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एससी एसटी एक्ट में भी सजा 7 साल से कम होने पर बिना नेटिस दिये नहीं होगी गिरफ्तारी
लखनऊ : इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ खंडपीठ ने सात साल तक की सजा से दंडित किये जाने वाले एससी एसटी एक्ट सहित अन्य मामलें में सुप्रीम कोर्ट द्वारा 2014 में दिये एक फैसले के हवाला देकर बिना अभियुक्त को नोटिस दिये अरेस्ट करने के पुलिस के रवैये पर संजीदगी जाहिर की है। कोर्ट ने आईपीसी सहित एससी एसटी एक्ट के तहत हाल ही में संसद द्वारा पारित एक संशोधन के बाद 19 अगस्त को दर्ज एक प्राथमिकी को रद करने की मांग वाली याचिका यह कहकर निस्तारित कर दी कि अरेस्ट करने से पहले सुप्रीम कोर्ट द्वारा अरनेश कुमार बनाम बिहार राज्य में दिये गये फैसले का पालन किया जायेगा।
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उक्त फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने साफ कहा है कि यदि किसी के खिलाफ दर्ज प्राथमिकी से अपराध की अधिकतम सजा सात तक की बनती है तो ऐसे मामले में सीआरपीसी की धारा 41 एवं 41ए के प्रावधानें का पालन किया जायेगा और विवेचक को गिरफ्तारी करने से पहले यह सुनिश्चित करना होगा कि गिरफ्तारी अपरिहार्य है अन्यथा न्यायिक मजिस्ट्रेट उक्त गिरफ्तार व्यक्ति का न्यायिक रिमांड नहीं लेगा।
दरअसल हाईकोर्ट में इन दिनों ऐसे मुकदमों की बाढ़ सी आयी जिसमें अभियुक्त उन प्राथमिकियें के चुनौती दे रहे हैं जिनमें सजा सात साल तक की है। इन प्राथमिकियें में आईपीसी की तमाम धाराअें सहित एससी एसटी एक्ट आवश्यक वस्तु अधिनियम गौहत्या अधिनियम आदि अधिनियम की धारायें शामिल रहती हैं। कोर्ट इन मामलों के बिना एक पल समय गवांये सरकारी वकील के इस आश्वासन पर निस्तारित कर देता है कि अभियुक्त की गिरफतारी से पहले सुप्रीम कोर्ट द्वारा अरनेश कुमार के केस में दिये गये फैसले का अनुपालन किया जायेगा।
जस्टिस अजय लांबा व जस्टिस संजय हरकौली की बेंच ने संसद द्वारा 17 अगस्त 2018 को एससी एसटी मे किये गये संशोधन के बाद दर्ज करायी गयी एक प्राथमिकी को चुनौती देने वाली राजेश मिश्रा की याचिका के यही कहकर सोमवार को निस्तारण कर दिया कि चूंकि प्राथमिकी में जो धारायें लगी हैं उनमें सजा सात साल तक की ही है अतः गिरफतारी से पहले सुप्रीम कोर्ट द्वारा अरनेश कुमार के फैसले में दिये गये दिशानिर्देशें का पालन किया जाये।
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बतातें चले कि याची राजेश मिश्रा ने कोर्ट में याचिका दाखिल कर अपने खिलाफ लिखायी गयी प्राथमिकी को चुनौती दी थी और साथ ही यह मांग भी की थी कि पुलिस को निर्देश दिया जाये कि दौरान विवेचना उसे गिरफ्तार न किया जाये। सोमवार को सुनवाई के समय अपर शासकीय अधिवक्ता प्रथम नंद प्रभा शुक्ला ने केर्ट को आवश्वसन दिया कि सजा सात साल से कम है अतः मामले में विवेचक सुप्रीम केर्ट के उपरेक्त फैसले का पालन करेंगे।
यह मामला गोंडा जनपद का था। शिवराजी देवी ने 19 अगस्त 2018 को गोंडा के कांडरे थाने पर याची राजेश मिश्रा व अन्य तीन लोगो के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज कराकर कहा था कि वह अनुसूचित जाति की महिला है। 18 अगस्त 2018 के सात करीब 11 बजे विपक्षी सुधाकर राजेश रमाकांत व श्रीकांत पुरानी रंजिश को लेकर उसके घर चढ़ आये और उसे व उसकी लड़की के जातिसूचक गंदी गंदी गाली देने लगे। जब उसने उन लोगों को मना किया तो वे उसके घर में घुसकर उन्हें लात घूंसों लाठी डंडा से मारने लगे जिससे काफी चोंटे आयीं। उनके शोर मचाने पर गांव वालों ने मौके पर पहुंचकर उनकी जान बचायी।
याची अभियुक्त राजेश मिश्रा का कहना था घटना बिल्कुल झूठ है और शिवराजी ने गांव की राजनीति के चलते उक्त प्राथमिकी लिखायी है।
यह कहा था सुप्रीम कोर्ट ने अरनेश कुमार बनाम बिहार राज्य के मामले में-
2 जुलाई 2014 के दिये अपने इस फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने बिना ठोस वजह केवल इसलिए गिरफतारी कर ली जाये कि विवेचक के अधिकार है की प्रथा पर गंभीर आपत्ति जतायी थी। उसने 2001 में आयी विधि आयोग की 177 वीं रिपोर्ट जिसके बाद संसद ने सीआरपीसी की धारा 41 में संशोधन कर गिरफतारी के प्रावधानों पर अंकुश लगाया था का हवाला देकर साफ किया था कि जिन केसेस में सजा सात साल तक की है उनमें गिरफतारी से पहले विवेचक को अपने आप से यह सवाल करना जरूरी है कि आखिर गिरफतारी किसलिए आवश्यक है। कोर्ट ने ऐसे मामलें में रूटीन में गिरफ्तारी पर आपत्ति की थी कि गिरफ्तारी से पहले अभियुक्त को नेटिस देकर पूंछताछ के लिए बुलाया जायेगा और यदि अभियुक्त नेटिस की शर्तो का पालन करता है तो उसे दौरान विवेचना गिरफ्तार नहीं किया जायेगा।