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आजादी की लड़ाई: आजमगढ़ के दो भाइयों को हुई थी कालापानी की सजा
संदीप अस्थाना
आजमगढ़: धरती को अपने खून से सींचकर मां भारती को गुलामी की जंजीरों से मुक्त कराने वाले अमर सपूत भले ही इतिहास के पन्नों तक सिमटकर रह गए हों, मगर इस सच को नहीं नकारा जा सकता कि वह कभी भुलाए नहीं जा सकते। जब भी देश के लिए कर गुजरने वालों की चर्चा होगी तो उनके बिना बात अधूरी ही रह जाएगी। ऐसे ही महान लोगों में शुमार थे आजमगढ़ के गोगा साव व भीखा साव।
आजमगढ़ जिले के अजमतगढ़ कस्बे के रहने वाले यह दोनों सगे भाई खांडसारी के बड़े व्यवसायी थे। दोनों भाइयों ने 1857 की क्रांति के दौरान लंबी लड़ाई लड़ी। कुंवर सिंह के कदम से कदम मिलाकर चले। कुंवर सिंह की सेना को कई दिनों तक अपने तहखाने में रखा। क्रांतिकारियों को खाने-पीने की तकलीफ न होने देने के लिए कुंए में ही शरबत घोलवा दिया।
18 अगस्त 1958 को तत्कालीन कलेक्टर की अदालत से दोनों भाइयों को काला पानी की सजा हो गई। आज इनका परिवार बरहज में एक कमरे में मुफलिसी की जिंदगी जी रहा है। क्रांति के दौरान जिन लोगों ने गोगा व भीखा साव और कुंवर सिंह की मुखबिरी की उन्हें तो तत्कालीन अंग्रेजी हुकूमत ने तमाम सम्मानों व पदों से नवाजा। इसके विपरीत देश के लिए सबकुछ न्योछावर करने वालों को आज कोई याद तक करने वाला नहीं रह गया है।
भीखा साव के यहां रुके थे कुंवर सिंह
1857 की लड़ाई के दौरान कुंवर सिंह बिहार, झांसी, अवध होते हुए 9 सितम्बर 1857 को अजमतगढ़ पहुंचे। उन्हें जगदीशपुर जाना था। तब तक पूरे देश में क्रांति शांत पड़ गयी थी। इसीलिए अंग्रेजों ने भारी संख्या में ब्रिटिश फौज को आजमगढ़ जिले के कोयलसा और सरसेना में तैनात कर दिया। यह देखते हुए कुंवर सिंह ने अपनी फौज को तीन टुकडिय़ों में बांटा। एक टुकड़ी गोरखपुर और दूसरी मऊ के रास्ते आगे बढ़ी तथा तीसरी टुकड़ी के साथ कुंवर सिंह अजमतगढ़ के भीखा साव के यहां रुक गए। रवाना हुई दो अन्य टुकडिय़ों का नेतृत्व करने वाले कुंवर सिंह की वेशभूषा में थे। गोरखपुर जा रही टुकड़ी का शहर से लगभग 15 किमी की दूरी पर स्थित एक स्थान पर अंग्रेजों से संघर्ष हुआ जिसमें नेतृत्वकर्ता शहीद हो गया। यह शहीद नेतृत्वकर्ता कौन था, इसकी जानकारी किसी को नहीं है। उसी शहीद के नाम पर शहादतस्थल का नाम अनजान शहीद रखा गया है। दूसरी टुकड़ी मोहम्मदाबाद के पास अंग्रेजों से भिड़ी। इस नेतृत्व कर्ता के नाम का भी पता नहीं चल सका। उस स्थल पर शहीद की मजार आज भी स्थित है।
अंग्रेजों ने दोनों भाइयों को दीं काफी यातनाएं
गोगा और भीखा साव ने तीसरी टुकड़ी, जिसका नेतृत्व स्वयं कुंवर सिंह कर रहे थे, को सात दिनों तक मंदिर के नीचे बने तहखाने में रखा। क्रांतिकारियों को दिक्कत न होने देने के लिए मंदिर के पास स्थित कुंए में खांड डलवाकर पूरे पानी को ही शरबत बनवा दिया। सात दिन बाद जब कुंवर सिंह आगे के लिए रवाना हो गये तो दोनों भाई गोगा और भीखा भी सारे हीरे-जवाहरात खांड के कुंड में छिपाकर घर छोडक़र फरार हो गये। मुनीम ने इसकी सूचना अंग्रेजों को दे दी। सारे हीरे-जवाहरात कब्जे में ले लिये गये। बाद में दोनों भाई गिरफ्तार हो गए।
18 अगस्त, 1858 को कलेक्टर की अदालत में दोनों को काला पानी की सजा सुना दी और उन्हें तत्काल कोलकाता भेज दिया गया। वहां से जहाज पर बैठाकर अंडमान द्वीप भेज दिया गया। रास्ते में इन्हें काफी यातनाएं दी गयीं। गोगा व भीखा साव का परिवार आज भी देवरिया जिले के बरहज में एक कमरे के मकान में रहता है। उसी में एक छोटी सी दुकान है जिससे परिवार का खर्च चलता है। इन दोनों शहीद भाइयों के लिए अगर कुछ किया गया है तो बस इतना कि 24 अप्रैल 2005 को अजमतगढ़ में इनकी प्रतिमा स्थापित कर दी गयी।
दोनों भाइयों ने तैयार किया मजबूत संगठन
19वीं सदी के प्रारम्भिक दिनों में अजमतगढ़ और समीपवर्ती इलाके अपनी भौगोलिक और सामरिक स्थिति के कारण व्यवसाय के केन्द्र बन गये थे। चूंकि इस क्षेत्र में गन्ना व अरहर की अच्छी खेती होती थी, इसलिये अजमतगढ़ देशी चीनी और खांड तैयार करने के लिए प्रसिद्ध हो गया। बेनी साव उस समय आजमगढ़ से नेपाल व भोपाल तक गुड़ व खांडसारी के सबसे बड़े व्यवसायी थे। उन्होंने अजमतगढ़ में भी खांडसारी का एक कारखाना खोला। सफलता मिलने पर उन्होंने दर्जनों कारखाने लगा दिए। 1857 की क्रांति के दौरान बेनी साव के दोनों पुत्र गोगा व भीखा साव अंग्रेजी हुकूमत की खिलाफत करते हुए क्रांतिकारियों के साथ जुड़ गए। उन्होंने आजमगढ़ शहर से सटे हीरापट्टी के ठाकुर परगन सिंह व परदहां के जालिम सिंह के नेतृत्व में मेघई, दुबारी, भगतपुर, नैनीजोर, रूदरी, बम्हौर, मोहब्बतपुर, बगहीडांड आदि गांवों के क्रांतिकारियों से मिलकर एक मजबूत संगठन तैयार किया।