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चुनाव में अफसरों की भूमिका पर उठते रहे हैं सवाल

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Published on: 11 May 2019 12:18 PM IST
चुनाव में अफसरों की भूमिका पर उठते रहे हैं सवाल
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चुनाव में अफसरों की भूमिका पर उठते रहे हैं सवाल

मनीष श्रीवास्तव

लखनऊ : देश में निष्पक्ष और पारदर्शी चुनाव के लिए प्रशासनिक व्यवस्था का चुस्त-दुरूस्त होना बेहद जरूरी है और यह प्रशासन का दायित्व भी है। लेकिन भारतीय लोकतंत्र में ऐसा नहीं हो पाया क्योंकि चुनाव प्रक्रिया की शुरुआत से प्रशासन की भूमिका को लेकर सवाल उठते रहे हैं। प्रशासनिक अधिकारियों की दलगत निष्ठा से चुनावी प्रक्रिया का मखौल उड़ता रहा है। चुनाव में प्रशासन की मिलीभगत या उसे दबाव में लेकर होने वाली हेराफेरी और धांधली हमारे लोकतंत्र की शुरूआत से ही है। देश को आजादी मिलने के बाद वर्ष 1951 में हुए पहले आम चुनाव में देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू पर आरोप लगा था कि उन्होंने रामपुर लोकसभा क्षेत्र से चुनाव लड़ रहे अपने चहेते अब्दुल कलाम आजाद के लिए तत्कालीन यूपी के मुख्यमंत्री गोविन्द वल्लभ पंत पर दबाव डाला था कि वह किसी भी तरीके से उनके चहेते अब्दुल कलाम आजाद को चुनाव जिताएं। इसका खुलासा उत्तर प्रदेश के तत्कालीन सूचना निदेशक शम्भूनाथ टंडन ने अपने एक लेख में किया है।

इसके बाद वर्ष 1957 में हुए दूसरे आम चुनाव में देश में पहली बार बूथ कैप्चरिंग की घटना की शुरुआत हुई। बिहार के बेगूसराय जिले में रचियारी गांव के कछारी टोला बूथ पर स्थानीय लोगों ने कब्जा कर लिया था। इसके बाद तो राजनीतिज्ञ बूथ कैप्चरिंग के लिए माफियाओं का सहारा लेने लगे और प्रशासन उनका बगलगीर हो गया। अब चुनावों में सत्ताधारी दल द्वारा प्रशासन का अपने पक्ष में इस्तेमाल करना आम बात हो गयी थी और इसके लिए एक नया शब्द बूथ मैनेजमेंट भी गढ़ लिया गया।

इन दो घटनाओं का उल्लेख करने का मकसद महज इतना ही था कि प्रशासन पर दबाव डलवाकर बाहुबल व धनबल के जरिये नतीजों को अपने पक्ष में करवाना कितना आसान हुआ करता था।

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पुलिस पर डाला जाता है दबाव

चुनाव में प्रशासन की भूमिका पर गौर करें तो इसमें पुलिस बल का काफी अहम रोल रहता है। बिना पुलिस के सहयोग के चुनाव में धांधली को अंजाम देना लगभग असंभव है। दरअसल सत्ताधारी दल के नेताओं की अपेक्षा रहती है कि पुलिस उनके पार्टी कार्यकर्ता की तरह ही व्यवहार करे और कई बार यह देखा भी गया है कि पुलिस सत्ताधारी दल के कार्यकर्ता की भूमिका में रहती हैै। यहां तक कि कई बार तो चुनाव में इस तरह के नारे भी लगे कि यह अंदर की बात है, पुलिस हमारे साथ है।

पुलिस प्रशासन भी सत्ताधारी दल की बात मानना मजबूरी बताता है। पुलिस के कई आला अधिकारियों का कहना है कि नेताओं की बात नहीं मानने का मतलब होता था कि आगे की नौकरी में दुश्वारियां झेलना। जबकि नेताओं का साथ देने पर उन्हे अच्छे स्थानों पर पोस्टिंग का पुरस्कार दिया जाता था। शुरू में तो कुछ ही अधिकारी ऐसे थे जो नेताओं के लिए चुनाव को प्रभावित करते थे, लेकिन बाद में यह रवैया ऐसा चलन में आया कि लगभग पूरा पुलिस महकमा दलों के खांचे में बंट गया। हर पुलिस वाले के साथ उसकी दलीय निष्ठा विशेष योग्यता हो गयी।

शेषन ने चलाया था डंडा

नब्बे के दशक तक देश में चुनाव के हालात ऐसे ही चले, लेकिन इसके बाद देश के चुनाव आयोग की बागडोर संभालने वाले टीएन शेषन ने देश में चल रही लोकतंत्र की इस लूट को रोकने में अहम भूमिका निभाई। पहली बार टीएन शेषन ने ही चुनाव की निष्पक्षता और शुचिता पर ध्यान दिया और कई ऐसे नियमों को अमल में लाए जिससे खुलेआम होने वाली वोटों की लूट रुकी, चौबीस घंटे का चुनावी शोर बंद हुआ और चुनाव के दौरान होने वाली गंदगी बंद हुई। इसके साथ ही चुनाव के दौरान स्थानीय पुलिस के साथ ही केंद्रीय बलों की तैनाती ने पुलिस के पक्षपाती प्रभाव को कम कर दिया। टीएन शेषन की सख्ती का नतीजा यह रहा कि देश में चुनाव सुधार तेजी से लागू हुए। राजनीतिज्ञों और उनके समर्थकों के साथ-साथ पुलिस-प्रशासन के उनके करीबी अब चुनाव जीतने के पुराने हथकंडों को आजमाने से बचने लगे और ऐसा लगा कि अब देश में निष्पक्ष और पारदर्शी चुनाव व्यवस्था हो जाएगी।

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लंबा नहीं चल सका सिलसिला

टीएन शेषन के बाद जेएम लिंगदोह के मुख्य चुनाव आयुक्त के पद पर रहने तक चुनाव आयोग का सख्त रवैया राजनीतिक दलों और उनके प्रशासनिक समर्थकों में भय बनाए रखने में कामयाब रहा, लेकिन यह सिलसिला बहुत ज्यादा लंबा नहीं चल सका। फरवरी 2004 में लिंगदोह के हटने के बाद उस वर्ष के लोकसभा चुनाव में पहली बार ईवीएम का इस्तेमाल होना शुरू हुआ मगर धीरे-धीरे फिर राजनेताओं और प्रशासन का काकस चुनावी प्रक्रिया पर हावी होना शुरू हो गया था। वर्ष 2009 और 2014 के लोकसभा चुनाव में यह काकस इस हद तक हावी नहीं हो पाया, लेकिन मौजूदा लोकसभा चुनाव में मोदी समर्थक और मोदी विरोधी के खेमे में समाज के साथ-साथ प्रशासनिक अमला भी बंटा हुआ दिख रहा है। नतीजा यह है कि अब तक हुए पांच चरणों के चुनाव में चुनाव आयोग के पास प्रशासनिक पक्षपात की शिकायतों का अंबार लगा हुआ है।

मौजूदा चुनाव में भी लगे कई बार आरोप

मौजूदा लोकसभा चुनाव में विपक्षी दल अब तक कई मौकों पर स्थानीय प्रशासन पर सत्तापक्ष या किसी प्रत्याशी या पार्टी विशेष के पक्ष में काम करने का आरोप लगा चुका है। अभी पांचवें चरण के मतदान के दौरान अमेठी में एक बुजुर्ग महिला ने आरोप लगाया कि पीठासीन अधिकारी ने उसका वोट हाथ पकड़कर एक पार्टी विशेष का ईवीएम बटन दबवा दिया जबकि वह वोट किसी और पार्टी को देना चाहती थी। इस घटना की शिकायत होने पर चुनाव आयोग ने उस पीठासीन अधिकारी को तो हटा दिया, लेकिन इससे साफ हो गया कि पुलिस-प्रशासन की सियासी निष्ठा उनके दायित्वों पर किस कदर हावी है।

इसी तरह बसपा सुप्रीमो मायावती ने यहां तक कह दिया कि उत्तर प्रदेश में लोकसभा के चुनाव के दौरान पुलिस व प्रशासनिक अधिकारियों की भूमिका लगातार संदिग्ध व सत्ताधारी पार्टी के प्रति मददगार बनी हुई है, जो स्वतंत्र व निष्पक्ष चुनाव की प्रक्रिया और मंशा को प्रभावित कर रही है। यूपी में तीसरे चरण के मतदान के दिन ही सपा ने प्रशासन पर सत्ताधारी दल का साथ देने का न केवल आरोप लगाया बल्कि चुनाव आयोग से इसकी शिकायत भी की। इसी तरह पांचवें चरण के मतदान के दिन ही प्रतापगढ़ के कुंडा में एक प्रत्याशी विशेष के पक्ष में बूथों पर कब्जा करने की शिकायत भी आयोग को मिली।

कई राज्यों में मिली शिकायत

देश में देखा जाए तो पश्चिम बंगाल में चुनाव का कोई भी चरण बिना हिंसा और बगैर प्रशासनिक पक्षपात के आरोप के नहीं गुजरा है। इस चुनाव में पुलिस का रवैया कुछ ज्यादा ही खतरनाक दिख रहा है। पश्चिम बंगाल, आंध्र और तेलंगाना में राज्य पुलिस व केंद्रीय पुलिस बलों के बीच कई बार तनाव की घटनाएं भी देखने को मिलीं और लगा कि दोनों सुरक्षा बल आपस में ही न लड़ जाए। चुनाव पूर्व कोलकाता के पुलिस कमिश्नर के घर सीबीआई की छापेमारी के दौरान सीबीआई को हिरासत में लेने की घटना और मध्य प्रदेश में आयकर छापे के दौरान राज्य पुलिस व केंद्रीय संस्था की भिडं़त की खबरें भी इस बात का संकेत है कि प्रशासनिक कार्यक्षमता को जंग लग चुका हैै और अब इसने पूरी तरह से राजनीति के आगे समर्पण कर दिया हैै।

प्रशासन में काम करने वाले लोग भी समाज से ही आते है और जब समूचे समाज में ही गिरावट आ रही है तो प्रशासनिक अधिकारी इससे अछूते नहीं रह सकते है। यूपी की राजनीति जातिवाद, संप्रदायवाद, क्षेत्रवाद और भ्रष्टाचार की जद में आ चुकी है। अब नौकरशाह अपने राजनीतिक आका को खुश करने के गुर सीख गया है और इससे उसे मलाईदार पोस्टिंग से लेकर अन्य कई सुविधाएं हासिल हो जाती है। यूपी की नौकरशाही तो काफी विकृत हो चुकी है। यहां तक कि अब नौकरशाहों को छपास का रोग भी लग गया है।

चंद्र भूषण पांडे, पूर्व पीसीएस अधिकारी

चुनाव में प्रशासनिक मिलीभगत की बात पूरी तरह गलत है। लंबी प्रशासनिक सेवा के दौरान मुझे कभी भी इस तरह की स्थिति का सामना नहीं करना पड़ा। कभी कोई भी राजनीतिक दबाव नहीं पड़ा। दरअसल सरकारी अमले पर अब लोगों का विश्वास कम हो गया है। इसलिए इस तरह की बातें सामने आ रही हैं।

सुभाष त्रिवेदी, सेवानिवृत्त आईएएस अधिकारी

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सीमा शर्मा लगभग ०६ वर्षों से डिजाइनिंग वर्क कर रही हैं। प्रिटिंग प्रेस में २ वर्ष का अनुभव। 'निष्पक्ष प्रतिदिनÓ हिन्दी दैनिक में दो साल पेज मेकिंग का कार्य किया। श्रीटाइम्स में साप्ताहिक मैगजीन में डिजाइन के पद पर दो साल तक कार्य किया। इसके अलावा जॉब वर्क का अनुभव है।

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