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Women Rights: पहली बार सिगरेट पीती हुई औरत

Women Rights: महिला और पुरुष दोनों समान है पर ऐसा होता नहीं है और न ही संभव है। न महिलाएं कम होती है और न पुरुष कम होते हैं, न उन दोनों में से ही कोई अधिक ऊंचा होता है।

Anshu Sarda Anvi
Written By Anshu Sarda Anvi
Published on: 2 May 2024 2:47 PM GMT
Woman smoking cigarette for the first time
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 पहली बार सिगरेट पीती हुई औरत: Photo- Social Media

पहली बार

सिगरेट पीती हुई औरत

मुझे अच्छी लगी।

क्योंकि वह प्यार की बातें

नहीं कर रही थी।

चारों तरफ़ फैलता धुआँ

मेरे भीतर धधकती आग के

बुझने का गवाह नहीं था।

उसकी आँखों में

एक अदालत थी ।

एक काली चमक


जैसे कोई वकील उसके भीतर जिरह कर रहा हो

और उसे सवालों का अनुमान ही नहीं

उनके जवाब भी मालूम हों।

वस्तुतः वह नहा कर आई थी

किसी समुद्र में,

और मेरे पास इस तरह बैठी थी

जैसे धूप में बैठी हो।


उस समय धुएँ का छल्ला

समुद्र-तट पर गड़े छाते की तरह


खुला हुआ था—

तृप्तिकर, सुखविभोर, संतुष्ट,

उसको मुझमें खोलता और बचाता भी।

Women: साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त हिंदी के वरिष्ठ कवि सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की यह कविता मुझे अचानक ध्यान आई जब मैंने उस लड़की को देखा। कवि यहां स्त्री के पारंपरिक रूप से मान्य प्यार भरी बातें करने वाली से इतर पहली बार सिगरेट पीती औरत के इस रूप से अधिक संतुष्ट हो रहे थे। क्योंकि कई लोगों के लिए सिगरेट का कश लगाने से उठता धुआं एक बड़ी ही आजादी का, बड़े ही खुलेपन का, गहन वैचारिक दृष्टिकोण रखने वालों की निशानी होती होता है। वह लड़की थी इसलिए शायद तुरंत उसकी हरकत पर ध्यान चला गया और फिर तुरंत नजरें भी घुमा लीं। फिर भी कनखियों से चुपके-चुपके देखना जारी रहा कि यह आगे क्या हरकत करती है। ऐसा भी नहीं था कि उस समय रात का बहुत समय हो चुका हो। वह लड़कों के साथ उस रेस्टोरेंट के बाहर खड़ी बड़ी ही बेतरतीबी से सिगरेट के कश खींच रही थी। बीच-बीच में एक लड़का उससे सिगरेट ले लेता और कश खींच रहा था। फिर वह उसके हाथ से सिगरेट लेने को हाथ बढ़ा देती और कश खींचती।

आजादी के नए प्रतीक

हालांकि अब इस तरह के दृश्य देखना कोई बहुत अधिक आश्चर्य की बात नहीं कम से कम मेट्रोपोलिटन शहरों में तो नहीं। फिर भी हमारी जैसी 70-80 के दशक में जन्मीं महिलाओं के लिए यह थोड़ा सा अरुचिकर लगने वाला दृश्य हो जाता है। सिगरेट हो किसी भी अन्य तरह का नशा हो वह पुरुषों और महिलाओं दोनों के लिए ही समान रूप से नुकसानदायक है। भारत में भी अब इस तरह के दृश्य वह भी सार्वजनिक रूप से खुलेआम होते जा रहे हैं। पश्चिम में महिलाएं पुरुषों की तरह से कपड़े पहनती हैं जो कि हमारे देश में भी हम सबके द्वारा अब स्वीकार कर लिया गया है, उनकी भांति सिगरेट, शराब और यौन स्वच्छंदता से भी उन्हें कहीं भी परहेज नहीं है, जो कि अब हमारे देश में भी आजादी के नए प्रतीकों के रूप में अब स्वीकृति पाता था रहा है।

Photo- Social Media

महिला सशक्तिकरण

मेरे मन में यहां एक सवाल बार-बार उठ रहा था कि हम महिला सशक्तिकरण की बात करते हैं, हम महिलाओं को सबल बनाने की बात करते हैं, सब ठीक है लेकिन महिलाओं के लिखने, पढ़ने, बोलने और काम करने की आजादी से शुरू हुई उनकी यह निजी लड़ाई कहां जाकर रुकेगी? उस पर क्या अब फिर से विचार करने का समय आ गया है? इस समय जब हम आधी आबादी पर नजर डालते हैं तब हम पाते हैं कि एक विचित्र तरीके का संक्रमण का दौर चल रहा है। एक तरफ जहां महिलाओं की शिक्षा, रोजगार और उनको आगे बढ़ाने के लिए आरक्षण जैसे मुद्दों पर हम बात कर रहे हैं, उन्हें अलग-अलग बड़े पदों पर स्थापित होते हुए भी देख रहे हैं तो दूसरी तरफ हम आज की नई पीढ़ी को भी देख रहे हैं जो कि पहले से अधिक आजाद है और उसमें भी दो तरह के वर्ग साफ-साफ नजर आते हैं। एक वह जो अपने तनाव को, अपने कामों के बोझ को अपने सिर पर रखकर भी आकाश भर ऊंचाई को नापने का हौसला रखतीं हैं और यह बात नयी और पुरानी दोनों पीढ़ियों पर लागू है तथा दूसरी वह जो पुरुषों के बराबर तो होना चाहती हैं, वह अपने लिए बोल भी रही हैं लेकिन पुरुष सत्ता को अपनाकर, उसमें खुद को लोप करके, उनके जैसा बनकर ही वह अपनी आजादी को अपने अधिक करीब पा रही हैं। अब सोचना यहां पर यह है कि आज की स्त्री को अपने नारीत्व की सीमा में रहना पसंद करना चाहिए और स्वयं को असहाय या अनिर्णायक स्थिति में रहकर पुरुषों की सहानुभूति को भुनाते रहना चाहिए या इससे अलग अपनी राह बनानी चाहिए।

Photo- Social Media

महिलाओं की भागीदारी

कहीं ऐसा तो नहीं कि इन सब से नारीवादी चिंतन बहककर पुरुषों की तर्ज पर ही, पुरुषों के अनुसार ही विकसित होने लग जाए। महिलाओं के लिए जो मुद्दे उठाए जाते हैं, उनसे आखिर हमारा क्या उद्देश्य होता है? क्या महिलाएं अपना प्रतिनिधित्व करने में सक्षम और समर्थ नहीं है? क्या पुरुष के स्थान पर महिलाएं खुद को स्थापित करके अपना पूरा योगदान दे पाएंगी? क्या वे उस स्थान पर अपना परिचय स्थापित कर पाएंगी? हम राजनीति के ही क्षेत्र को लेते हैं। इस समय दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश में चुनाव का मौसम चल रहा है। अभी अगले एक महीने तक और पांच चरणों में चुनाव होने बाकी हैं। महिलाएं राजनेताओं की भूमिका में देश में स्थापित भी हैं और आगे खड़ी भी हैं, और वर्तमान चुनाव में उम्मीदवार भी है और मतदान करने में भी उनका प्रतिशत अब बढ़ रहा है। लेकिन यह देखा जाता है कि प्रतिनिधि के रूप में महिला नेताएं भी पुरुषों के समान ही व्यवहार करने लग जाती हैं, उनके समान ही आचरण करने लग जाती हैं। वह भले हीं अपनी-अपनी पार्टी के लिए मुख्य चेहरे के समान काम करती हैं या उनकी प्रवक्ता बन कर मीडिया का सामना करती हैं लेकिन यह बात भी हमें नहीं भूलना चाहिए कि इतना कुछ होने पर भी कुछ एक उदाहरणों को छोड़ दें अगर हम तो वह राजनीति के क्षेत्र में भी दोयम स्थान पर ही होती हैं। वह भी जानती हैं कि सत्ता के विरोध में हमेशा जोखिम होता है और अगर एक महिला किसी क्षेत्र में आगे बढ़ती है तो वह आश्वासन भी चाहती है और प्रतिबद्धता भी चाहती है और वह भी पुरुष से, जिसकी सत्ता के विरोध में वह बगावत करके आगे बढ़ रही है। वह उसी के साथ ही दूसरे किसी क्षेत्र में साथ चलने के नाम पर दब रही होती है या दवाब स्वीकार कर लेती है।

Photo- Social Media

क्या वास्तव में महिला और पुरुष दोनों समान हैं?

हालांकि कहा जाता है कि महिला और पुरुष दोनों समान है पर ऐसा होता नहीं है और न ही संभव है। न महिलाएं कम होती है और न पुरुष कम होते हैं, न उन दोनों में से ही कोई अधिक ऊंचा होता है। जिसके पास कम ताकत होती है उसके अधिकारों को दबाने का अधिकार अधिक ताकत वाले को मिल जाता है, फिर वह चाहे पुरुष हो या महिला। तो क्या दोयम रह जाना ही एक महिला की नियति है? क्या आज की महिला को स्वतंत्र होते हुए भी सब कुछ कहने की मनाही है? क्या महिलाओं द्वारा उठाए गए विषयों में पुरुष दिलचस्पी नहीं रखता है? क्या महिलाओं के लिखे हुए को पुरुष उतनी बौद्धिकता के साथ स्वीकार करता है या उसको वह उतने अंक दे पता है जितना पुरुष लेखक को या बौद्धिक वर्ग को मिलता है? या उसको यह आवश्यकता लगती है कि वह जल्दी ही महिलाओं के द्वारा उठाई गई बातों या मुद्दों को खत्म कर दे और वह चाहता है कि वह वापस उलझ जाएं अपने घर, परिवार, प्रेम, स्नेह, त्याग जैसे बंधनों में। और भूल जाए फिर से अपने ख्वाब रखना, बोलना और सोचना। स्त्री विषयों पर बहुत कुछ लिखा गया है, बहुत कुछ लिखा जा रहा है और आगे भी लिखा जाएगा और आज की महिला वास्तव में उतनी भोली या मासूम भी नहीं है कि वह दूसरों की व्यक्तिगत आकांक्षाओं की बलि चढ़ जाएं। कहीं न कहीं वह भी पुरुषों की तरह लेन-देन और इस हाथ दे, उस हाथ ले के खेल सीख गई है और वह पुरुष सत्ता का हाथ पकड़ कर, उसके संरक्षण में आगे बढ़ना सीख गई है। लेकिन इस तरह से उसने अपनी सत्ता का, स्वयं का लोप पुरुष सत्ता के साथ ही कर दिया है और वह पुरुषों के समान ही व्यवहार करने लग जाती है।

दरअसल शायद यही कारण है कि नई पीढ़ी में जो लड़कियां हैं या महिलाएं हैं, जो स्त्री वर्ग है वह एक तरफ तो अपनी आजादी या पुरुषों से अपनी आजादी के नाम पर वैवाहिक बंधन में नहीं बंधना चाहता है, घर-परिवार की जिम्मेदारी से दूर होता दिख रहा है। उसकी अपनी आकांक्षाएं अपनी प्राथमिकताएं होने लगी हैं लेकिन दूसरी तरफ वह लिव इन रिलेशनशिप या दोस्ती के नाम पर इसी पुरुष वर्ग को अपना रहा है और उनके साथ, उनके अनुसार बनकर बर्ताव कर रहा है ।

स्त्री विमर्श या महिला सशक्तिकरण का अर्थ यह नहीं कि इस तरह से हम स्त्री मुक्ति का दावा करें। 2-4 अंग्रेजी किताबों को पढ़कर या उनके जैसे खुली सोच रखकर सड़कों पर कम कपड़ों में घूम कर या सिगरेट और शराब के नशे में डूबने से क्या ऐसा लगता है कि लड़कियों को, महिलाओं को अपनी आजादी मिल गई है? शायद किसी को यह भी ठीक लगता होगा कि जो सब कुछ पुरुषों के लिए खुला है वो स्त्रियों के लिए भी तो खुला होना चाहिए। पर क्या वह मुक्त हो गई हैं? क्या वह उस मानसिकता से बाहर निकल पाई हैं जो कि उन्हें भिन्न बनाएं ? क्या उनका इस तरह से संघर्ष खत्म हो जाता है या उनकी व्यक्तिगत लड़ाई अलग-अलग स्तर पर फिर भी चलती रहती है? जरूरत है कि लड़कियों और महिलाओं की विशिष्ट समस्याओं पर ध्यान दिया जाए।

Photo- Social Media

परंपरा और महिला सशक्तिकरण

यह ठीक है कि स्त्री मुक्ति के प्रसंग को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता पुरुष समाज द्वारा क्योंकि एक स्त्री अपने बारे में क्या सोचती है, क्या सोच रखती है, कितनी व्यापक सोच रखती है यह हम चारों तरफ हो रहे बदलावों से समझ सकते हैं। कहीं ऐसा तो नहीं कि यह एक तरीके का मकड़जाल हो कि या तो परंपरा के नाम पर महिलाओं को विकलांग कर दिया जाए या फिर महिला सशक्तिकरण या उनकी आजादी के नाम पर उन्हें इस तरह से पुरुषोचित व्यवहार में उलझाकर निष्क्रिय कर दिया जाए कि वह बस मुग्ध भाव से पुरुषों के बने हुए इस जाल में उलझती जाए।

बहुत जरूरी है कि नई पीढ़ी के साथ संवाद स्थापित किया जाए, उनकी अवधारणाओं को समझा जाए, उनकी विचारधारा को गति देने से पहले उनकी विचारधारा को समझना बहुत जरूरी है। महिलाओं को भी अपने तेवर बनाए रखना होगा, अपने दिमाग को चौकस रखना होगा और यह दिमाग को चौकस रखना सिर्फ चुनाव में मतदान के लिए ही नहीं बल्कि हर उस प्रसंग और क्षेत्र में आवश्यक है जहां स्त्री स्वयं एक पक्ष हो।‌ आश्चर्य मुझे इस बात का अभी भी नहीं कि मैंने एक लड़की को सिगरेट पीते देखा पर वह लगातार अपने फोन पर घर वालों को झूठ भी बोलती जा रही थी। सतर्कता आवश्यक है।

(लेखिका वरिष्ठ स्तंभकार हैं।)

Shashi kant gautam

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