के दौरान आदिवासी विरोधी नीतियां बनाईं। खूंटी की यात्रा के दौरान रघुबर दास के ऊपर आदिवासियों ने जूते और चप्‍पल फेंके थे।

सूत्रों की मानें तो आदिवासी समुदाय से आने वाले अर्जुन मुंडा को इस बार सीएम बनाए जाने की मांग उठी थी लेकिन बीजेपी के शीर्ष नेतृत्‍व ने रघुबर दास पर दांव लगाया जो उल्‍टा पड़ गया।

Harsh Pandey

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