गद्दार पाकिस्तान की सच्चाई: जाने कैसे काम करती है दुश्मन देश की सेना, एक राष्ट्र पर हावी वर्दीधारी सत्ता

Pakistan Army Strength: पाकिस्तान में सबसे सशक्त संस्था उसकी सेना है वहीं पाकिस्तानी सेना के प्रमुख असीम मुनीर से इस्तीफा मांगे जाने की खबरें भी आ रही हैं।

Akshita Pidiha
Published on: 7 May 2025 9:42 AM IST
Military strength of Pakistan
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Military strength of Pakistan

Military Strength of Pakistan: पाकिस्तान एक ऐसा देश है जहाँ लोकतांत्रिक ढांचा होने के बावजूद सबसे सशक्त संस्था उसकी सेना रही है। पूर्व सेनाध्यक्ष जनरल क़मर जावेद बाजवा ने अपनी सेवा-निवृत्ति के समय यह घोषणा की थी कि अब सेना राजनीति में हस्तक्षेप नहीं करेगी। किंतु इसके तुरंत बाद पूर्व प्रधानमंत्री इमरान खान की गिरफ्तारी और नागरिकों पर सैन्य कानून के तहत मुकदमे चलाने की घोषणा ने यह सिद्ध कर दिया कि सेना अब भी सत्ता के केंद्र में बनी हुई है।

पाकिस्तानी सेना के प्रमुख असीम मुनीर से इस्तीफा मांगे जाने की खबरें आ रही हैं। कुछ मीडिया रिपोर्टों में यह भी कहा गया है कि मुनीर देश छोड़कर भाग गए हैं और उनके परिवार ने भी पाकिस्तान छोड़ने का निर्णय लिया है। यह आशंका तब और बढ़ गई जब भारत के पहलगाम हमले के जवाब में पाकिस्तान के खिलाफ कोई ठोस कार्रवाई करने के लिए बैठकें चल रही हैं। प्रधानमंत्री मोदी ने आतंकियों को ऐसी सजा देने की बात की है, जो उनकी कल्पना से परे होगी।


पाकिस्तान में भारत की संभावित जवाबी कार्रवाई को लेकर भय का माहौल है। यहां तक कि पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ भी इस पर ज्यादा कुछ नहीं बोल रहे हैं। वहीं, जनरल मुनीर का भी कोई ठिकाना नहीं है।सीमा पर जंगी विमानों की उड़ानें बढ़ गई हैं और तीनों सेनाओं को अलर्ट पर रखा गया है।इस बीच, पाकिस्तान की सेना के जूनियर अधिकारियों और रिटायर्ड जनरलों ने असीम मुनीर से इस्तीफा देने की मांग की है। खबरों के अनुसार, अधिकारियों का आरोप है कि जनरल मुनीर ने सेना का राजनीतिक लाभ के लिए इस्तेमाल किया है और वे बदले की भावना से काम कर रहे हैं। मीडिया रिपोर्टों के अनुसार, पाकिस्तानी सेना के अधिकारियों की एक चिट्ठी में कहा गया है कि जनरल मुनीर के नेतृत्व में पाकिस्तान 1971 जैसे हालात में पहुंच गया है, जब भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध हुआ था, जिसके परिणामस्वरूप बांग्लादेश का निर्माण हुआ।

राजनीतिक उथल-पुथल और सेना का स्थायित्व

पाकिस्तान में राजनीतिक दलों का आना-जाना लगा रहता है, लेकिन सेना की सत्ता कभी डगमगाई नहीं। सेना के सहयोग से 2018 में सत्ता में आए इमरान खान, जिन पर अब 100 से अधिक आपराधिक मुकदमे दर्ज हैं—जिनमें भ्रष्टाचार, देशद्रोह, आतंकवाद, और ईशनिंदा जैसे संगीन आरोप शामिल हैं—इससे यह समझना कठिन नहीं कि पाकिस्तान में सत्ता का असली संचालनकर्ता कौन है।


इमरान की गिरफ्तारी के बाद पूरे देश में हिंसक विरोध प्रदर्शन हुए, जिनमें पुलिस वाहनों को जलाना, सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचाना और लाहौर व रावलपिंडी के सैन्य ठिकानों पर भीड़ का धावा शामिल था। लेकिन जब सेना ने संकेत दिया कि वह प्रदर्शनकारियों पर सैन्य कानून लागू करेगी, तो अचानक स्थिति बदल गई और सेना के समर्थन में शांतिपूर्ण रैलियाँ होने लगीं।

एक सेना के साथ बना राष्ट्र

1947 में भारत विभाजन के समय पाकिस्तान के पास केवल 1,40,000 सैनिकों की सेना थी, लेकिन आज यह दुनिया की सातवीं सबसे शक्तिशाली सेना मानी जाती है। इसकी नींव उपनिवेशवादी ब्रिटिश सैन्य परंपरा में है। 1951 तक पाकिस्तानी सेना का नेतृत्व ब्रिटिश जनरल्स करते रहे और फिर जनरल अयूब खान को कमान मिली। केवल सात वर्षों में अयूब खान ने तख्तापलट करके खुद को राष्ट्रपति घोषित कर दिया।


1948 में बने इंटर-सर्विसेज इंटेलिजेंस (ISI) ने 1980 के दशक में अमेरिकी सहयोग से अफगानिस्तान में सोवियत संघ के खिलाफ युद्ध के समय अपनी ताकत बढ़ाई। इस दौर में प्रधानमंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो को फांसी दी गई और देश में धार्मिक कट्टरता को बढ़ावा मिला, खासकर जनरल ज़िया-उल-हक़ के समय। इसके बाद जनरल परवेज मुशर्रफ के शासनकाल में पूर्व प्रधानमंत्री बेनज़ीर भुट्टो की हत्या, पत्रकारों और नागरिकों की जबरन गुमशुदगियाँ और अल-कायदा नेता ओसामा बिन लादेन को देश में पनाह देने जैसे गंभीर घटनाएँ हुईं। अमेरिका से मिल रहे आर्थिक और सैन्य सहयोग ने सेना को और मजबूत किया।

राजनीतिक हस्तक्षेप और आर्थिक लाभ

34 वर्षों तक प्रत्यक्ष सैन्य शासन और अन्य समयों में 'हाइब्रिड डेमोक्रेसी' (सेना-नियंत्रित लोकतंत्र) के माध्यम से सेना ने पाकिस्तान की नीतियों और राजनीतिक दलों को नियंत्रित किया। सेना की नीतियाँ अफगानिस्तान, भारत और अरब जगत के संघर्षों तक फैली हुई हैं। बांग्लादेश मुक्ति संग्राम के दौरान पाकिस्तानी सेना के 'बलात्कार शिविरों' की अंतरराष्ट्रीय निंदा हुई थी।


आर्थिक बदहाली में भी सेना का वैभव

पाकिस्तान इस समय गंभीर आर्थिक संकट से जूझ रहा है। राज्य के पास मात्र 5.2 बिलियन ऑस्ट्रेलियन डॉलर के भंडार हैं, जबकि 13.5 बिलियन डॉलर से अधिक का ऋण IMF को चुकाना है। इसके बावजूद सेना को पिछले साल 11.27 बिलियन डॉलर का बजट मिला, जो कि अन्य सभी क्षेत्रों से अधिक है। 2011 से 2015 के बीच पाकिस्तानी सेना की संपत्ति में 78% की वृद्धि हुई। 2016 तक सेना 50 से अधिक व्यावसायिक संस्थाएं चला रही थी, जिनकी संयुक्त कीमत 30 बिलियन डॉलर थी। आज यह आंकड़ा 39.8 बिलियन डॉलर से अधिक है।

सैन्य अधिकारियों की व्यक्तिगत संपत्ति

पूर्व सेना प्रमुख जनरल क़मर जावेद बाजवा और प्रवक्ता जनरल आसिम सलीम बाजवा की संपत्ति में केवल कुछ वर्षों में भारी इजाफा हुआ। बाजवा के परिवार ने छह वर्षों में अरबों की संपत्ति बना ली। वहीं, जनरल आसिम और उनके भाई ने पापा जॉन पिज़्ज़ा फ्रेंचाइज़ी के तहत चार देशों में 133 रेस्टोरेंट्स का साम्राज्य खड़ा कर लिया। जनरल अशफ़ाक परवेज़ कयानी के भाइयों पर रियल एस्टेट घोटालों की जांच चली। पेंडोरा पेपर्स ने पाकिस्तान के कई पूर्व सैन्य अधिकारियों के अपार धन और करचोरी को उजागर किया।


सेना की व्यापारिक और भौगोलिक जकड़

सेना अब केवल रक्षा नहीं बल्कि व्यापार और भूमि पर भी नियंत्रण करती है। वह CPEC जैसी विशाल परियोजनाओं में भी सहभागी है। सेना की कंपनियाँ, ज़मीन-जायदाद, रक्षा सौदों पर नियंत्रण और विदेशों में स्थित निवेश उसकी अपार ताकत को दर्शाते हैं।

सूचना नियंत्रण और दमनात्मक कानून

सेना ने केवल राजनीतिक सत्ता नहीं, बल्कि सूचना तंत्र भी अपने अधीन किया है। मीडिया पर पाबंदियाँ, सोशल मीडिया निगरानी और अस्पष्ट कानूनों के सहारे वह आलोचना को दमन के रूप में लेती है। सेना का “अपमान” करना अब कानूनी अपराध है, जिसमें लंबे कारावास और भारी जुर्माने का प्रावधान है। पत्रकार अर्शद शरीफ़ को ‘देशद्रोह’ के आरोप में निशाना बनाया गया क्योंकि उन्होंने सेना के खिलाफ रिपोर्टिंग की थी। अंततः उन्हें विदेश में मार दिया गया।

सेना: एक राज्य के भीतर राज्य

पाकिस्तान एक परमाणु शक्ति है, और उसकी सेना स्वयं में एक स्वतंत्र सत्ता की तरह है। वोल्टेयर द्वारा प्रशिया के फ्रेडरिक द्वितीय के लिए कही गई बात पाकिस्तान की सेना पर सटीक बैठती है—"एक सेना नहीं, बल्कि सेना का एक राज्य।" वह अपने संगठनात्मक अनुशासन, राष्ट्रवाद और दिखावटी ईमानदारी के दम पर राजनीतिक व्यवस्था से स्वयं को अलग बताने में सफल रही है। राजनीति को भ्रष्ट, गुटबाज़ी से भरा और खानदानपरस्ती से ग्रस्त बताकर सेना ने जनता में अपने लिए विश्वास कायम किया है, भले ही उसके अपने वरिष्ठ अफसर घोर भ्रष्टाचार में लिप्त रहे हों।


पाकिस्तान की सेना एक 'सत्ता के केंद्र' से कहीं अधिक है—यह एक 'संस्था' है जो राष्ट्र की हर दिशा को नियंत्रित करती है: राजनीति, अर्थव्यवस्था, मीडिया, और कूटनीति। सेना का यह वर्चस्व देश के लोकतंत्र, पारदर्शिता और नागरिक स्वतंत्रता के लिए सबसे बड़ा खतरा बन चुका है। जब तक पाकिस्तान अपनी सेना को उसकी वास्तविक संवैधानिक भूमिका तक सीमित नहीं करता, तब तक सच्चे लोकतंत्र और स्थायित्व की कल्पना करना कठिन है।

सेना की भूमिका और विरोधाभास

हालांकि पाकिस्तान की वर्तमान दुर्दशा के लिए केवल सेना को दोषी नहीं ठहराया जा सकता, लेकिन लोकतंत्र के अस्थिर विकास में उसका योगदान निश्चित रूप से रहा है। तख्तापलट और बार-बार के हस्तक्षेपों ने राजनेताओं को केवल अवसरवाद सिखाया। लेकिन केवल पाकिस्तान ही नहीं, दुनिया भर में लोकतंत्र की गुणवत्ता घट रही है और जनता केवल लोकप्रिय नारों के पीछे चल रही है।

विदेश नीति में सेना की विफलताएं

परंतु विदेश नीति के क्षेत्र में सेना अक्सर असफल रही है। कश्मीर को लेकर वह भारत से किसी भी समझौते का विरोध करती है। नवाज शरीफ और बेनज़ीर भुट्टो, दोनों को भारत से बात करने में सेना की बाधाएं झेलनी पड़ीं। पूर्व राष्ट्रपति परवेज़ मुशर्रफ़ 2007-08 में एक समझौते के बेहद करीब पहुंचे थे, लेकिन उन्होंने कोर कमांडरों को इसके विवरण नहीं बताए और संभवतः उनका विरोध झेलना पड़ता।


अफगानिस्तान में भी यही हुआ। सेना ने तालिबान की एकपक्षीय सरकार को समर्थन दिया, जबकि अंतरराष्ट्रीय समुदाय सत्ता साझा करने की मांग कर रहा था। यह एक भयानक भूल थी। पाकिस्तान को आर्थिक रूप से पुनर्जीवित करने का सबसे अच्छा अवसर उसकी भौगोलिक स्थिति है—भारत, ईरान, चीन और मध्य एशियाई देशों के बीच एक व्यापारिक गलियारे के रूप में। लेकिन जब तक तालिबान सत्ता में रहेगा, यह सपना साकार नहीं हो सकता।

सेना में आंतरिक बदलाव और भविष्य की अनिश्चितताएं

यह अभी भी ब्रिटिश सेना के उस सिद्धांत पर काम करती है जिसमें हर रेजीमेंट में विभिन्न जातियों को शामिल किया जाता है। हालाँकि पंजाबी बहुसंख्यक हैं, लेकिन पश्तून, बलोच और सिंधी भी महत्वपूर्ण भूमिकाएं निभाते हैं। इमरान ख़ान के खिलाफ कार्रवाई सामान्य सैनिकों के बीच अलोकप्रिय रही है, लेकिन विद्रोह की कोई संभावना नहीं है—और यह बात महत्वपूर्ण है, क्योंकि पाकिस्तान के पास 170 से अधिक परमाणु हथियार हैं।


सेना में एक और बड़ा बदलाव यह है कि अब देश की कुलीन वर्ग (इस्लामाबाद, लाहौर और कराची के अभिजात्य परिवार) अपने बच्चों को सेना में नहीं भेजता। वे उन्हें अमेरिका या ब्रिटेन की यूनिवर्सिटियों में भेजते हैं—चीन में कभी नहीं। इससे सेना और शासक वर्ग के बीच की पारंपरिक कड़ी टूट गई है। अब सेना के अधिकारी निम्न-मध्यम वर्ग और गरीब तबकों से आते हैं। वे इस्लामी चरमपंथी नहीं हैं (जैसा कि पश्चिम को डर था), लेकिन वे लोकतंत्र और पश्चिमी शैली की राजनीति से बहुत प्रभावित नहीं हैं। वे भारत विरोधी भावनाओं से प्रशिक्षित होते हैं, लेकिन चीन के अति-निकटता से भी सतर्क रहते हैं।

एक और चिंताजनक बदलाव यह है कि सेना के भीतर भी लोकतांत्रिक संस्कृति कम होती जा रही है। 2001 तक भी राष्ट्रपति मुशर्रफ़ को कोर कमांडरों का विरोध झेलना पड़ता था, लेकिन आजकल सेनाध्यक्ष 'बराबर में पहला' नहीं बल्कि लगभग एकछत्र शासक बन गया है। यह खतरनाक हो सकता है, क्योंकि पाकिस्तान को अब अच्छे निर्णयों की सख्त ज़रूरत है।

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