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मुंशी प्रेमचंद जयंती: लमही- सिर्फ कागजों पर है तरक्की की दास्तान

raghvendra
Published on: 31 July 2018 3:56 AM GMT
मुंशी प्रेमचंद जयंती: लमही- सिर्फ कागजों पर है तरक्की की दास्तान
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आशुतोष सिंह

वाराणसी: काशी को धर्म और संस्कृति का शहर कहते हैं। मंदिर और गंगा घाट इसकी पहचान हैं तो कबीर, तुलसी और रविदास जैसे संत इस शहर की शान है। शहर की धरोहरों को बचाने और संवारने के नाम पर हर साल पानी की तरह पैसा बहाया जा रहा है, लेकिन जिला प्रशासन की ये कसरत सिर्फ दिखावा साबित हो रही है। कम से कम हिंदी साहित्य के पुरोधा मुंशी प्रेमचंद के पैतृक गांव लमही को देखने के बाद तो यही जाहिर होता है।

जिला मुख्यालय से करीब 8 किलोमीटर दूर स्थित इस गांव को कहने को तो ई-विलेज का दर्जा प्राप्त है। सडक़, बिजली और पानी जैसी सभी सुविधाएं दुरुस्त हैं। यही नहीं गांव को हेरिटेज का दर्जा देने की भी तैयारी है, लेकिन ठहरिए। ये सभी कोशिशें सिर्फ कागजों में ही दफन है। केंद्र और राज्य सरकार की योजनाएं गांव की दहलीज तक पहुंचते-पहुंचते दम तोड़ देती हैं। ऐसा लगता है कि सियासत रूपी साहूकार ने लमही को अब भी जकड़ रखा है।

दम तोड़ रही हैं मोदी की योजनाएं

लमही गांव के हालात भी किसी से छिपे नहीं है। मोदी सरकार की हर योजना लमही के दरवाजे पर दम तोड़ देती है। मसलन उज्जवला योजना को ही लीजिए। 70 लोगों ने उज्जवला योजना के तहत गैस सिलेंडर के लिए अप्लाई किया था, लेकिन अभी तक चौदह लोगों को ही कनेक्शन मिल पाया है।

गांव की महिलाएं गैस एजेंसियों और संबंधित अधिकारियों के दफ्तरों के चक्कर काट रही हैं, लेकिन उनकी सुनवाई करने वाला कोई नहीं है। मुस्लिम बस्ती की रुखसार बेगम कहती हैं कि हम लोगों ने कई बार गैस कनेक्शन के लिए आवेदन किया, लेकिन हमारी कोई नहीं सुनता। जब मुंशीजी के गांव का ये हाल है तो दूसरे जगहों का क्या होगा, आप खुद समझ सकते हैं।

ई-विलेज के नाम पर छलावा

सच्चाई ये भी है कि हर सरकारी योजना की रोशनी इस गांव तक जरूर पहुंचती है, लेकिन अफसरों की लापरवाही के चलते सब गर्त में चला जाता है। करीब 6 साल पहले अखिलेश सरकार ने लमही गांव को डिजिटल क्रांति से जोड़ते हुए ई-गांव घोषित किया। तामझाम के साथ पंचायत भवन में इसकी शुरुआत हुई। एक कंप्यूटर और एक प्रिंटर लगाया गया। बीएसएनएल की ओर से वाईफाई की व्यवस्था की गई। प्रधानपति संतोष सिंह के मुताबिक बकाये भुगतान पर बीएसएनएल ने वाईफाई का कनेक्शन काट दिया है। हालांकि डिजिटल इंडिया के तहत गांव में नए सिरे से सेटअप बाक्स लगाए गए हैं, लेकिन वो भी अभी तक शुरू नहीं हो पाए हैं। पूछने पर बीएसएनएल के अधिकारी बताते हैं कि जब दूसरे गांवों में कनेक्शन होगा तो यहां भी हो जाएगा। बताया जा रहा है कि बिल जमा न होने से गांव से जुड़ी तमाम जानकारियों की फीडिंग कंप्यूटर में नहीं हो पा रही है।

अधूरा पड़ा सामुदायिक शौचालय

प्रेमचंद स्मारक के पास सामुदायिक शौचालय का निर्माण तो हुआ, लेकिन उद्धाटन के इंतजार में शौचालय बेकार हो चुका है। यहां न पानी है और न सफाई की व्यवस्था। इलाहाबाद से पहुंचे शोभनाथ बताते हैं कि वे यहां घूमने आए थे लेकिन यहां की अव्यवस्था देखकर काफी दु:ख हुआ। स्मारक के नाम पर उनका मकान और अधूरे कामों के अलावा कुछ भी नहीं है।

ग्राम प्रधानपति संतोष सिंह बताते हैं कि गांव में पानी की जबरदस्त किल्लत है। दो हैंडपंपों के सहारे 15 सौ लोगों की जिंदगी चल रही है। 2016 में तत्कालीन प्रमुख सचिव रजनीश दुबे ने जलनिगम को पानी की टंकी लगाने का निर्देश दिया था। दो साल गुजर जाने के बाद भी जलनिगम की ओर से कोई ठोस पहल नहीं हुई। इतने बड़े साहित्यकार के साथ अगर सरकार ये सलूक करती है तो आप दूसरे गांवों की हालत को बखूबी समझ सकते हैं।

दिखावे का रिसर्च सेंटर

मुंशी प्रेमचंद के साहित्य को समझने के लिए लमही में एक रिसर्च सेंटर की स्थापना की गई। बीएचयू के सहयोग से करोड़ों रुपए खर्च करने के बाद इसे बनाया गया। 2016 में तत्कालीन मानव संसाधन राज्य मंत्री महेंद्र नाथ पांडेय ने इसका उद्धाटन भी कर दिया, लेकिन दो साल गुजर जाने के बाद भी रिसर्च सेंटर पर ताला लटका हुआ है। न बच्चों का पता है और न ही साहित्यकारों का। सिर्फ एक गार्ड और सफाईकर्मी रिसर्च सेंटर की बिल्डिंग की देखभाल करते हैं। बीएचयू प्रशासन के मुताबिक यूजीसी की ओर से अभी तक टीचर और स्टॉफ की नियुक्ति नहीं हो पाई है। जैसे ही नियुक्तियां होंगी, रिसर्च सेंटर शुरू हो जाएगा। जौनपुर के रहने वाले दिलीप कहते हैं कि विडंबना देखिए कि प्रेमचंद की पहचान उनकी पुस्तकों से है, लेकिन उनके ही स्मारक और पुस्तकालय में पुस्तकों का टोटा है। बैठने के लिए ठीक से कुर्सी और मेज तक नहीं है। प्रधानपति संतोष कुमार सिंह के मुताबिक गांव में पूरे साल अधिकारियों का दौरा होता है, लेकिन नतीजा सिफर रहता है।

न पीने का पानी, न बैठने को कुर्सियां

मुंशी प्रेमचंद का वाराणसी के इस छोटे से गांव से विशेष नाता रहा है। 31 जुलाई 1880 को मुंशी प्रेमचंद का इसी गांव में जन्म हुआ। 31 जुलाई को जन्मदिन पर हर साल लमही स्थित उनके आवास पर जलसा लगता है। अधिकारी, नेता, मंत्री और हिंदी साहित्य की नामचीन हस्तियां जुटती हैं। तमाम वादे किए जाते हैं और फिर सालभर की चुप्पी। आलम ये है कि मुंशी प्रेमचंद स्मारक बुनियादी सुविधाओं के लिए तरस रहा है। स्मारक में पेयजल की व्यवस्था ठप है। कहने को तो स्मारक में समरसेबल लगा हुआ है, लेकिन मशीन का मोटर और स्टार्टर महीनों से खराब पड़ा हुआ है।

स्मारक में पुस्तकालय तो बना है, लेकिन ना तो मेज हैं और ना ही कुर्सियां। किताबों के लिए रैक तक नहीं है सो जमीन पर ही किताबों को रख दिया गया है। वहीं पुस्तकालय पहुंचने वाले लोग भी जमीन पर बैठकर मुंशी जी की कहानियां पढ़ते हैं। पुस्तकालय का संचालन करने वाले प्रेमचंद स्मारक के अध्यक्ष सुरेश चंद्र दूबे के मुताबिक स्मारक के नाम पर यहां सिर्फ दिखावा है। प्रेमचंद की दो हजार किताबों के अलावा हमारे पास दिखाने के लिए कुछ भी नहीं है। स्मारक में सुविधाओं की बढ़ोतरी के लिए कई बार वाराणसी विकास प्राधिकरण को पत्र लिखा गया, लेकिन हर बार सिर्फ आश्वासन मिलता है।

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राघवेंद्र प्रसाद मिश्र जो पत्रकारिता में डिप्लोमा करने के बाद एक छोटे से संस्थान से अपने कॅरियर की शुरुआत की और बाद में रायपुर से प्रकाशित दैनिक हरिभूमि व भाष्कर जैसे अखबारों में काम करने का मौका मिला। राघवेंद्र को रिपोर्टिंग व एडिटिंग का 10 साल का अनुभव है। इस दौरान इनकी कई स्टोरी व लेख छोटे बड़े अखबार व पोर्टलों में छपी, जिसकी काफी चर्चा भी हुई।

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